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परिवारवाद के हमाम में भाजपा भी नंगी है!

परिवारवाद के हमाम में भाजपा भी नंगी है!

वंशवाद की राजनीति सिर्फ़ कांग्रेस ही नहीं करती, बीजेपी और दूसरी पार्टियाँ भी करती हैं। 

जैसे ही राहुल-सोनिया ने अपने तरकश से प्रियंका गाँधी नामक तीर निकाला, भारतीय जनता पार्टी के नेताओं और प्रवक्ताओं ने एक बार फिर कांग्रेस पर एक वंश के प्रभुत्व पर हमला बोला और इस प्रकरण को उसकी ताज़ा मिसाल की तरह पेश करना शुरू कर दिया। इसमें कोई शक नहीं कि किसी भी लोकतंत्र में परिवारवाद या वंशवाद की कोई जगह नहीं होनी चाहिए और भारतीय लोकतंत्र में कांग्रेस पार्टी को अपनी इस विकृति के लिए ठीक ही आड़े हाथों लिया जाता है। मैं भी नेहरू-गाँधी परिवार के कांग्रेस पर वंशानुगत अधिपत्य और उसके ज़रिये इस देश पर उसके हुकूमत करने के जन्मसिद्ध अधिकार सरीखी दावेदारी का कड़ा आलोचक हूँ। लेकिन जब भाजपा इस प्रवृत्ति की आलोचना करती है तो उस हजम करना मेरे लिए मुश्किल हो जाता है। 

भले ही भाजपा स्वयं वंशानुगत नेतृत्व से नियंत्रित और संचालित होने वाले पार्टी न हो, उसके भीतर भी अनगिनत राजनीतिक परिवार पीढ़ी-दर-पीढ़ी टिकट और पदों के रूप में प्राथमिकता पाते रहे हैं और इस समय भी पा रहे हैं। एक संगठन के रूप में राजनीति में आगे बढ़ने के लिए भारतीय राजनीति की इस निंदनीय प्रवृत्ति की निर्लज्ज सहायता लेने में वह कभी पीछे नहीं रही। चाहे राज्यों की राजनीति हो या दिल्ली पर कब्ज़ा करने की रणनीति, भाजपा ने वंशानुगत नेतृत्व के विभिन्न संस्करणों से गठजोड़ करने में कभी परहेज़ नहीं की। इस मामले वह किसी भी राजनीतिक नैतिकता को न मानने वाली पार्टी रही है। 

ग़लतबयानी का ख़तरा उठाए बिना यह कहा जा सकता है कि भारतीय राजनीति के हमाम में वंशानुगत नेतृत्व का पानी भरा हुआ है और भाजपा भी अन्य पार्टियों की तरह (अपवादस्वरूप वामपंथी दलों को छोड़ कर) उसमें निर्वस्त्र स्नान कर रही है।

शिवसेना

अतीत में जाने के बजाय केवल वर्तमान पर ही नज़र दौड़ाने से इसके कई सबूत मिल जाते हैं। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठजोड़ (एनडीए) के सदस्य के रूप में शिवसेना एक ही परिवार की विभिन्न पीढ़ियों से संचालित पार्टी है। वैसे आजकल तो उसकी भाजपा से खटपट चल रही है, लेकिन महाराष्ट्र की राजनीति से लेकर नब्बे के दशक से आज तक केंद्रीय राजनीति में इस वंशानुगत नेतृत्व वाली पार्टी को भाजपा ने अपने लिए स्वाभाविक मित्र ही माना है। आज भी अगर शिवसेना मान जाए तो भाजपा उसके संगठन के वंशानुगत किरदार को भुला कर उसके साथ फौरन गठजोड़ कर लेगी। इसी तरह पंजाब में उसकी दूसरी सबसे पुरानी और विश्वस्त सहयोगी पार्टी अकाली दल है, जिसकी बागडोर केवल बादल परिवार के पास रहती है, और भाजपा को उसके साथ लगातार जुड़े रहने में कोई आपत्ति नहीं होती। ध्यान रहे, शिवसेना और अकाली दल के साथ भाजपा का गठजोड़ जल्दी-जल्दी टूटने-बनने वाले गठजोड़ों की श्रेणी में नहीं आता। यह स्थायी किस्म का गठजोड़ है जो दशकों से जारी है। 

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उद्धव ठाकरे और उनके पिता बाल ठाकरे

