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बिहार चुनाव: 15 साल सरकार चलाने के बाद भी नर्वस क्यों दिख रहे हैं नीतीश कुमार?

बिहार चुनाव: 15 साल सरकार चलाने के बाद भी नर्वस क्यों दिख रहे हैं नीतीश कुमार?

बिहार में चुनाव सामने है और आरजेडी के तमाम सियासी हमलों के बीच सवाल पूछा जा रहा है कि क्या नीतीश के नेतृत्व में बीजेपी-जेडीयू गठबंधन सत्ता में वापसी कर पाएगा?

बिहार के विधानसभा चुनाव से पहले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार नर्वस क्यों दिखाई दे रहे हैं। जबकि वह लगातार 15 साल तक राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। राज्य में सितंबर-अक्टूबर में चुनाव होने हैं यानी 4-5 महीनों के अंदर नई सरकार बन जानी है। लेकिन लोग सवाल पूछ रहे हैं कि क्या नीतीश कुमार के नेतृत्व में बीजेपी-जेडीयू-एलजेपी गठबंधन इस बार सरकार में वापसी कर पाएगा

लॉकडाउन के कारण दूसरे प्रदेशों में फंसे प्रवासी मजदूरों को वापस राज्य में लाने को लेकर पहले अनमना रूख दिखाने पर और बाद में क्वारेंटीन सेंटर्स की बदहाली को लेकर नीतीश पर विपक्ष काफ़ी हमलावर है। रही-सही कसर बिहार पुलिस ने प्रवासी मज़दूरों को क़ानून-व्यवस्था के लिए ख़तरा बताकर पूरी कर दी है। इसे राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) ने मुद्दा बनाया था और चुनाव में लोग नीतीश कुमार से इसे लेकर सवाल ज़रूर पूछेंगे। 

नीतीश की पार्टी जेडीयू ने इस बार चुनाव में आरजेडी के 15 साल के शासन को मुद्दा बनाया है। जेडीयू ने बिहार में जो पोस्टर चुनाव के लिए जारी किए हैं, उनमें से एक पोस्टर में लिखा है - ‘भय बनाम भरोसा’ और दूसरे पोस्टर में लिखा है - ‘पति-पत्नी की सरकार’।

इन दोनों पोस्टर्स के माध्यम से नीतीश कह रहे हैं कि बिहार में अपराध और अपहरण का पुराना दौर नहीं लौटना चाहिए और राज्य में लालू-राबड़ी की सरकार नहीं आनी चाहिए। सीधे तौर पर वह आरजेडी को सियासी ख़तरा मानते हैं और उसके धारदार हमलों से परेशान दिखते हैं। 

बीजेपी और जेडीयू ने कोरोना संकट के कारण इस बार वर्चुअल रैलियों के माध्यम से चुनाव प्रचार शुरू कर दिया है। वर्चुअल रैली के माध्यम से संवाद के दौरान नीतीश जेडीयू कार्यकर्ताओं से बार-बार लोगों को लालू-राबड़ी के शासनकाल के बारे में याद दिलाने को कहते हैं।

 - Satya Hindi

लालू प्रसाद यादव के 73वें जन्मदिन के मौक़े पर गुरुवार को पटना में जेडीयू और आरजेडी के बीच जोरदार पोस्टर वॉर देखने को मिला। आरजेडी की ओर से लगाए गए पोस्टर्स में लालू को जन्मदिन की बधाईयां दी गई हैं जबकि जेडीयू के पोस्टर्स में यादव परिवार की 73 संपत्तियों का ब्यौरा दिया गया है। 

बीजेपी के अंदर विरोध

लोकसभा चुनाव में एनडीए गठबंधन को मिली जोरदार सफलता के बाद बिहार बीजेपी के कुछ नेताओं ने नीतीश के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया था। ये नेता चाहते थे कि बिहार में बीजेपी का मुख्यमंत्री बने और वे नीतीश की जगह लेना चाहते थे। लेकिन बीजेपी ने साफ कर दिया कि चुनाव नीतीश के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा। बीजेपी के इन नेताओं को ताज़ा हालात में यह लगता है कि नीतीश के नेतृत्व में बिहार का चुनाव जीतना बेहद मुश्किल है।

