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तेजस्वी के तेज पर ग्रहण क्यों?

तेजस्वी के तेज पर ग्रहण क्यों?

बिहार की राजनीति में तेजस्वी यादव के बेहतरीन नेता के तौर पर उभरे थे। लेकिन लोकसभा चुनाव में उनके रवैए और बर्ताव ने उनकी छवि मटियामेट कर दी। आखिर तेजस्वी यादव यूपी के सपा प्रमुख अखिलेश यादव जैसा करिश्मा क्यों नहीं कर पाए। देश के जाने-माने चर्चित पत्रकार शैलेश तेजस्वी की राजनीति का विश्लेषण करके बता रहे हैं कि दरअसल कहानी क्या है, जानिएः

बिहार के पूर्व उप मुख्यमंत्री और आर जे डी के नये सुप्रीमो तेजस्वी यादव का एक वीडियो हाल में सोसल मीडिया पर जम कर वायरल हुआ। इसमें तेजस्वी पत्रकारों से बात कर रहे थे। उनकी ज़ुबान लड़खड़ा रही थी। चेहरे के हाव भाव से लग रहा था कि वो नशे में थे। इस वीडियो के बाद उनके समर्थक निराश हो गये। आख़िर तेजस्वी नशे में मीडिया के सामने क्यों आए। बिहार शराब और किसी भी तरह का नशा पूरी तरह प्रतिबंधित है।

पुलिस नशा करने वाले व्यक्ति को गिरफ़्तार कर सकती है और जेल भेज सकती है। इस मामले में पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की, यह अलग बात है। लेकिन तेजस्वी का यह चेहरा देख कर उन्हें भविष्य का एक मज़बूत नेता समझने वाले राजनीतिक पंडितों को लग रहा है कि वो ख़ुद अपना भविष्य ख़राब कर रहे हैं। 2020 के विधान सभा और 2025 के लोकसभा चुनावों में तेजस्वी ने एक नया तेवर दिखाने की कोशिश की, लेकिन उन्हें वैसी सफलता नहीं मिली जैसी उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव को मिली। ख़ास कर लोक सभा चुनावों के नतीजों से ज़ाहिर है कि तेजस्वी को अभी भी लालू यादव के शासन काल के भूत ने पीछा नहीं छोड़ा है। 

तेजस्वी अपनी साफ़ सुथरी छवि से एक नया अध्याय शुरू कर सकते हैं, लेकिन उनकी लापरवाह हरकतें उनके राजनीतिक भविष्य को चौपट कर सकती हैं। तेजस्वी के सामने कई चुनौतियाँ खड़ी हैं। बिहार में विधान सभा का चुनाव अगले साल अक्टूबर नवंबर में होना है। इस तरह की छवि के साथ तेजस्वी अपने ताकतवर विरोधी नीतीश कुमार और बी जे पी से मुक़ाबला कर पायेंगे, इसमें संदेह है। 

एम वाई में सेंधः लोक सभा चुनावों के नतीजों के विश्लेषण से साफ़ होता है कि तेजस्वी अपने पिता लालू यादव के समय बने एम वाई यानी मुस्लिम यादव समीकरण को भी पूरी तरह साध नहीं पाये हैं। मुसलमानों और यादवों ने तेजस्वी को उस तरह साथ नहीं दिया जिस तरह उत्तर प्रदेश में अखिलेश को दिया। अखिलेश ने लोक सभा की 80 में से 37 सीटें जीत कर इतिहास रच दिया। दूसरी तरफ़ तेजस्वी 40 में से सिर्फ़ 4 सीटें निकाल कर काफ़ी पीछे रह गए।

उनके मूल वोट बैंक में सेंध का एक उदाहरण सारण (छपरा ) लोक सभा सीट है जहां उनकी बहन रोहिणी आचार्य लड़ रही थीं। रोहिणी को पूर्व केंद्रीय मंत्री और बी जे पी उम्मीदवार राजीव प्रताप रूडी ने क़रीब 13 हज़ार वोटों से पराजित कर दिया। यहां से निर्दलीय उम्मीदवार लक्षमण यादव को 22 हज़ार और मुस्लिम उम्मीदवार नौशाद को 16 हज़ार वोट मिले। दोनों को डमी उम्मीदवार बताया गया था, लेकिन उनको मिले वोट ने रोहिणी को पराजय तक पहुंचा दिया। चुनाव से पहले ख़ुद लालू यादव यहां डेरा डाल कर बैठे थे। 1977 में पहली बार इसी क्षेत्र से लोक सभा का चुनाव जीत कर लालू ने संसदीय राजनीति की शुरुआत की थी, लेकिन इस बार वो यादव और मुस्लिम वोटों के विभाजन को रोक नहीं पाये। 

