आर्थिक जगत में डॉ. भीमराव आम्बेडकर के योगदान को हमेशा कमतर आँका गया है। आमतौर पर जन-जन में उनकी छवि संविधान निर्माता और युगांतरकारी नेता के रूप में ही प्रमुखता से रही है। अर्थ जगत में डॉ. आम्बेडकर के योगदान की चर्चा कम ही होती है। डाॅ. आम्बेडकर ने विधिवेत्ता, अर्थशास्त्री, शिक्षाविद, चिंतक, धर्मशास्त्री, पत्रकार, लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता आदि अनेक रूपों में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। आज़ादी के बाद अगर उन्हें समय मिलता, तो निश्चित ही अर्थशास्त्री के रूप में उनकी सेवाओं का लाभ दुनिया ले पाती। भारतीय रिज़र्व बैंक की स्थापना में डॉ. आम्बेडकर का योगदान महत्वपूर्ण है।
कोलम्बिया विश्वविद्यालय में पढ़ाई के वक़्त डॉ. आम्बेडकर जिन विषयों में अध्ययन कर रहे थे, उनमें अर्थशास्त्र भी था। कोलम्बिया विश्वविद्यालय से उन्होंने अर्थशास्त्र में ही 'इवोल्यूशन ऑफ़ इंडिया फ़ाइनेंस इन ब्रिटिश इंडिया' विषय पर पीएचडी की थी। लंदन स्कूल ऑफ़ इकॉनमिक्स से भी उन्होंने डीएससी की रिसर्च की, जिसका विषय था 'प्रॉब्लम्स ऑफ़ रुपी : इट्स ऑरिजिन एंड इट्स सोल्यूशन'। यह एक शोध ग्रंथ के रूप में प्रकाशित भी हुआ था, जिसकी भूमिका प्रख्यात अर्थशास्त्री एडविन केनन ने लिखी थी। आम्बेडकर के बारे में नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने कहा था कि आम्बेडकर अर्थशास्त्र के क्षेत्र में मेरे आदर्श हैं, उन्हें जो भी मान-सम्मान मिला है, वे उससे कहीं ज़्यादा के हकदार हैं। अर्थशास्त्र के क्षेत्र में उनका योगदान बेहद शानदार रहा है। उसे हमेशा याद किया जाना चाहिए।
उन दिनों भारत आज़ाद नहीं था। 1930 का दशक पूरी दुनिया में मंदी लेकर आया था। ब्रिटिश सरकार के सामने भी गंभीर आर्थिक चुनौतियाँ थीं। दूसरी तरफ़ ब्रिटिश उपनिवेशों में आज़ादी की माँग ज़ोर पकड़ रही थी। ब्रिटिश हुक़ूमत के सामने भारत की स्थानीय समस्याओं का समाधान आवश्यक था। इन समस्याओं का मूल कारण वैश्विक मंदी और स्थानीय रोज़गारों के उजड़ जाने से उपलब्ध मंदी का था। 1925 में ब्रिटिश हुक़ूमत ने भारत की मुद्रा प्रणाली का अध्ययन करने के लिए 'रॉयल कमीशन ऑन इंडियन करंसी एंड फ़ाइनेंस' का गठन किया था। इस आयोग में जो 40 अर्थशास्त्री शामिल थे, उनमें डॉ. आम्बेडकर भी थे। जब डॉ. आम्बेडकर आयोग की बैठक में पहुँचे, तब यह जानकर चकित रह गए कि आयोग के सभी सदस्यों के हाथ में उनकी लिखी पुस्तक 'इवॉल्यूशन ऑफ़ पब्लिक फ़ाइनेंस इन ब्रिटिश इंडिया' मौजूद थी। उस आयोग की रिपोर्ट 1926 में प्रकाशित हुई थी और उसकी अनुशंसा के आधार पर ही बाद में रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया की स्थापना की गई।
रिज़र्व बैंक की अभिकल्पना, रूपरेखा, कार्यशैली और नियम-उपनियम सभी कुछ बाबा साहब आम्बेडकर की शोध 'प्रॉब्लम ऑफ़ रुपी' पर आधारित है। उनके आर्थिक लेखन और शोध पर ही उन्हें केवल 27 वर्ष में मुंबई के कॉलेज में प्रोफ़ेसर पद पर नियुक्ति मिल चुकी थी। एक सभा में उनके द्वारा लिखे गए लेख- 'रिस्पांसिबिलिटी ऑफ़ रेस्पांसिबल गवर्मेंट' पढ़ा गया, तब वहाँ उपस्थित महान चिंतक हेराल्ड लॉस्की ने कहा था कि इस लेख में आम्बेडकर के विचार उनके क्रांतिकारी स्वरूप में हैं।
