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किसान आंदोलन: बीजेपी मुश्किल में, सियासी नुक़सान का डर

किसान आंदोलन: बीजेपी मुश्किल में, सियासी नुक़सान का डर

इन इलाक़ों के किसान ताक़तवर हैं, इसलिए अपने हक़ की आवाज़ को जोरदार ढंग से उठाते हैं। दिल्ली और इनके सूबों की हुक़ूमत में बैठी सियासी पार्टियां भी इसे जानती हैं। 

हिंदुस्तान की किसान राजनीति का बड़ा केंद्र हैं दिल्ली के आस-पास लगने वाले राज्य और इलाक़े। इनमें पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश शामिल हैं। क्योंकि यहां बड़ी संख्या में किसान हैं, खेती होती है तो किसानों के मसले भी होते हैं। इन्हें उठाने के लिए किसान नेताओं की भी ज़रूरत हुई और इन राज्यों से कई किसान नेता सियासत की बुलंदियों तक पहुंचे। 

चौधरी चरण सिंह ऐसे ही किसान नेता थे जो पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक गांव से निकलकर मुल्क़ के प्रधानमंत्री के ओहदे तक पहुंचे। इसके अलावा कांग्रेस, बीजेपी और दीगर सियासी दलों से जुड़े नेता भी ख़ुद को किसान नेता कहलाने में गर्व महसूस करते हैं। 

इन इलाक़ों के किसान ताक़तवर हैं, इसलिए अपने हक़ की आवाज़ को जोरदार ढंग से उठाते हैं। दिल्ली और इनके सूबों की हुक़ूमत में बैठी सियासी पार्टियां भी इसे जानती हैं। इन इलाक़ों में हुए जबरदस्त औद्योगिक विकास के कारण इन किसानों की माली हालत भी मजबूत है। 

आज दिल्ली में कुछ वैसे ही हालात हैं, जैसे 32 साल पहले चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में दिल्ली आए लाखों किसानों के कारण बने थे। दिल्ली की हुक़ूमत को तब किसानों की ताक़त का अंदाजा हुआ था।

कोई भी राजनीतिक दल किसानों को नाराज़ कर इन इलाक़ों में सियासत नहीं कर सकता। मोदी सरकार जैसे ही किसान अध्यादेश लेकर आई तो यहां किसान पंचायतों का दौर शुरू हो गया और जब सरकार ने क़ानून ही बना दिए तो किसानों ने दिल्ली कूच का एलान कर दिया। किसानों की सियासी अहमयित को जानते हुए ही शिरोमणि अकाली दल ने मोदी सरकार से कहा कि वह इन क़ानूनों को वापस ले, वरना वह एनडीए से बाहर निकल जाएगी। लेकिन मोदी सरकार ने शायद इसे हल्के में लिया। 

किसानों के सड़क पर आने के बाद जब अकाली दल को अपनी सियासी ज़मीन जाती दिखी तो वह एनडीए से बाहर निकल आयी। इसके बाद किसान दिल्ली पहुंच गए और अब टिकरी और सिंघू बॉर्डर पर खूंटा गाड़कर बैठ गए हैं। 

किसान आंदोलन को लेकर पंजाब बीजेपी तो इस बात को जानती है कि राज्य की सियासत में अपने पैरों पर खड़े होने का उसका सपना पूरा होना लगभग नामुमकिन है। पड़ोसी राज्य हरियाणा में भी खासी खलबली है।

कृषि क़ानूनों में गड़बड़!

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ के मुताबिक़, हरियाणा के कई बीजेपी सांसद इस बात को मानते हैं कि किसानों के ख़िलाफ़ सरकार ने जिस तरह ताक़त का इस्तेमाल किया वह ग़लत था। कुछ सांसदों का यह भी मानना है कि उनकी सरकार के कृषि क़ानूनों में गड़बड़ है। उन्होंने कांग्रेस पर किसानों को भड़काने के आरोप लगाए और इस बात को भी स्वीकार किया कि बीजेपी किसानों को इन क़ानूनों के फ़ायदे बताने में असफल रही। 

किसान आंदोलन में हरियाणा के किसानों के शामिल नहीं होने के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर के दावे हवा में उड़ चुके हैं और अब हालात ये होने जा रहे हैं कि पंजाब से ज़्यादा भागीदारी हरियाणा के किसानों की हो सकती है क्योंकि खाप पंचायतें भी किसान आंदोलन के समर्थन में उतर आई हैं। 

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खट्टर के बयान से सहमत नहीं 

खट्टर के किसानों को कांग्रेस कार्यकर्ता कहने वाले बयान पर भिवानी-महेंद्रगढ़ के सांसद धर्मबीर सिंह कहते हैं, ‘हमें इस बात को स्पष्ट तौर पर समझना चाहिए कि किसान सिर्फ किसान होता है। ये कहना ग़लत होगा कि वे हमारे किसान नहीं हैं। पहले किसान आते हैं, फिर राजनीतिक दल क्योंकि वह हमारे अन्नदाता हैं।’ वह उम्मीद जताते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी इस मुश्किल का कोई हल ढूंढ लेंगे। 