तेजस्वी में अपने आलोचकों को साथ लेकर चलने की क्षमता भी दिखाई नहीं दे रही है। एक प्रमुख आलोचक पप्पू यादव के लिए वो पूर्णिया सीट छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुए। पप्पू यादव निर्दलीय जीत गए। यादव और मुसलमानों को एक साथ रखने का हुनर उन्हें अखिलेश से सीखना चाहिए जिन्होंने अपने परिवार के बाहर एक भी यादव को टिकट नहीं दिया और मुसलमानों को बहुत कम टिकट दिया, फिर भी यादव और मुसलमान अखिलेश के साथ बने रहे।

दलित और अति पिछड़ों से दूरी

हिन्दी पट्टी में दलित और अति पिछड़े नयी राजनीतिक शक्ति के रूप में उभर रहे हैं। लंबे समय तक वो कांग्रेस और दूसरी राजनीतिक पार्टियों के पीछलग्गू थे। उत्तर प्रदेश में कांशी राम ने उन्हें राजनीति के हाशिए से उठा कर किंग मेकर की जगह ला दिया। मायावती अपनी व्यक्तिगत कमज़ोरियों के चलते कांशी राम के बहुजन आंदोलन को संभाल नहीं पा रहीं हैं। पर इस बार लोक सभा चुनाव अपने दम पर जीते चंद्रशेखर रावण के रूप में दलितों और अति पिछड़ों का  नया नेतृत्व उभरने की संभावना बढ़ गयी है। बिहार में दलित नेतृत्व उत्तर प्रदेश की तरह उग्र नहीं रहा है। जगजीवन राम और राम बिलास पासवान जैसे सौम्य नेता बिहार में दलितों के अगुआ रहे हैं। 

 - Satya Hindi

चिराग पासवान

राम बिलास के बेटे चिराग़ पासवान भी एक सौम्य दलित नेता के रूप में उभरे हैं। एन डी ए ने उनकी पार्टी को इस बार पांच सीटें दी थी। पांचों सीटों पर जीत दर्ज करके चिराग़ ने अपने पिता की विरासत को बचा लिया। वह भी तब जब 2019 के चुनाव में जीते उनके चाचा पशुपति पारस और अन्य सांसद बाग़ी हो चुके हैं। हम पार्टी के जीतन राम मांझी भी एक सौम्य दलित नेता हैं। चिराग़ और मांझी को साथ लेकर बी जे पी बिहार में उत्तर प्रदेश जैसे संकट से बच गयी। बिहार में मायावती का कोई ख़ास प्रभाव नहीं है फिर भी सारण क्षेत्र में बी एस पी के उम्मीदवार को 14 हज़ार वोट मिल गये। रोहिणी आचार्य की हार का यह भी एक कारण बना। 

एन डी  ए के साथ आकर भी उपेन्द्र कुसवाहा तो मुकेश सहनी की तरह फ्लॉप हो गये लेकिन अति पिछड़ों को नीतीश ने ख़ुद संभाल लिया। तेजस्वी को इस समय जुझारू दलित और अति पिछड़े नेताओं को अपने साथ लाने की ज़रूरत है। लोक सभा चुनाव में विकासशील इंसान पार्टी को साथ लेकर तेजस्वी ने अति पिछड़ों को साथ लाने की कोशिश की लेकिन मुंबई की मायावी दुनिया से आये मुकेश सहनी चुनावों में कोई चमत्कार नहीं कर पाये।

जातिवाद का गढ़ बिहार

बिहार में राजनीति की धुरी जातिवाद पर टिकी है। महज़ मुस्लिम यादव समीकरण जीत की गारंटी नहीं बन सकता है। तेजस्वी के लिए सबसे ज़रूरी है अपने राजनीतिक आधार का विस्तार यानी कुछ और जातियों को साथ लाना। दलित और अति पिछड़ों के साथ सवर्णों को भी साथ लिये बिना तेजस्वी सत्ता तक पहुंच नहीं सकते। उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी जब तक सिर्फ़ दलितों और अति पिछड़ों की राजनीति करती रही तब तक बहुमत का आंकड़ा नहीं छुआ। 

मायावती ने जब ब्राह्मणों का साथ लिया तब अपने दम पर मुख्यमंत्री बन सकीं। लालू यादव का शासन काल भ्रष्टाचार के साथ साथ खुले अपराध के लिए भी याद किया जाता है। बिहार में नशा को अब भी सार्वजनिक स्वीकृति नहीं है। तेजस्वी को अपने सार्वजनिक व्यवहार से भी साबित करना होगा कि लालू युग की वापसी अब नहीं होगी। 

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