बिहार महागठबंधन में कांग्रेस-कम्युनिस्ट सीट बँटवारे पर तक़रार

10:47 am Oct 01, 2020 | समी अहमद - सत्य हिन्दी

बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में गठबंधन बनाने का काम क्रिकेट के टी-20 जैसा चल रहा है। कौन किधर जा रहा है और कौन कितनी सीट पर लड़ना चाहता है, इस पर सस्पेंस बना हुआ है। इसी दौरान महागठबंधन में कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियों से क़रार पर तक़रार की ख़बर भी सुर्खियाँ बनी हैं।

महागठबंधन अब लगभग यूपीए का रूप ले चुका है। जब यह बना था तो इसकी सबसे बड़ी ख़बर यह थी कि इसमें नीतीश कुमार का जनता दल यूनाइटेड शामिल हो रहा है। इससे पहले तक राजद और कांग्रेस मिलकर यूनाइटेड प्रोग्रेसिव अलायंस या यूपीए ही चला रहे थे। नीतीश कुमार के अलग होने और दोबारा भारतीय जनता पार्टी के साथ जाकर सरकार बनाने के बाद भी राजद के नेतृत्व वाले महागठबंधन का नाम यही रहा।

मांझी-कुशवाहा

चुनाव की घोषणा से कुछ पहले जीतन राम मांझी अपने हिन्दुस्तान अवाम मोर्चा (सेक्यूलर) को महागठबंधन से लेकर अलग हुए और नीतीश कुमार के साथ गठबंधन बनाने की बात कहते हुए एनडीए में शामिल होने का ऐलान कर दिया। उनके एनडीए में जाने के बाद उपेन्द्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी के एनडीए में जाने की चर्चा शुरू हो गयी थी। वह एनडीए में तो नहीं गये, लेकिन मंगलवार को महागठबंधन से अलग होकर बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबंधन बनाने की घोषणा कर दी।

मांझी और कुशवाहा के महागठबंधन से जाने के बाद सीटों का बँटवारा आसान होना चाहिए था, लेकिन जैसे एनडीए में चिराग पासवान की लोजपा के नेताओं की तरफ से 143 सीटों पर लड़ने का बयान दिया जा रहा है, उसी तरह महागठबंधन में कांग्रेस की ओर से सभी सीटों पर लड़ने को तैयार रहने जैसा बयान दिया जा रहा है।

बँटवारे में पेच

अब जिस बात पर तक़रार है वह है कि राजद और कांग्रेस में कौन कितनी सीटों पर महागठबंधन में शामिल कम्युनिस्ट दलों को अपने हिस्से से हिस्सा दे सकते हैं। यह अपना हिस्सा भी एक पेच है। राजद के सूत्रों के अनुसार कांग्रेस 243 सीटों में 75 सीटों की माँग कर रही है, जब राजद इसमें 17 सीट कम कर उसे 58 सीट देने पर मनाने की कोशिश कर रही है। 

इसके बदले राजद वाल्मीकि नगर संसदीय सीट कांग्रस को देने की बात कह रहा है, जहाँ से 2019 में कांग्रेस दूसरे स्थान पर रही थी। यह सीट जदयू सांसद बैजनाथ महतो के निधन से खाली हुई है।

महागठबंधन में शामिल तीनों कम्युनिस्ट पार्टियों- सीपीआई एमएल, सीपीआई और सीपीएम- को 25 सीटें देने की बात चल रही है। चूंकि सीपीआई एमएल यानी भाकपा माले का बाकी दो कम्युनिसट दलों के मुक़ाबले बेहतर प्रदर्शन रहा है, इसलिए माले को अपने लिए अधिक सीटें चाहिए।

सीपीआई-सीपीआईएम का दावा

उसके नेताओं का मानना है कि उन्हें अपने संघर्ष क्षेत्र में सीटें मांगने का अधिकार है, हालांकि उनके इस दावे पर यह सवाल किया जाता है कि उनके पास वोट कितने हैं। ऐसा माना जा रहा है कि माले को 15 सीटों पर लड़ने को कहा जाए और 10 सीटें सीपीआई और सीपीआईएम के लिए छोड़ी जाएं।

अगर कांग्रेस की 75 विधानसभा सीटों की माँग मानी जाती है तो राजद को अपने हिस्से की सीट छोड़नी पड़ेगी। राजद के सूत्र अपनी पार्टी के लिए 160 सीट की बात कहते रहे हैं। ऐसे में कम्युनिस्ट दलों के लिए सिर्फ आठ सीटें बचती हैं जो उन दलों को किसी हाल में मंजूर नहीं होगा।

