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महामारी बन चुकी है शराब से मौत : क्यों न हो देशव्यापी निषेध?

महामारी बन चुकी है शराब से मौत : क्यों न हो देशव्यापी निषेध?

बिहार में जहरीली शराब पीने से मौत के बाद एक बार फिर से नीतीश कुमार के शराबबंदी के फैसले पर वाद-विवाद शुरू हो गया है। तो क्या शराबबंदी से वाक़ई फायदा नहीं है?

बिहार के छपरा में जहरीली शराब पीने से बड़ी संख्या में हुई मौत के उदाहरण को सामने रखकर शराबबंदी के ख़िलाफ़ आवाज़ मुखर हो रही है। मासूम-सा सवाल होता है- जब शराबबंदी कारगर नहीं है तो इसे जारी ही क्यों रखा जाए?

शराबबंदी तो बमुश्किल पांच प्रदेशों में है जहां इसके फेल होने पर समय-असमय चर्चा होती रही है। मगर, देश के शेष हिस्सों में शराबबंदी नहीं है। फिर भी वहां जहरीली शराब से मौत की घटनाएं अक्सर घटती रही हैं। फिर इन घटनाओं को क्यों नहीं शराबबंदी क़ानून नहीं होने की वजह मानी जाए?

शराबबंदी का मक़सद

संविधान में डायरेक्टिव प्रिंसिपल ऑफ स्टेट पॉलिसी (डीपीएसपी) के तहत शराबबंदी का अधिकार प्रदेश की सरकारों को है। अलग-अलग प्रदेश में अलग-अलग क़ानूनों के कारण एक ऐसी स्थिति बन जाती है कि शराबबंदी का मक़सद ही नशे में नज़र आता है। इसे नीचे के उदाहरण से समझें।

पंजाब और चंडीगढ़ में 25 साल से कम उम्र के लोग शराब पीएं तो वह ग़ैर क़ानूनी है। यही बच्चे देश के 17 राज्यों, जहां शराब पीने की उम्र 21 साल तय गयी है या फिर उन 7 राज्यों में जहाँ यह उम्र 18 साल है, शराब पीएँ तो वह क़ानूनी हो जाता है। केरल में शराब पीने की उम्र 23 साल है। सही और ग़लत का निर्णय कैसे हो? पंजाब में जो शराब सेवन (25 साल से कम उम्र में) अवैध है वह हरियाणा-दिल्ली में वैध कैसे?

‘ड्राई डे’ भी सवालों के घेरे में

स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस और गांधी जयंती पर देशव्यापी स्तर पर ‘ड्राई डे’ होगा, लेकिन शराब को लेकर देशव्यापी नीति नहीं होगी। ‘ड्राई डे’ के दिन शराब पीने और बेचने पर पूरी तरह प्रतिबंध होता है। 

जहां कहीं भी चुनाव होते हैं, चुनाव आयोग ‘ड्राई डे’ तय करता है। इसका मतलब यह है कि प्रदेश सरकार से अलग स्वायत्त संस्थान भी कुछ दिन के लिए ही सही, ‘ड्राई डे’ तय करता हैं। जिन प्रदेशों में शराबबंदी नहीं है वहां ‘ड्राई डे’ के नाम पर शराबबंदी का औचित्य क्या रह जाता है?

‘ड्राई डे’ की ज़रूरत संदेश देने के लिए हो या फिर कानून-व्यवस्था की चिंता में इसे लागू किया जाता हो- यह बात स्थापित करती है कि शराब हानिकारक है। खास दिनों पर पूरे देश में ‘ड्राई डे’ होना ज़रूरी है तो बाक़ी दिनों में इसकी आवश्यकता क्यों नहीं होनी चाहिए?

नशे से मौत रोकने के लिए महामारी एक्ट क्यों न लागू हो?

कोविड की महामारी के दिनों को याद करें जब पूरे देश में शराब की बिक्री रोक दी गयी थी। जब कोविड प्रोटोकॉल में ढील देने की पहल हुई तो सबसे पहले शराब की बिक्री ही शुरू की गयी। ऐसा महामारी एक्ट के तहत गृहमंत्रालय के आदेश से हुआ था। इसका मतलब यह हुआ कि जब राष्ट्रीय आपदा की स्थिति हो तो शराब पर कानून बनाने का अधिकार प्रदेश के साथ-साथ केंद्र सरकार का भी हो जाता है।

कोविड-19 की महामारी के दौरान दो साल में 5.3 लाख लोगों की मौत हुई थी। डब्ल्यूएचओ के आंकड़े को देखें तो भारत में एक साल में 2.6 लाख लोग यानी दो साल में 5.2 लाख लोग शराब के कारण मर जाते हैं। यह संख्या महामारी के दौरान देशभर में हुई मौत के बराबर हो जाती है। फिर क्यों नहीं शराब के कारण हो रही मौत को महामारी या आपदा मानकर राष्ट्रीय स्तर पर पहल की जा रही है? क्या देशव्यापी शराबबंदी देश की ज़रूरत नहीं हो चुकी है?

