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अब राममंदिर निर्माण की कमान भैया जी जोशी के हाथ में क्यों?

अब राममंदिर निर्माण की कमान भैया जी जोशी के हाथ में क्यों?

क़रीब चालीस साल से आरएसएस ने राम जन्मभूमि आंदोलन की कमान अपने हाथ में ही रखी है। और अब मंदिर निर्माण और अयोध्या प्रोजेक्ट की ज़िम्मेदारी संघ के सरकार्यवाह रहे भैयाजी जोशी को सौंपी गई है। 

क़रीब चालीस साल पहले जब आरएसएस ने राम जन्मभूमि आंदोलन को अपने हाथ में लिया, तब से आज तक उसने इसकी कमान अपने हाथ में ही रखी है, भले ही औपचारिक तौर पर चाहे किसी दूसरे संगठन के हाथ में दिखाई देती रही हो। फिर 80 के दशक में चाहे विश्व हिन्दू परिषद् इस आंदोलन को आगे बढ़ा रही हो या 90 के दशक में बीजेपी और 92 में संत समाज और धर्म संसद ने इस की कमान संभाल रखी हो या अब जब मंदिर निर्माण का काम रामजन्मभूमि तीर्थ ट्रस्ट देख रहा हो, लेकिन संघ की नज़र ही नहीं नियंत्रण भी अनौपचारिक तौर पर संघ के हाथ में ही है। और इसलिए मंदिर निर्माण और अयोध्या प्रोजेक्ट की ज़िम्मेदारी संघ के सरकार्यवाह रहे भैयाजी जोशी को सौंपी गई है। वे केयरटेकर के तौर पर मंदिर निर्माण ही पूरे अयोध्या विकास के प्रोजेक्ट को देखेंगे। इस निर्णय को अंतिम रूप 9 जुलाई से चित्रकूट में होने वाली संघ की बैठक में दिए जाने की संभावना है।

दस हज़ार करोड़ रुपए के इस प्रोजेक्ट को लेकर एक और महत्वपूर्ण निर्णय लिया गया है कि अयोध्या को अंतरराष्ट्रीय पर्यटन स्थल के तौर पर विकसित करना है। इसलिए अयोध्या और उसके आसपास के इलाक़ों में जितनी ज़मीन अभी खरीदी जा सकती हो, उसे खरीद लिया जाए, क्योंकि बाद में बड़े व्यापारी और इस मिशन में बाधा पहुँचाने वाले कुछ लोग ज़मीन खरीद कर भविष्य में मुश्किलें पैदा कर सकते हैं। मंदिर से जुड़े लोगों और संघ का मानना है कि ज़मीन खरीद में अनियमितताओं के आरोपों से परेशान होने और काम को रोकने या धीमा करने की ज़रूरत नहीं है बल्कि ज़मीन ख़रीद के काम को रफ्तार देनी है। इसके साथ ही यह काम निचले स्तर पर कर लिया जाए, उतना ही बेहतर रहेगा क्योंकि वे लोग ज़मीन की आवश्यकता और मोल भाव ठीक तरह से कर सकते हैं।

राम जन्मभूमि ट्रस्ट के मुखिया प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के विश्वस्त रहे नृपेन्द्र मिश्र हैं और ख़ुद प्रधानमंत्री इस प्रोजेक्ट में ना केवल दिलचस्पी ले रहे हैं बल्कि बारीक निगाह रखे हुए हैं। पिछले दिनों प्रधानमंत्री ने इस प्रोजेक्ट के विजन के लेकर सभी संबंधित लोगों के साथ वर्चुअल बैठक की थी। बैठक में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी यह उम्मीद जाहिर की थी कि पूरी अयोध्या इस तरह से तैयार की जाए कि हर हिन्दू जीवन में एक बार ज़रूर यहां आना चाहे। इस बैठक में विश्व हिन्दू परिषद्, ट्रस्ट के अलावा यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी शामिल रहे थे। ट्रस्ट में विश्व हिन्दू परिषद की तरफ़ से चंपत राय हैं, लेकिन संघ मानता है कि मंदिर निर्माण के काम में कोई गड़बड़ी नहीं होनी चाहिए और वह किसी भी संदेह से परे रहना चाहिए।

पिछले कुछ समय से मंदिर निर्माण परियोजना के लिए ज़मीनों की ख़रीद में घोटाले के आरोप लगे हैं और उन पर ट्रस्ट की तरफ़ से सफ़ाई देने के बावजूद अभी तक विवाद बना हुआ है।

आम आदमी पार्टी के यूपी के प्रभारी और राज्यसभा सांसद संजय सिंह ने आरोप लगाया था कि इस परियोजना में कुछ ज़मीन बेतहाशा ज़्यादा क़ीमतों पर ख़रीदी गई। संजय सिंह ने आरोप लगाया था कि एक ज़मीन दो करोड़ में ख़रीदी गई, लेकिन उसे कुछ मिनटों बाद ट्रस्ट ने 18 करोड़ से ज़्यादा दाम पर ख़रीद ली। ट्रस्ट और विश्व हिन्दू परिषद् का कहना है कि इन ख़रीदों में कोई गड़बड़ी नहीं हुई है। बताया जाता है कि आरोपों के बाद इन ख़रीदों के काग़जात यूपी के मुख्यमंत्री कार्यालय और केन्द्र सरकार ने भी मंगवाए थे और उनकी पूरी छानबीन की गई है।