कांग्रेस की स्थिति

कांग्रेस के बारे में जानकारी रखने वाले लोगों को कहना है कि इसकी स्क्रीनिंग कमेटी के अध्यक्ष अविनाश पांडेय भले ही 243 सीटों पर चुनाव लड़ने की बात कहते हों, पार्टी को अपनी स्थिति का सही अंदाजा है। इसका पता कांग्रेस के राज्य नेतृत्व के बयानों से लगता है। कांग्रस के प्रदेश प्रवक्ता राजेश राठौर का बयान यह है कि शीर्ष नेतृत्व बिहार चुनाव को लेकर जल्द फ़ैसला करेगा और महागठबंधन एकजुट होकर चुनाव में उतरेगा।

कांग्रेस की एक दलील यह है कि चूंकि पिछली बार महागठगबंधन में जदयू को समझौते के तहत लड़ने के लिए 101 सीटें मिली थीं तो नीतीश कुमार के अलग होने से खाली हुई इन सीटों का सही तरीके से बँटवारा होना चाहिए। 2015 के विधानसभा चनुाव में कांग्रेस को महागठबंधन बनने के बाद लड़ने के लिए 41 सीटें मिली थीं। उस समय राजद भी महागठबंधन के समझौते के अनुसार 101 सीटों पर लड़ा था।

कांग्रस के नेताओं का कहना है कि राजद की ओर से वाल्मीकि नगर संसदीय सीट देने की बात करना बेमानी है, क्योंकि यह तो तय है कि वहाँ से कांग्रेस ही लड़ेगी। इधर, राजद के वरिष्ठ नेता राज्यसभा सांसद मनोज झा कांग्रेस को जिद न करने की सलाह दे रहे हैं।

उनका कहना है कि कांग्रेस अगर जिद पर अड़ी रही तो इससे महागठबंधन के लिए महंगा पड़ेगा। दानों दलों के सूत्रों के अनुसा हो सकता है कि राजद 160 सीटों पर लड़ने के दावे से कुछ पीछे हटे और कांग्रेस भी 75 की जगह 60-62 सीट पर लड़ने को राजी हो जाए, ताकि कम्युनिस्ट दलों के लिए 25 सीट का फार्मूला काम कर जाए।

कुशवाहा की पार्टी

महागठबंधन में इस उठापटक के बीच उपेन्द्र कुशवाहा के अलग होकर नया गठबंधन बनाने का नफा-नुकसान किसे होगा, इस पर भी चर्चा शुरू हो गयी है। उपेन्द्र कुशवाहा के इस गठबंधन को एक अख़बार ने तीसरे मोर्चे का नाम भी दे दिया है। इससे पहले जन अधिकार पार्टी के अध्यक्ष पप्पू यादव ने पीडीए- प्रगतिशील डेमोक्रेटिक अलायंस बना चुके हैं, जिसमें चंद्रशेखर 'आज़ाद' की आजाद समाज पार्टी, एसडीपीआई, बहुजन मुक्ति पार्टी और इंडियन यूनियन मुसलिम लीग शामिल हैं।

बसपा प्रमुख मायावती ने चुनाव जीतने पर उपेन्द्र कुशवाहा के मुख्यमंत्री बनने की बात कही है। सामाजिक कार्यकर्ता अरशद अजमल कहते हैं कि यह गठबंधन कितने वोट ला पाएगा, यह सवाल अपनी जगह है, लेकिन इसका नुक़सान संभवतः एनडीए को अधिक हो। 

वोट समीकरण

यह सवाल भी किया जाता है कि रालोसपा के जातीय वोट- कोयरी उपेन्द्र कुशवाहा के नाम पर वोट करेंगे या नीतीश और मोदी के नाम पर। बसपा प्रमुख मायावती की बीजेपी और एनडीए सरकार के प्रति दिखायी जा रही नरमी के बीच यह गठबंधन दिलचस्पी के साथ देखा जाएगा।

दूसरी ओर, पप्पू यादव के गठबंधन में शामिल अन्य दलों के पास अपना कोई आधार वोट नहीं माना जाता है, लेकिन उनकी जन अधिकार पार्टी के बारे में यह माना जा रहा है कि उनके उम्मीदवारों को मिले वोट वास्तव में राजद के आधार वोट का बड़ा हिस्सा होंगे। राजनैतिक टीकाकार मणिकांत ठाकुर कहते हैं कि पप्पू यादव की दो छवियाँ हैं। एक तो उनकी छवि मददगार की है जो हर वर्ग को पसंद है। लेकिन उनकी पार्टी की छवि सड़कों पर हुड़दंग करने करने वाले कार्यकर्ताओं वाली है। ऐसी हालत में उन्हें बीजेपी-जदयू का आधार वोट मिलने की संभावना कम है।