राष्ट्रीय एकता को ख़तरा राहुल गाँधी से नहीं मोदी सरकार से है!
केंद्रीय क़ानून मंत्री किरण रिजिजू का कांग्रेस नेता राहुल गांधी को ‘देश की एकता के लिए ख़तरा’ बताना सामान्य बात नहीं है। यह बताता है कि इंग्लैंड में राहुल गांधी के भाषणों और साक्षात्कारों से मोदी सरकार बुरी तरह बौखलाई हुई है और रिजिजू का हमला पूरी सरकार की ओर से किया गया पलटवार है। इससे यह भी ज़ाहिर होता है कि भारत जोड़ो यात्रा के बाद नई चमक के साथ सामने आयी राहुल गांधी की छवि को ध्वस्त करने के लिए सरकार किस हद तक जा सकती है।
राहुल गांधी ने कैंब्रिज युनिवर्सिटी से लेकर ब्रिटिश पार्लियामेंट में जो कुछ भी कहा उसमें कुछ भी ऐसा नहीं था जिससे दुनिया अनजान हो। भारत में लोकतंत्र के भविष्य को लेकर चिंता पूरी दुनिया में की जा रही है। कुछ साल पहले भारत के सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों ने अभूतपूर्व कद़म उठाते हुए जो प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी, उसका मक़सद भी यही बताना था कि लोकतंत्र ख़तरे में है। 12 जनवरी 2018 को हुई इस प्रेस कॉन्फ्रेंस को ‘राष्ट्र का क़र्ज़ उतारने’ की कार्यवाही बताते हुए जस्टिस चेलमेश्वर, जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस मदन लोकुर और जस्टिस कुरियन जोसेफ़ ने कहा था कि ‘वे नहीं चाहते कि 20 साल बाद उन पर आरोप लगे कि उन्होंने अपनी आत्मा बेच दी। उन्होंने इस संस्था (सुप्रीम कोर्ट) की परवाह नहीं की, उन्होंने देश के हित की परवाह नहीं की!’
स्वीडिश संस्था V-Dem की ओर से हाल ही में जारी हुई इलेक्टोरल डमोक्रेसी रिपोर्ट 2023 में भारत को 108 वें स्थान पर रखा गया है यानी तंज़ानिया और नाइजीरिया जैसे देशों से भी पीछे! 2022 में इसी सूची में भारत को 93वें स्थान पर रखा गया था। यही नहीं, इस रिपोर्ट में भारत को ‘दस निरंकुश देशों’ की सूची में भी शामिल किया था। 2014 में इसने भारत को 59वें स्थान पर रखा था। उधर, इकनोमिस्ट इंजेलिजेंस युनिट यानी EIU भी हर साल लोकतंत्र को लेकर रिपोर्ट जारी करती है। इसने भारत को लोकतंत्र के लिहाज़ से 2014 में 27वें स्थान पर रखा था जो 2022 में लुढ़कर 46वें स्थान पर पहुँच गया। अमेरिकी थिंक टैंक फ्रीडम हाउस की 2021 की रिपोर्ट में तो भारत को ‘आंशिक रूप से ही स्वतंत्र’ देशों की सूची में शामिल किया गया था जिस पर काफ़ी वबाल हुआ था।
कुछ यही हाल पत्रकारिता की आज़ादी का भी है जो लोकतंत्र का सर्वप्रमुख लक्षण है। 2022 में आयी ग्लोबल प्रेस फ्रीडम रैंकिंग में भारत का स्थान 180 देशों में 150वाँ था। रिपोर्ट में कहा गया था कि पत्रकारिता के लिहाज़ से भारत दुनिया के ख़राब देशों की श्रेणी में आता है। भारत की रैंकिंग 2020 में 142वीं और 2016 में 133वीं थी। यानी मोदी राज में हर बढ़ते साल के साथ हालात ख़राब होते गये हैं।
आँकड़ों से साफ़ है कि पूरी दुनिया न सिर्फ़ मान रही है बल्कि भारत में लोकतंत्र के क्षरण को दर्ज भी कर रही है। ऐसे में अगर देश के सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता राहुल गांधी इसे लेकर चिंता ज़ाहिर करते हैं तो ग़लत क्या है? क्या देश की जगह विदेश में होने से उनका मूल्यांकन बदल जाना चाहिए? क्या भारत की वैश्विक प्रतिष्ठा दुनिया में ‘सबसे बड़े लोकतंत्र’ की नहीं रही?
राहुल गांधी ने ‘लोकतांत्रिक विश्व’ की भारत की स्थिति पर चुप्पी को लेकर हैरानी जताई तो यह बाहरी हस्तक्षेप को निमंत्रण कैसे हुआ? जबकि राहुल गांधी ने एक सवाल के जवाब में स्पष्ट कहा कि भारत में लोकतंत्र पर छाये संकट से लड़ाई उसकी ‘आंतरिक लड़ाई’ है!