अपना दल-पीडीपी-जगन मोहन

उत्तर प्रदेश में भाजपा का अपना दल के साथ समझौता है और कुर्मी मतदाताओं में प्रभाव रखने वाली यह छोटी सी पार्टी भी एक परिवार के प्रभुत्व का राजनीतिक औजार है। आंध्र प्रदेश में भाजपा जगन मोहन रेड्डी के साथ चुनावी तालमेल करने की जुगाड़ में है- उन्हीं जगन मोहन के साथ जो वाई.एस. राजशेखर रेड्डी के बेटे हैं, जिन्हें इसी हैसियत के कारण पार्टी का नेतृत्व मिला है। कश्मीर में पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी का नेतृत्व मुफ़्ती परिवार के हाथों में रहा है और इस नाते भाजपा ने उसके साथ सरकार बनाने में थोड़ी भी हिचक नहीं दिखाई।

डीएमके, अकाली

भाजपा का अतीत भी इसी तरह के उदाहरणों से भरा हुआ है। पीडीपी से पहले अब्दुल्ला परिवार की जेबी पार्टी नेशनल कांफ़्रेंस और भाजपा के बीच गठजोड़ रह चुका है। तमिलनाडु में द्रविड़ मुनेत्र कषगम (द्रमुक) भाजपा की पार्टनर रह चुकी है। प्रमोद महाजन की कोशिशों से १९९९ में द्रमुक और भाजपा में दोस्ती हुई थी, जो २०१४ के चुनाव के ठीक पहले तक चली। इस पार्टी पर एम. करुणानिधि के परिवार का कब्ज़ा था और आज भी है। इस परिवार के बिना इस पार्टी का भविष्य कल्पनातीत ही है। आज यह पार्टी कांग्रेस के पाले में है, लेकिन अगर  परिस्थितियोंवश कहीं यह भाजपा से गठजोड़ करने पर राज़ी हो जाती है, तो भाजपा पूरी तत्परता के साथ उसका दामन थाम लेगी। 

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करुणानिधि, उनके बेटे स्टालिन और अलागिरी नरेंद्र मोदी के साथ

आईएनएलडी

हरियाणा में भाजपा पूर्ण बहुतम प्राप्त करने से पहले कभी चौटाला परिवार संचालित इंडियन नेशनल लोकदल से गठजोड़ में रही है, तो कभी भजनलाल के बेटे कुलदीप बिश्नोई की जनहित कांग्रेस के साथ। एक बार तो भाजपा ने बिश्नोई को अपनी तरफ से मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार तक घोषित कर दिया था।

नामजद अध्यक्ष

दरअसल, भाजपा कांग्रेस की वंशानुगत प्रवृत्तियों का हवाला दे कर स्वयं को अधिक लोकतांत्रिक दिखाने की कोशिश करती है। लेकिन ऐसा दावा करने से पहले भाजपा और उसके पैरोकारों को कम से कम एक उदाहरण तो इस बात का दिखाना ही चाहिए जब इस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव हुआ हो।

जनसंघ के ज़माने से ही भाजपा में राष्ट्रीय अध्यक्ष पृष्ठभूमि से अचानक प्रकट हो कर नियुक्त कर दिया जाता है। हाल ही में पहले गडकरी, फिर राजनाथ सिंह और उसके बाद अमित शाह अध्यक्ष बने हैं, पर उन्हें हमेशा की तरह संघ परिवार की ओर से नामज़द किया गया है। वे चुने नहीं गए।

संघ परिवार

इस लिहाज़ से भाजपा एक ख़ास तरह के परिवारवाद की जकड़ में है। यह संघ परिवार की जकड़ है, जो भले ही जैविक परिवार न हो, लेकिन वह विचारधारात्मक परिवार ज़रूर है, जो अपने पैदा किए संगठनों पर किसी जैविक परिवार से भी ज़्यादा कड़ा नियंत्रण रखता है। कौन भूल सकता है कि गोलवलकर ने जनसंघ के बारे में क्या कहा था उन्होंने कहा था कि जनसंघ तो गज्जर की पुंगी है जो जब तक बजेगी बजाएँगे और नहीं बजेगी तो खा जाएँगे। इतना कहने की हिम्मत तो कांग्रेस के बारे में नेहरू-गाँधी परिवार की भी नहीं है।

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