2019 में फिर से मोदी सरकार बनने के बाद केंद्रीय मंत्रिमंडल से नीतीश की पार्टी का बाहर रहना या बिहार में मंत्रिमंडल के विस्तार से बीजेपी का बाहर रहना यह दिखाता है कि दोनों दलों के रिश्ते उतने सहज नहीं हैं, जितना होने का दावा किया जा रहा है।

जेडीयू के अंदर सब ठीक नहीं

ऐसा लगता है कि जेडीयू के अंदर भी सबकुछ ठीक नहीं है। वरना, नीतीश के करीबी माने जाने वाले राज्यसभा सांसद पवन वर्मा और जाने-माने चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर पार्टी छोड़कर नहीं जाते। यह किशोर ही थे जिन्होंने आरजेडी-जेडीयू गठबंधन के लिए 2015 में चुनावी रणनीति तैयार कर जीत का रास्ता बनाया था। प्रशांत और पवन वर्मा के पार्टी से जाने के कारण नीतीश की चुनावी राह इस बार आसान नहीं होगी। 

सीएए, एनआरसी गले की फांस

बीजेपी का एजेंडा स्पष्ट है। दूसरी बार लोकसभा चुनाव जीतते ही उसने नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) और नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीजंस (एनआरसी) की कवायद शुरू कर दी। बिहार में इसके ख़िलाफ़ जोरदार प्रदर्शन हुए और मुसलिम समाज के साथ-साथ विपक्षी दलों ने भी इसे बड़ा मुद्दा बनाया। 

आंदोलनों से दबाव में आए नीतीश ने एनआरसी के ख़िलाफ़ विधानसभा में तो प्रस्ताव पास करा दिया लेकिन सीएए पर वह नहीं बोले। जबकि जेडीयू ने अनुच्छेद 370 और तीन तलाक़ के मसले पर खुलकर विरोध दर्ज कराया था। 

बिहार में 16-17 फ़ीसदी आबादी मुसलमानों की है और लगभग 80 से 100 सीटों पर उनका अच्छा प्रभाव है। लेकिन इस बार मुसलमान नीतीश पर भरोसा जताएंगे, इसमें शक है।

मुसलमानों का एक बड़ा तबक़ा परंपरागत रूप से आरजेडी के पक्ष में रहा है। अगर इस बार आरजेडी को अपने एम-वाई (मुसलिम-यादव) समीकरण का लाभ मिला तो निश्चित रूप से नीतीश की मुश्किलें बढ़ेंगी।

जेडीयू-बीजेपी के अलावा लोकजनशक्ति पार्टी (एलजेपी) भी एनडीए गठबंधन में शामिल है और उसे भी सीएए, एनआरसी की वजह से मुसलिम वोट खोने का ख़तरा है। 

नीतीश को भी इस बात का डर है कि एक ओर तो मुसलमान उनसे दूर जा सकते हैं और दूसरी ओर हिंदू मतों के ध्रुवीकरण के कारण उन्हें समर्थन देने वाली पिछड़ी जातियां बीजेपी का साथ दे सकती हैं।

2014 के लोकसभा चुनाव से पहले सांप्रदायिकता के मुद्दे पर बीजेपी से नाता तोड़ लेने वाले और एक समय नरेंद्र मोदी के बिहार में चुनाव प्रचार पर रोक लगा देने वाले नीतीश बीजेपी के हिंदुत्व एजेंडे पर ख़ामोश दिखाई देते हैं।

दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजे भी बीजेपी-जेडीयू गठबंधन के लिए ख़तरे की घंटी हैं। क्योंकि बिहार के प्रवासियों ने दिल्ली में इस गठबंधन को सिरे से नकार दिया था। 

प्रशांत किशोर और जेएनयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार इस चुनाव में क्या ख़ास कर पाएंगे, इस पर भी राजनीतिक विश्लेषकों की नज़र बनी रहेगी। 

बहरहाल, चुनाव सामने है और इंदिरा गांधी की सरकार को उखाड़ फेंकने वाले जयप्रकाश नारायण (जेपी) के संपूर्ण क्रांति आंदोलन से राजनीति का ककहरा सीखने वाले नीतीश कुमार इस बार फिर से सत्ता हासिल कर पाएंगे या नहीं, इस पर तमाम लोगों की नज़रें टिकी हैं। 

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