खट्टर के बयान से राजनीतिक नुक़सान होने के डर को देखते हुए ही गृह मंत्री अमित शाह को उनके उलट बयान देना पड़ा। उन्होंने कहा, “मैंने ऐसा कभी नहीं कहा कि किसानों का आंदोलन राजनीति से प्रेरित है और न ही मैं अब ऐसा कह रहा हूं।”

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ के मुताबिक़, हिसार के सांसद बृजेंद्र सिंह कहते हैं कि कृषि बिलों के पास होने से पहले किसानों से बेहतर ढंग से बात की जा सकती थी। अंबाला के सांसद रतन लाल कटारिया कहते हैं कि हम किसानों को समझा सकते हैं लेकिन किसानों के आंदोलन को राजनीति से जोड़ना ठीक नहीं होगा। 

कटारिया कहते हैं कि किसान हमारा अन्नदाता है और कोरोना महामारी के दौरान यह अकेला सेक्टर था जिसने भारत को बचाया। बीजेपी के इन सांसदों की बातों से समझ आता है कि वे किसानों की नाराज़गी मोल नहीं लेना चाहते। 

ये किसानों की नाराज़गी का ही डर है कि हरियाणा के नेता अपने सरकारी पदों से भी त्यागपत्र दे रहे हैं। दादरी से निर्दलीय विधायक सोमवीर सांगवान ने हरियाणा पशुधन विकास बोर्ड के अध्यक्ष पद से सोमवार को इस्तीफा दे दिया और अब वे किसानों के साथ आंदोलन में शामिल होने जा रहे हैं।

हनुमान बेनीवाल छोड़ेंगे एनडीए!

अकाली दल, पंजाब और हरियाणा बीजेपी के बाद राजस्थान के एक नेता को किसानों की नाराज़गी का डर सता रहा है। इनका नाम हनुमान बेनीवाल है। बेनीवाल ने बीजेपी से निकलकर राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी नाम से दल बनाया और 2019 के लोकसभा चुनाव में एनडीए में शामिल हो गए थे। 

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हनुमान बेनीवाल।

नागौर से लोकसभा का चुनाव जीतने वाले बेनीवाल किसान आंदोलन के कारण अपनी सियासी ज़मीन को ख़तरा होते हुए देख रहे हैं। बेनीवाल ने 30 नवंबर को गृह मंत्री अमित शाह को पत्र लिखकर कहा है कि इन तीनों नए कृषि क़ानूनों को तुरंत वापस लिया जाए वरना उनकी पार्टी एनडीए में बने रहने पर पुनर्विचार करेगी। 

बेनीवाल को पता है कि हरियाणा, पंजाब, राजस्थान के किसान संगठनों का आपस में जबरदस्त तालमेल है। ऐसे में जब किसान संगठन इन कृषि क़ानूनों के विरोध में हैं तो वे किस मुंह से किसान मतदाताओं के बीच में जाएंगे। इसलिए उन्होंने बीजेपी और मोदी सरकार को अल्टीमेटम दे दिया है और सरकार का जैसा सख्त रूख़ है, उसमें नहीं लगता कि बेनीवाल ज़्यादा दिन एनडीए में टिक पाएंगे। 

बेनीवाल को यह भी पता है कि अकाली दल का एनडीए छोड़ने का कारण सिर्फ किसानों की नाराज़गी का डर है। ऐसे में उनका बीजेपी के साथ दिखना उनके सियासी करियर के लिए अच्छा नहीं होगा।

अगर बेनीवाल एनडीए छोड़ते हैं तो निश्चित रूप से बीजेपी को नागौर, जोधपुर, बाड़मेर, बीकानेर, सीकर के इलाक़ों में जाट मतदाताओं, जो मूल रूप से किसान भी हैं, के छिटकने का डर है। इन्हीं का साथ पाने के लिए बीजेपी ने उनसे चुनावी गठबंधन किया था। 

इसी तरह पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी किसान इन कृषि क़ानूनों के विरोध में आंदोलन कर रहे हैं। 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अब ज़्यादा वक़्त नहीं बचा है। किसानों की नाराज़गी का यह मुद्दा इस इलाक़े के किसान मतदाताओं को बीजेपी के ख़िलाफ़ कर सकता है। 

देखना होगा कि बीजेपी अपने इन तर्कों- किसानों का आंदोलन कांग्रेस प्रायोजित है या इसमें खालिस्तानी शामिल हैं या फिर उसकी सरकार के कृषि क़ानून किसानों के हितैषी हैं, के दम पर कब तक किसानों के विरोध से मुक़ाबला कर पाती है। लेकिन इतना तय है कि बीजेपी और उसके साथ खड़े नेता किसानों की सियासी हैसियत को जानते हैं और आलाकमान तक यह संदेश भी पहुंचा चुके होंगे कि वह अन्नदाता की नाराज़गी से बचे, वरना इन सभी इलाक़ों में राजनीतिक नुक़सान होना तय है। 

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