19वीं शताब्दी के भारतीय सिख सम्राट महाराजा रणजीत सिंह का बीबीसी के एक सर्वेक्षण में पूरी दुनिया की तमाम ऐतिहासिक हस्तियों के बीच सर्वकालिक महान शासक चुना जाना एक चौंकाने वाली ख़बर है। हालाँकि यह सिर्फ़ 5,000 पाठकों के बीच रायशुमारी का नतीजा है लेकिन इसमें दिलचस्पी ख़ास तौर पर इसलिए बढ़ जाती है क्योंकि महाराजा रणजीत सिंह को जिन लोगों से मुक़ाबला करके ये ख़िताब मिला है उनमें ब्रिटेन की महारानी एलिज़ाबेथ प्रथम, ब्रिटेन के बहुचर्चित प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल, फ्रांसीसी क्रांतिकारी जोन ऑफ़ आर्क, पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन और महान मुग़ल सम्राट अकबर का नाम भी शामिल है।
सर्वेक्षण के लिए विश्व की 20 जानी-मानी ऐतिहासिक हस्तियों के नाम प्रस्तावित करने वाले लोग वैश्विक इतिहास के गंभीर अध्येता हैं। महाराजा रणजीत सिंह का नाम प्रस्तावित करने वाले मैथ्यू लॉकवुड अल्बामा यूनिवर्सिटी में इतिहास के असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं।
सर्वेक्षण करने वाली पत्रिका 'बीबीसी वर्ल्ड हिस्ट्रीज़ मैगज़ीन' के मुताबिक़ महाराजा रणजीत सिंह का नाम भले ही इस लिस्ट में शामिल बाक़ी कुछ हस्तियों के मुक़ाबले उतना जाना-पहचाना न लगे लेकिन सर्वेक्षण में उनको मिली बढ़त से यह साफ़ है कि उनकी नेतृत्वकारी क्षमताएँ 21वीं सदी में भी दुनिया भर के लोगों को प्रेरित करती हैं।
पत्रिका ने यह भी कहा है कि वैश्विक राजनैतिक तनावों के मौजूदा दौर में इस सर्वेक्षण के ज़रिए महाराजा रणजीत सिंह के शासन को सहिष्णुता, स्वतंत्रता और सहयोग के आदर्शों का प्रतिनिधि मानना बहुत महत्वपूर्ण संकेत हैं। रणजीत सिंह केवल सेनाओं के बल पर राज्यों को जीतने वाले और साम्राज्य का विस्तार करने वाले एक विजेता नहीं थे बल्कि उन्होंने अपनी नीतियों के ज़रिए धार्मिक कटुताओं और विद्वेष के बीच एक समावेशी, धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना और समाज को एक सूत्र में पिरोने की मिसालें कायम कीं।
ख़ैर, इतिहास के पन्ने पलटते हैं। सबसे पहले पिछले साल की एक घटना की याद ताज़ा कर लेते हैं। पिछले साल यानी 2019 में पाकिस्तान के लाहौर शहर में लाहौर क़िले के बाहर महाराजा रणजीत सिंह की एक प्रतिमा का अनावरण किया गया था। उस समय महाराजा रणजीत सिंह को उनके प्रशासनिक सुधारों के लिए याद किया गया था। मौक़ा था उनकी 180वीं पुण्यतिथि का। महाराजा रणजीत सिंह का देहांत लाहौर में 27 जून 1839 को हुआ था। अविभाजित भारत का लाहौर महाराजा रणजीत सिंह के राज्य की राजधानी था। उनकी समाधि भी लाहौर में है।
महाराजा रणजीत सिंह के बारे में एक तरफ ऐसी कहानियां हैं कि वे एक धर्मनिरपेक्ष शासक थे। उनकी बहुसंख्यक रानियों में भी सभी धर्मों की स्त्रियाँ शामिल थीं। अमृतसर में स्वर्ण मंदिर के लिए सोना उन्होंने दिया, काशी विश्वनाथ मंदिर के लिए भी सोना उन्होंने दिया। कई मसजिदों और सूफ़ी दरगाहों को उन्होंने संरक्षण दिया।
महाराजा रणजीत सिंह के शासन में गोकशी पर पाबंदी थी। जबरन धर्म परिवर्तन की घटनाएँ नहीं होती थीं। पर कश्मीर में उनके राज के दौरान स्थानीय मुसलमानों पर उनके प्रतिनिधियों के व्यवहार की कई नकारात्मक दास्तानें भी हैं।
महाराजा रणजीत सिंह का जन्म 13 नवंबर 1780 को गूजरांवाला में हुआ था जो अब पाकिस्तान में है। जन्म के समय उनका नाम रखा गया था बुध सिंह लेकिन उनके पिता महा सिंह, जो ख़ुद एक बड़े योद्धा थे, ने उनका नाम रखा रणजीत यानी युद्ध जीतने वाला।