इसकी तुलना ज़रा प्रधानमंत्री मोदी के 2015 में सियोल में दिये गये उस भाषण से कीजिए जिसमें उन्होंने कहा था, “एक समय था… जब लोग सोचते थे, यार! पता नहीं पिछले जन्म में क्या पाप किया था कि हिंदुस्तान में पैदा हुए! ये कोई देश है! ये कोई सरकार है! ये कोई लोग हैं! चलो छोड़ो चला जाए कहीं और...और लोग निकल पड़ते थे।”… क्या ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ कहने वाले देश में इससे शर्मनाक बयान कुछ हो सकता है? वैसे हक़ीक़त ये है कि मोदी राज में भारत की नागरिकता छोड़ने वालों की तादाद रिकॉर्ड बना रही है। बीते पाँच साल में 7 लाख से ज़्यादा लोगों ने भारत की नागरिकता छोड़ी है। यानी रोज़ाना औसतन 500 भारतीय, विदेशी नागरिक बन रहे हैं। इसके पीछे निश्चित ही उनके ‘पूर्व जन्म के पाप’ नहीं, मोदी राज में फैली दुर्व्यवस्था है।
अगर मोदी सरकार में लोकतंत्र को लेकर ज़रा भी प्रतिबद्धता होती तो राहुल गाँधी के दिखाये आईने में चेहरा देखकर शर्मिंदा होती। लेकिन उसने ‘चेहरा देखकर आईना साफ़ करने’ की बेवकूफ़ी में नया रंग भरते हुए आईना दिखाने वाले पर ही हमला बोल दिया है। तानाशाही का सबसे बड़ा लक्षण विरोधियों को देशद्रोही की श्रेणी में डालना होता है और राहुल गांधी के साथ यही करने की कोशिश की गयी है। राहुल गांधी को राष्ट्र की एकता के लिए ख़तरा बताने वाले केंद्रीय मंत्री रिजिजू चाहे भूल गये हों पर देश कैसे भूल सकता है कि राहुल गांधी उन राजीव गांधी के बेटे और इंदिरा गांधी के पौत्र हैं जिन्होंने राष्ट्र की एकता बरक़रार रखने के लिए ही अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। या उस कांग्रेस पार्टी के नेता हैं जिसने सैकड़ों रियासतों में बँटे भारत को अपने उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन के ज़रिए न सिर्फ़ एक सूत्र में बाँधकर आधुनिक राष्ट्र-राज्य के रूप में भारत का अस्तित्व संभव किया बल्कि आज़ादी के बाद गोवा, पांडिचेरी, सिक्किम जैसे तमाम क्षेत्रों को भारत के नक्शे में जोड़कर इतिहास के साथ भूगोल भी बदला।
वैसे रिजिजू की जुमलेबाज़ी से अलग हटकर देखें तो राष्ट्रीय एकता वाक़ई ख़तरे में जान पड़ती है लेकिन इसकी वजह राहुल गांधी नहीं ख़ुद मोदी सरकार है। आज के भारत की एकता का आधार ‘भारत का संविधान’ है जो इसे एक लोकतंत्र के रूप में निर्देशित करता है। इस लिहाज़ से मोदी सरकार की ओर से लोकतंत्र और उसकी संस्थाओं को कमज़ोर किया जाना राष्ट्रीय एकता के लिए निश्चित ही ख़तरा है।
जब आरएसएस और उसकी वैचारिक प्रेरणा पर बनी बीजेपी के सांसद खुलेआम इस संविधान को बदलने की बात करते हैं तो राष्ट्रीय एकता पर ही प्रहार कर रहे होते हैं।
यही नहीं, ‘हिंदू राष्ट्र’ का नारा बुलंद करना भी भारत के संविधान पर हमला है जिसका बुनियादी संरचना में धर्मनिरपेक्षता भी शामिल है। हाल ही में पंजाब में जिस तरह खालिस्तान उग्रवादी फिर से सक्रिय हुए हैं, उसके पीछे भी तर्क यही है कि अगर हिंदूराष्ट्र की माँग ग़लत नहीं है तो खालिस्तान की माँग कैसे ग़लत है?
और सबसे बड़ी चेतावनी तो दक्षिण से आयी है। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने साफ़ कहा है कि उत्तर भारत के बीजेपी नेताओं ने तमिलनाडु में बिहारी मज़दूरों पर हमले की अफ़वाह ग़लत इरादे से फैलाई। उन्होंने कहा कि जैसे ही उन्होंने बीजेपी के ख़िलाफ़ राष्ट्रीय स्तर के गठबंधन की ज़रूरत बतायी, फर्ज़ी वीडियो बनाकर ऐसी अफ़वाहें फैलायी जाने लगीं।
उत्तर में दक्षिण के ख़िलाफ़ फर्ज़ी वीडियो के ज़रिये नफ़रत भरना अगर राष्ट्रीय एकता को तोड़ना नहीं है तो फिर क्या है? बीजेपी के तमाम नेताओं और उसके पिट्ठू अख़बारों ने यह काम खुलेआम किया है। भारतीय राष्ट्रवाद का आधार संविधान है जिसे राहुल गांधी बचाने की कोशिश कर रहे हैं जबकि बीजेपी उसे तोड़ रही है। राष्ट्रीय एकता को अगर कोई ख़तरा है तो राहुल गांधी से नहीं ख़ुद मोदी सरकार के कारनामों से है।
(लेखक कांग्रेस से जुड़े हैं)