महामारी में शराब की बिक्री रोकने का प्रोटोकॉल और स्थिति सामान्य होने की स्थिति में सबसे पहले शराब की बिक्री शुरू करने का फैसला- दोनों में जनहित में किसे माना जाए? एक फैसला जनहित में है तो दूसरा जनहित के खिलाफ स्वत: हो जाता है। 

केंद्र सरकार को परस्पर विरोधी फैसले क्यों लेने पड़े? क्या इसलिए कि शराब की बिक्री का सीधा संबंध राजस्व संग्रह से है?

शराब से राजस्व संग्रह ही समस्या की जड़

अगर शराब से राजस्व संग्रह ज़्यादातर प्रदेशों में जायज है तो चंद राज्यों में शराबबंदी से जो राजस्व का नुक़सान होता है वह जायज कैसे माना जा सकता है? एक ही देश में परस्पर विरोधी सोच के साथ नीतियाँ कैसे चल सकती हैं? चंद राज्यों में शराबबंदी की असफलता का सबसे बड़ा कारण इन्हीं सवालों में छिपा हुआ है।

राजस्व के लोभ में ज्यादातर राज्य शराब की बिक्री को जारी रखने के पक्ष में रहते हैं। जो प्रदेश शराबबंदी का साहस दिखलाते हैं उन्हें अधिक शराब बेचने की स्पर्धा कर रहे पड़ोसी राज्यों से चुनौती मिलती है। पड़ोसी राज्यों के लिए शराबबंदी वाले प्रदेश राजस्व संग्रह का अतिरिक्त अवसर बन जाते हैं। खुलकर तस्करी होने लग जाती है।

जिस देश में मानव तस्करी हो रही है, जंगल की लकड़ियों, जानवरों के अंग, मादक पदार्थों की तस्करियां जारी हों वहां शराब की तस्करी नहीं हो- ऐसा कैसे हो सकता है? शराबबंदी वाले प्रदेशों में समानांतर काली अर्थव्यवस्था खड़ी होती चली जाती है तो यह बहुत स्वाभाविक है। लेकिन क्या इससे शराबबंदी ग़लत हो जाती है? इसका मक़सद ग़लत हो जाता है?

जहाँ शराबबंदी नहीं वहां जहरीली शराब से मौत क्यों?

जिन प्रदेशों में शराबबंदी लागू है वहां जहरीली शराब से मौत अस्वाभाविक घटना नहीं है क्योंकि, ऐसे प्रदेश में छिपकर कच्ची शराब बनाने के अवैध कारोबार के फलने-फूलने का वातावरण मौजूद है। लेकिन, जिन प्रदेशो में शराबबंदी नहीं है, खुले आम शराब पीना-पिलाना वैध है वहां अगर जहरीली शराब से मौत होती है तो यह बिल्कुल स्वाभाविक नहीं है। यहां यह बड़ा अपराध है। 

फिर ऐसा क्यों नहीं कहा जाना चाहिए कि शराबबंदी की नीति लागू करके इन प्रदेशों में जहरीली शराब से होने वाली मौत रोकी जा सकती थी।

शराबबंदी के लिए नीतियों पर अमल यानी उसका क्रियान्वयन ज़रूरी है। क्रियान्वयन में ग़लती हो तो शराबबंदी को ही ग़लत बताते हुए खारिज नहीं किया जा सकता। एक व्यक्ति अपने प्रदेश में शराब नहीं पी सकता लेकिन पड़ोस के प्रदेश जाकर वह ऐसा कर सकता है तो नशे की लत उसे वहाँ ले जाएगी। ट्रेन में सफर करते समय एक स्टेशन पर शराब नहीं मिलेगी, अगले पर मिलेगी तो नशाबंदी कैसे लागू हो सकती है? 

नशा अगर गलत है, कानून-व्यवस्था के लिए खतरा है, समाज का दुश्मन है तो ऐसा पूरे देश के लिए होगा, न कि एक प्रदेश के लिए? नशा करने की उम्र भी अलग-अलग प्रदेशों में अलग-अलग रखा जाना ग़लत है। कहने का तात्पर्य यह है कि नशाबंदी को लागू करना एक प्रदेश के बूते की बात नजर नहीं आती। नशाबंदी पूरे देश में एकसमान कानून के तहत लागू हो सकती है। 

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