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मंदिर निर्माण के लिए अभी तक तीन हज़ार दो सौ करोड़ रुपए से ज़्यादा इकट्ठा हुए हैं, लेकिन संभावना है कि अयोध्या प्रोजेक्ट पर क़रीब दस हज़ार करोड़ रुपए ख़र्च किए जाएंगे। प्रधानमंत्री और संघ इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर का पर्यटन स्थल तैयार करना चाहता है ताकि दुनिया भर से हिन्दू समाज के लोग जब यहाँ पहुँचे तो उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर की हर सुविधा उपलब्ध हो। देश की प्रमुख पर्यटन कंपनियों ने अभी से इसकी तैयारी शुरू कर दी है। वे देश के दस प्रमुख पर्यटन शहरों में अयोध्या को शामिल कराने की कोशिश में हैं। अभी इसमें उत्तर प्रदेश से आगरा और वाराणसी शामिल हैं। प्रमुख धार्मिक स्थलों में मथुरा, वैष्णो देवी, वाराणसी, अमृतसर और अयोध्या का नाम आता है।

लेकिन राजनीतिक नज़रिए से देखें तो सिर्फ़ अयोध्या या राम मंदिर निर्माण ही मुद्दा नहीं है, हालाँकि संघ के लिए राम मंदिर निर्माण सबसे ऊपर है, लेकिन यूपी में बीजेपी की राजनीतिक चिंताएँ भी कम होने का नाम नहीं ले रहीं। बीजेपी ही नहीं, संघ की चिंता भी अगले साल फ़रवरी में होने वाले यूपी विधानसभा चुनाव हैं। साल 2002 के पन्द्रह साल बाद साल 2017 में यूपी में बीजेपी की सरकार बनी थी वो भी ज़ोरदार बहुमत के साथ और तब चुनावों के बाद योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाया गया था, जबकि चुनावों से पहले इस बात का संकेत दिया गया था कि चुनावों के बाद बीजेपी की सरकार बनने की स्थिति में प्रदेश अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य मुख्यमंत्री होंगे। हालाँकि इसका ऐलान नहीं किया गया था, लेकिन दलितों और पिछड़ों के वोट बैंक को ध्यान में रखते हुए इस तरह की रणनीति बनाई गई थी और उसका फायदा भी बीजेपी के उन चुनावों में हुआ। 

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चुनाव नतीजों के बाद जब दिल्ली से एक ही विमान में योगी आदित्यनाथ और केशव प्रसाद मौर्य बीजेपी के कुछ दूसरे नेताओं के साथ दिल्ली से लखनऊ लौट रहे थे। तब लखनऊ एयरपर्ट पर मौर्य के समर्थक कार्यकर्ता उनका बीजेपी दफ्तर तक शानदार जुलूस निकालने की तैयारी कर चुके थे, लेकिन पार्टी ने मौर्य को मुख्यमंत्री बनाने के बजाय उनका ‘जुलूस’ निकाल दिया और शाम को योगी आदित्यनाथ विधायक दल के नेता चुन लिए गए।

इससे मौर्य समर्थक निराश होने के साथ ग़ुस्से में भी थे। लगातार चार साल मौर्य और योगी के बीच तनातनी चलती रही। अगले साल फ़रवरी में होने वाले चुनावों को लेकर बीजेपी की स्थिति मज़बूत नहीं बताई जाती है। इसी राजनीतिक संकट को ख़त्म करने और चुनावी रणनीति पर नज़र रखने के लिए संघ के नए सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले के लखनऊ में रहने का निर्णय भी पहले ही कर लिया गया है यानी संघ के दो बड़े नेता भैयाजी जोशी और होसबोले एकसाथ यूपी में रहेंगे।

बीजेपी में दलितों और पिछड़ों को साधने के लिए गोविन्दाचार्य ने सबसे पहले सोशल इंजीनियरिंग की रणनीति बनाई थी, फिर साल 2014 के चुनावों से पहले यूपी के प्रभारी रहे महासचिव अमित शाह ने इसे मज़बूत किया और 2017 के चुनावों से पहले मौर्या ने इसमें अलग-अलग तरह के रंग भर दिए, लेकिन अभी इन वर्गों को लग रहा है कि उनके साथ इंसाफ़ नहीं हुआ है। बीएसपी के नारे की गूंज आजकल यूपी बीजेपी में सुनाई देने लगी है-‘जिसकी जितनी भागीदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी।’ सवाल है कि क्या साल 2022 के चुनाव में इसका रास्ता निकल पाएगा?

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