फ़िल्म की तरह चिराग़ पासवान का राजनीतिक भविष्य सुपर फ़्लॉप साबित होगा या फिर वह पार्टी में बग़ावत की आँधी के बीच अपने पिता राम विलास पासवान की राजनीतिक विरासत को संजो कर रख पाएँगे? इस सवाल के जवाब में बिहार की आगे की राजनीति का संकेत छिपा हुआ है। चिराग़ की लोक जनशक्ति पार्टी के छह में से पाँच सांसदों ने बग़ावत का झंडा उठा लिया है। उन्होंने राम विलास पासवान के भाई पशुपति पारस को संसदीय दल का नेता चुन लिया है और चिराग़ को पार्टी के सभी पदों से हटाने की घोषणा कर दी है। इस बग़ावत के पीछे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी के नेताओं का हाथ बताया जा रहा है। 2020 में बिहार विधान सभा चुनावों के ठीक पहले चिराग़ ने नीतीश कुमार के साथ-साथ एनडीए को खुली चुनौती दी थी। चिराग़ की पार्टी इस चुनाव में सिर्फ़ एक सीट जीत पायी लेकिन नीतीश की पार्टी जनता दल यूनाइटेड छत्तीस सीटों पर हार गयी। नीतीश और चिराग़ के बीच तब से रस्साकशी चल रही है।
सुपर फ़्लॉप फ़िल्म के हीरो
राजनीतिक परिवार से होने और इंजीनियरिंग करने के बाद चिराग़ ने 2011 में फ़िल्म ‘मिलें ना मिलें हम’ के हीरो के रूप में शुरुआत की। हीरोइन कंगना रनाउत के होने के वावजूद यह फ़िल्म बुरी तरह पिट गयी और चिराग़ के फ़िल्मी भविष्य पर विराम लग गया। उसके बाद पिता की विरासत संभालने के लिए वह राजनीति में उतरे। राम विलास ने उन्हें पार्टी के संसदीय दल का प्रमुख बना कर सारे राजनीतिक अधिकार सौंप दिए। पिता की क्षत्रछाया में वह 2014 और 2019 का लोकसभा चुनाव जीते। लेकिन उनकी मुश्किलें तब शुरू हुईं जब 2020 में विधानसभा चुनावों से पहले राम विलास पासवान की मृत्यु हो गयी। चिराग़ की राजनीतिक महत्वाकांक्षा बढ़ चुकी थी, इसलिए उन्होंने विधान सभा चुनावों में ज़्यादा सीटों की माँग करके राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) से अपनी पार्टी को अलग करके 136 सीटों पर अपना उम्मीदवार खड़ा कर दिया।
राजनीतिक पंडितों का मानना है कि चिराग़ बिहार का मुख्यमंत्री बनने का सपना देख रहे थे। इसलिए उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का तो गुणगान और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर चोट करना शुरू किया। विधानसभा में उनकी पार्टी को सिर्फ़ एक सीट पर सफलता मिली। अक्टूबर 2020 में राम विलास पासवान के निधन के बाद चिराग़ केंद्र में मंत्री बनने की कोशिश कर रहे थे लेकिन पार्टी में बग़ावत के बाद मंत्री बनने का दावा पशुपति पारस के पास चला गया है।
त्रिमूर्ति युग का अंत?
1974 के बिहार छात्र आंदोलन से तीन सशक्त युवा नेता उभरे जिन्होंने बिहार की राजनीति के चेहरे को बदल दिया। इनमें सबसे मज़बूत नेता थे लालू प्रसाद यादव। यादव ने बिहार की राजनीति पर सवर्ण दबदबा को तोड़ कर पिछड़े और मुसलमानों का एक नया गठजोड़ तैयार किया जिसके बूते पर क़रीब 15 सालों तक सत्ता पर उनका क़ब्ज़ा रहा। लालू ने बिहार की राजनीति पर सवर्ण ख़ासकर ब्राह्मण दबदबा के साथ ही कांग्रेस को हासिये पर तो पहुँचा दिया लेकिन धीरे-धीरे उनकी राजनीति यादव और मुसलमान तक सिमट कर रह गयी। और तब ग़ैर यादव पिछड़ों के नेता के रूप में नीतीश कुमार खड़े हुए।
नीतीश ने अति पिछड़ा और अति दलित का एक नया समीकरण तैयार किया जिसके बूते पर वह क़रीब 12 सालों से सत्ता में हैं। विधानसभा के पिछले चुनाव से यह तो तय हो गया कि नीतीश की राजनीति भी उतार पर है, लेकिन बीजेपी अच्छी तरह से समझती है कि अभी नीतीश उनकी मजबूरी हैं। विधानसभा चुनावों में नीतीश की पार्टी तीसरे नंबर पर पहुँच गयी, फिर भी बीजेपी ने उनको मुख्यमंत्री बरक़रार रखा।
समाजवादी पृष्ठभूमि और छात्र आंदोलन से चमके तीसरे नेता थे राम विलास पासवान। पासवान ने कांग्रेस के दलित नेता जगजीवन राम की जगह आसानी से ले ली। लेकिन पासवान की अपनी सीमाएँ भी थीं। वह मुख्यतौर पर ज़्यादा समृद्ध दलितों के नेता बन कर रह गए। जगजीवन राम की तरह सवर्णों का एक वर्ग भी उनका समर्थक बन गया लेकिन जब नीतीश कुमार ने अति पिछड़ों और अति दलितों को एकजुट कर लिया तो पासवान की अपील सीमित हो गयी। नीतीश ने जीतन राम माँझी को आगे करके पासवान को एक सीमा में बाँध दिया।
चिराग़ से कहाँ चूक हुई?