डॉ. आम्बेडकर ने भारत की मुद्रा विनिमय प्रणाली के बारे में गंभीरता से शोध किए थे और वे बेहद व्यावहारिक थे। 1893 तक भारत में केवल चांदी के सिक्के चलन में थे। इसके पहले 1841 में सोने के सिक्के भी चलन में होते थे। डॉ. आम्बेडकर ने पाया कि चांदी के सिक्के का मूल्य उसमें उपलब्ध चांदी के द्रव्यमान से आँका जाता था। शोध के अनुसार भारत में सोने का उत्पादन अपेक्षित मात्रा में नहीं हो रहा था। इस कारण स्वर्ण मुद्रा के मुक़ाबले भारतीय रजत मुद्रा का निरंतर अवमूल्यन होने लगा। उस खाई को पाटने के लिए और ज़्यादा रजत मुद्राएँ यानी चांदी के सिक्के ढाले जाने लगे। मुद्रा का अवमूल्यन होने पर महँगाई में वृद्धि हो गई थी और आय वैसी की वैसी बनी हुई थी, इससे 1872 से लेकर 1893 तक यही हालत बनी रही। आख़िर में 1893 में ब्रिटिश सरकार ने चांदी के सिक्के ढालने का काम अपने हाथ में ले लिया। ब्रिटिश हुक़ूमत ने चांदी की मुद्रा का मूल्य 1 शिलिंग 4 पेंस के बराबर कर दिया।
डॉ. आम्बेडकर ने यह सिद्धांत प्रतिपादित किया कि मुद्रा का मूल्य उसके द्रव्यमान की क़ीमत से नहीं, बल्कि उससे मिलने वाली आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं से तय होता है।
सोना बेशक़ीमती हो सकता है, लेकिन वह आदमी की ज़रूरतों को पूरा नहीं कर सकता। सोने को कोई खा नहीं सकता और न ही कोई ओढ़ सकता है। उन्होंने सरकार को सुझाव दिया था कि एक चांदी के सिक्के का मूल्य 1 शिलिंग तथा 6 पेंस रखना बेहतर होगा। डॉ. आम्बेडकर की राय ब्रिटिश हुक़ूमत ने मान ली थी।
अर्थशास्त्र के संबंध में किए गए डॉ. आम्बेडकर के अध्ययन एडम स्मिथ और डेविड रिकॉर्डो जैसे महान अर्थशास्त्रियों के समकक्ष है, लेकिन डॉ. आम्बेडकर को एडम स्मिथ और रिकार्डो जैसा महान अर्थशास्त्री नहीं कहा जाता। राजनीति और समाज सुधार के क्षेत्र में डॉ. आम्बेडकर ने जिस तरह के कार्य किए, उसकी तुलना इटली के विचारक विलफ़र्ड परेतो से की जा सकती है। डॉ. आम्बेडकर ने भारत में जातिवादी व्यवस्था और आर्थिक असमानता का अध्ययन किया, तो परेतो ने इटली में अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक समूहों पर अध्ययन में अपनी ऊर्जा लगाई थी।
आम्बेडकर का आर्थिक सुधार
यह डॉ. भीमराव आम्बेडकर की परिकल्पना थी कि सभी प्रमुख और आधारभूत उद्योग सरकार के अधीन हो। भूमि सुधार योजना को वे इसलिए ज़रूरी मानते थे कि आर्थिक सुधार की शुरुआत ही भूमि सुधार से होती है। डॉ. आम्बेडकर ने भूमि वितरण में असमानता के कारण समाज के एक बहुत बड़े हिस्से को छोटी-छोटी जोतों (खेती की इकाइयों) में काम करने से उत्पन्न व्यवस्था पर चर्चा की। डॉ. आम्बेडकर ने ज़मींदारी व्यवस्था के ख़िलाफ़ जमकर लिखा और श्रम शक्ति के समुचित उपयोग और सम्मान पर ज़ोर दिया।
डॉ. आम्बेडकर जिस दौर में सक्रिय रहे, तब बैंक, बीमा, उद्योग और कृषि क्षेत्र पूरी तरह निजी हाथों में था। डॉ. आम्बेडकर की क्रांतिकारी योजना थी कि इन सभी का राष्ट्रीयकरण किया जाए। सरकार खेती के लायक सारी ज़मीन अधिग्रहित कर ले और उसे उचित आकार में खेतों के रूप में बाँट दे। उस खेती पर समाज के सभी लोग मिलकर फ़सल उगाएँ और पूरा समाज उससे लाभान्वित हो।
डॉ. आम्बेडकर ने कार्ल मार्क्स का अनुकरण नहीं किया। उन्होंने गौतम बुद्ध को अपनाया और समानता पर आधारित समाज का सपना देखा।
आम्बेडकर मानते थे कि कार्ल मार्क्स के विचारों की एक सीमा है। आम्बेडकर ने पाया कि जातिवाद की विकृति को क़रीब 2500 साल पहले जन्मे गौतम बुद्ध समझ चुके थे। उस विकृति को कार्ल मार्क्स शायद उतनी गहराई से नहीं समझ पाए होंगे। उन्होंने पाया कि भारत का समाज इसलिए बँटा हुआ है कि वह सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से अलग-अलग धारा से आया हुआ है। इस सारे परिप्रेक्ष्य में डॉ. बाबा साहब भीमराव आम्बेडकर के क्रांतिकारी विचारों को प्रचारित नहीं किया गया। डॉ. आम्बेडकर का संपूर्ण योगदान पूरी मानवता के लिए था, उसे हमने भारत के संविधान तक सीमित कर दिया है।