बीजेपी-जेडीयू गठबंधन टूटने के बार-बार कयास क्यों?
बिहार में राजनीति की हवा बिल्कुल अलग ढंग से बहती है। इस समय जब पूरे देश में ज्ञानवपी मस्जिद, मथुरा कृष्ण मंदिर और क़ुतुब मीनार को लेकर हलचल मचा है तब बिहार की राजनीति में कुछ अलग सवालों का जवाब ढूँढा जा रहा है। क्या बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) से अलग हो जायेंगे? क्या नीतीश की पार्टी जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) अब लालू /तेजस्वी यादव के राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के साथ सरकार बनायेगी? क्या बीजेपी अब नीतीश कुमार को उप राष्ट्रपति बना कर बिहार की राजनीति से अलग करना चाहती है? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो पिछले कई महीनों से बिहार में लगातार उठाए जा रहे हैं।
ये सवाल क्यों उठ रहे हैं इसका कोई साफ़ कारण दिखाई नहीं देता है। विधानसभा अध्यक्ष और नीतीश कुमार के बीच थोड़ी गर्मागर्मी हो जाती है तो सरकार टूटने की चर्चा होने लगती है। बीजेपी का कोई स्थानीय नेता, राज्य सरकार के ख़िलाफ़ बयान देता है तो गठबंधन टूटने का क़यास लगाया जाने लगता है।
दबाव की राजनीति
बिहार की राजनीति में दख़ल रखने वाले पंडितों का कहना है कि बीजेपी और जेडीयू दोनों तरफ़ से अपना क़द बड़ा दिखाने के लिए दबाव की राजनीति चलती रहती है। सरकार को लेकर आनिश्चितता इसी दबाव की राजनीति का हिस्सा है। विधानसभा में बीजेपी के 77 और जेडीयू के महज़ 45 सदस्य हैं। बीजेपी को मजबूरी में नीतीश को मुख्यमंत्री बनाए रखना पड़ रहा है क्योंकि बीजेपी के साथ छोड़ने पर नीतीश आसानी से 76 सदस्यों वाले आरजेडी के साथ सरकार बना सकते हैं। पटना के वरिष्ठ पत्रकार श्रीकांत प्रत्युष का मानना है कि सरकार पर कोई संकट नहीं है और बीजेपी- जेडीयू गठबंधन टूटने की आशंका भी नहीं है। इसका एक बड़ा कारण ये है कि बीजेपी का केंद्रीय नेतृत्व नहीं चाहता कि नीतीश के साथ कोई विवाद हो। नीतीश अति पिछड़ों और अति दलितों के एक क्षत्र नेता बने हुए हैं।
बिहार में बीजेपी अभी तक मुख्य तौर पर सवर्ण जातियों पर निर्भर है। नीतीश से अलग होकर बीजेपी को 2024 के लोकसभा और 2025 के बिहार विधानसभा चुनाव में बड़ा नुक़सान उठाना पड़ सकता है। बिहार बीजेपी का एक गुट नीतीश को राज्यसभा के ज़रिए दिल्ली भेज कर केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल करने की पैरवी करता रहता है, लेकिन नीतीश इसके लिए तैयार दिखाई नहीं देते। पिछले कुछ दिनों से नीतीश को उप राष्ट्रपति बनाने की चर्चा भी चल रही है। नीतीश इस पद के लिए भी अनिक्षा ज़ाहिर कर चुके हैं। लेकिन अभी इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है। नीतीश को बिहार की राजनीति से बाहर करने का ये एक आसान रास्ता है।
जेडीयू में गुटबंदी
जेडीयू में नीतीश के बाद कौन? यह सवाल लगातार उठता रहता है। एक समय पर केंद्रीय मंत्री आरसीपी सिंह को नीतीश का स्वाभाविक उत्तराधिकारी माना जाता था। लेकिन उन पर बीजेपी से साँठ गाँठ करके नीतीश के ख़िलाफ़ काम करने का आरोप लगाया जाने लगा और स्थिति यहाँ तक पहुँच गयी कि यह कहा जाने लगा कि उन्हें जून में होने वाले राज्यसभा चुनाव के लिए टिकट नहीं दिया जाएगा। पत्रकार श्रीकांत प्रत्युष का मानना है कि विवाद इतना बड़ा नहीं है कि आरसीपी को राज्यसभा का टिकट नहीं दिया जाए। जेडीयू के दूसरे बड़े नेता हैं राजीव रंजन सिंह उर्फ़ ललन सिंह। ललन और आरसीपी के बीच पटरी नहीं बैठती है। ललन सवर्ण जाति भूमिहार वर्ग से हैं, इसलिए अति पिछड़े और अति दलित उन्हें नेता स्वीकार करेंगे, इसमें संदेह है।