चिराग़ पासवान ज़मीनी नेता नहीं हैं। राम विलास पासवान ने उन्हें पार्टी का नेता तो बना दिया लेकिन वह बिहार की राजनीति समझने से चूक गए। काशीराम ने मायावती को आगे करके उत्तर प्रदेश में दलितों की लड़ाई लड़ी, जिसके चलते दलित संगठित हुए और मायावती अपने बूते पर दलितों के नेता के तौर पर उभरीं। राम विलास पासवान ने दलितों की कोई लड़ाई नहीं लड़ी। उससे उलट नीतीश ने अति दलितों के लिए कई कार्यक्रम शुरू किए। जीतन राम माँझी को अपनी जगह मुख्यमंत्री बनने का मौक़ा भी दिया।
ज़मीनी हक़ीक़त को समझे बिना चिराग़ ने नीतीश से बैर मोल ले लिया, जिससे विधानसभा चुनावों में उनको बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा।
उन्होंने अपनी पार्टी के नेताओं की महत्वाकांक्षा को समझने में भी भूल कर दी। पशुपति पारस बिहार में मंत्री रह चुके हैं। राम विलास जब दिल्ली में राजनीति संभालते थे तब पशुपति बिहार में संगठन का काम देखते थे। इसलिए संगठन पर भी उनकी मजबूत पकड़ है। वह नीतीश के मंत्रिमंडल में भी रह चुके हैं। पार्टी के छह सांसदों में पशुपति के साथ उनके बेटे प्रिन्स भी हैं। राजनीतिक हलकों में चल रही चर्चाओं के मुताबिक़ जेडीयू के एक सांसद ने चिराग़ से अलग होने पर राम विलास की जगह केंद्र में मंत्री बनने में मदद करने का वादा करके उनकी महत्वाकांक्षाओं को भड़काया।
कैसे बदलेगी बिहार की राजनीति?
2020 के विधानसभा चुनावों में सबसे ज़्यादा 75 सीटें जीत कर लालू के बेटे तेजस्वी यादव ने साबित कर दिया है कि वह लालू की विरासत सम्भालने में सक्षम हैं। नीतीश के बेटे राजनीति से दूर हैं और उनकी पार्टी में ऐसा कोई नेता अभी तक नहीं है जो उनकी विरासत संभाल सके। चिराग़ की पार्टी में बग़ावत और नए बनते राजनीतिक समीकरण का फ़ायदा उठाने के लिए बीजेपी पहले से ही तैयार बैठी है। कांग्रेस का ओज ख़त्म होने के बाद सवर्ण पूरी तरह से बीजेपी की शरण में हैं। उपेन्द्र क़ुशवाहा और मुकेश सहनी के ज़रिए बीजेपी अति पिछड़ों को साधने की कोशिश में लंबे समय से लगी है। नीतीश के बाद पिछड़ों या अति पिछड़ों का कोई बड़ा चेहरा नहीं है। पशुपति से बीजेपी या नीतीश को कोई ख़तरा नहीं है। भविष्य में बीजेपी के सामने एक मात्र चुनौती तेजस्वी यादव दिखाई दे रहे हैं। सवर्ण, अति पिछड़ा, दलित और अति दलित एका के ज़रिए बीजेपी को एक नयी ज़मीन मिल सकती है। चिराग़ पासवान की राजनीतिक कमज़ोरी का सबसे बड़ा फ़ायदा बीजेपी को ही होता दिखाई दे रहा है।