भूमिहार इन दिनों बीजेपी से भी नाराज़ दिखाई दे रहे हैं। हाल में विधान परिषद के चुनाव में आरजेडी ने उन्हें लुभाने की कोशिश की। आरजेडी ने ब्राह्मण और भूमिहारों को जम कर टिकट दिया।
तीन भूमिहार उम्मीदवारों की जीत से उत्साहित आरजेडी अब सवर्णों को अपनी तरफ़ खिंचने की कोशिश में जुट गया है। भूमिहार एक समय तक जेडीयू और बीजेपी के कट्टर समर्थक माने जाते थे। ललन के समर्थक कहते हैं कि भूमिहार सहित अन्य सवर्ण जातियों के बीच संपर्क सूत्र सिर्फ़ ललन ही हो सकते हैं, इसलिए उन्हें कम महत्वपूर्ण मानना एक भूल हो सकती है। अति पिछड़ा वर्ग से होने के कारण उपेन्द्र कुशवाहा भी नेतृत्व के बड़े दावेदार हैं। लेकिन बड़ा सवाल ये है कि नीतीश के बाद जेडीयू एक रह पाएगा या बिखर जाएगा। जेडीयू मुख्य तौर पर कोयरी, क़ुर्मी, काछी जैसी अति पिछड़ी जातियों की मदद से खड़ी हुई पार्टी है। नीतीश के बाद इन जातियों के राजनीतिक बिखराव को रोकना मुश्किल होगा। फ़िलहाल तो ये साफ़-साफ़ दिखाई दे रहा है कि नीतीश अपना वर्चस्व बनाए रखने की पूरी कोशिश कर रहे हैं। आरजेडी सुप्रीमो तेजस्वी यादव से उनकी हाल की मुलाक़ातों और जातीय जनगणना पर मिल कर लड़ने के संकेत ने बीजेपी की धड़कन ज़रूर बढ़ा दी है।
जातीय जनगणना पर राजनीति
नीतीश इस बार जातीय जनगणना का परचम लेकर आगे आए हैं। वैसे, यह माँग नयी नहीं है। देश के कई राज्यों में इस तरह की माँग लंबे समय से हो रही है। 2011 की जनगणना जातीय आधार पर भी करायी गयी थी। लेकिन बाद में केंद्र सरकार ने बताया कि इसमें काफ़ी गड़बड़ियाँ हैं। इस रिपोर्ट को प्रकाशित नहीं किया गया। मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुँचा और 2021 में केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से साफ़-साफ़ कहा कि जातीय जनगणना संभव ही नहीं है। 1931 के जातीय जनगणना में कुल 4147 जातियाँ बतायी गयी थीं, लेकिन 2011 के जनगणना में क़रीब 46 लाख जातियाँ दर्ज की गयी थीं। इसका कारण ये है कि एक ही जाति को अलग अलग क्षेत्रों में अलग अलग नाम से पुकारा जाता है और अलग अलग ढंग से बोला और लिखा जाता है।
बीजेपी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ यानी आरएसएस जातीय जनगणना के ख़िलाफ़ है क्योंकि वो हिंदुओं को जातियों में बाँटना नहीं चाहते हैं।
जातीय जनगणना की ताज़ा माँग आरजेडी सुप्रीमो तेजस्वी यादव की तरफ़ से आयी और नीतीश ने अपनी सहमति जताते हुए सर्वदलीय बैठक बुलाने की घोषणा कर दी। इसके बाद नीतीश और आरजेडी के बीच गुप्त तालमेल की चर्चा शुरू हो गयी। पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी और तेजस्वी यादव की ओर से आयोजित इफ़्तार पार्टी में नीतीश भी शामिल हो गए तो जेडीयू और बीजेपी का गठबंधन टूटने की चर्चा फिर शुरू हो गयी। बीजेपी की रणनीति अब बदली हुई दिखाई दे रही है। केंद्र सरकार भले ही इसे लटकाए रखे, सर्वदलीय बैठक में बिहार के नेता इसका समर्थन करेंगे ताकि पिछड़ी जातियाँ नाराज़ नहीं हों और सरकार पर भी संकट नहीं आए।