रणजीत सिंह ने जब आँखें खोलीं थीं, तब शताब्दियों तक भारत पर राज कर चुका ताक़तवर मुग़ल साम्राज्य पतन की ढलान पर लुढ़क रहा था। मुग़लों के दिल्ली दरबार का दबदबा कम होने लगा था, स्थानीय और प्रांतीय ताक़तें सिर उठा रही थीं। ईस्ट इंडिया कंपनी तमाम सूबों के शासकों के आपसी झगड़ों पर नज़र गड़ाए हुए क़ब्ज़ा ज़माने के लिए घात लगाए बैठी थी। उस समय के पंजाब में मिस्ल या छोटे-छोटे रजवाड़े थे। रणजीत सिंह के पिता महा सिंह सूकरचकिया ऐसी ही एक मिस्ल के मुखिया थे। बहुत बहादुर थे। 1792 में एक लड़ाई में मारे गए और 12 साल की उम्र में अपनी मिस्ल की अगुआई की ज़िम्मेदारी रणजीत सिंह पर आ पड़ी।
रणजीत सिंह कैसे बने लाहौर का राजा
लाहौर पर रणजीत सिंह का राज कैसे क़ायम हुआ, इसकी बड़ी दिलचस्प कहानी है।
उस समय पंजाब पर अफ़ग़ानों का राज था। अफ़ग़ान शासक ज़मान शाह ने काबुल से धावा बोलते हुए लाहौर पर क़ब्ज़ा किया तो सिख फ़ौजों ने उसे टिकने नहीं दिया। जंग की दुश्वारियों और घरेलू साज़िशों के दबाव में ज़मान शाह लाहौर छोड़ कर वापस काबुल भागा। भागते वक़्त झेलम की बाढ़ पार करते हुए उसकी 12 बंदूक़ें ग़ायब हो गईं। परेशान ज़मान शाह ने रणजीत सिंह से सौदा किया कि अगर रणजीत सिंह उसकी बंदूक़ें ढुंढवाकर उसे वापस पहुँचा देंगे तो वह उन्हें लाहौर का राजा बना देगा। रणजीत सिंह ने बंदूक़ें ज़मान शाह तक पहुँचा दीं। बदले में ज़मान शाह ने भी अपना वादा निभाया और लाहौर उनके हवाले कर दिया।
यह 1799 की बात है। रणजीत सिंह उस समय 19 बरस के थे।
उसके बाद, महाराजा रणजीत सिंह ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
रणजीत सिंह ने 1801 तक पूरे इलाक़े पर अपनी पकड़ मज़बूत कर ली और पंजाब के महाराजा बन गए। उनको जिस दिन महाराजा घोषित किया गया, वह बैसाखी का दिन था।
जाने-माने पत्रकार (अब दिवंगत) खुशवंत सिंह ने सिखों के इतिहास पर लिखी अपनी मशहूर किताब 'ए हिस्ट्री ऑफ़ द सिख्स' में महाराजा रणजीत सिंह के राजतिलक का ब्यौरा दिया है, "साहिब सिंह बेदी ने रणजीत सिंह के ललाट पर केसरिया तिलक लगाया और उनको पंजाब का महाराजा घोषित किया। क़िले से एक शाही सलामी दी गई। दोपहर बाद नौजवान महाराज हाथी पर सवार हुआ और शहर में निकल पड़ा। शहर की गलियों में प्रजा खड़ी थी जिस पर वह सोने और चाँदी के सिक्के बरसाते जा रहे थे। शाम में शहर के सभी घरों को रोशन किया गया।”
1839 में मृत्यु होने तक उन्होंने सिख साम्राज्य की सीमाओं का विस्तार मुल्तान, पेशावर और कश्मीर तक कर दिया था। 38 साल का उनका साम्राज्य सिख इतिहास का सबसे गौरवशाली दौर कहलाता है। उनके बाद सिख साम्राज्य दोबारा ऐसा गौरव नहीं हासिल कर सका।
मनोज कुमार की फ़िल्म उपकार का एक बहुत मशहूर गाना अब भी 26 जनवरी और 15 अगस्त को ख़ूब बजता है- “मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती”। उसमें एक लाइन आती है- “रंग हरा हरी सिंह नलवे से।”
ये हरी सिंह नलवा महाराजा रणजीत सिंह के बहुत वफ़ादार और बहादुर फौजियों में से थे।
उनकी खालसा फ़ौज में हिंदू, मुसलिम और यूरोपीय लड़ाके शामिल थे। उनकी सेना में जहाँ हरि सिंह नलवा, मियाँ सिंह, गुरमुख सिंह लांबा और वीर सिंह ढिल्लो जैसे भारतीय थे तो फ्रांस के ज्यां फ्रैंक्वा अलार्ड और क्लाड ऑगस्ट कोर्ट, इटली के ज्याँ बैप्टिस्ट वेंचुरा जैसे विदेशी भी शामिल थे।
विदेशी लड़ाकों के ज़रिये रणजीत सिंह ने अपनी सेना का आधुनिकीकरण किया था सैन्यरणनीतियों के लिए उनकी तुलना नेपोलियन से की जाती थी। अंग्रेज़ों ने भी उनका लोहा माना है।
एक आँख से देखना एक मुहावरा है जो दरअसल किसी व्यक्ति के निष्पक्ष और न्यायप्रिय होने के संदर्भ में इस्तेमाल किया जाता है। महाराजा रणजीत सिंह के संदर्भ में यह उक्ति बड़े विडम्बनापूर्ण रूप से अपने वास्तविक स्थूल अर्थ में और मुहावरे के श्लिष्ट अर्थ में सही बैठती थी क्योंकि बचपन में चेचक की वजह से उनकी एक आँख की रोशनी चली गयी थी। उनकी यह शारीरिक कमी उनके न्यायप्रिय शासक होने का एक प्रतीक बन गयी थी। इसके बारे में ख़ुद महाराजा रणजीत सिंह का कथन मशहूर है कि 'भगवान ने मुझे एक आँख दी है, इसलिए उससे दिखने वाले हिंदू, मुसलिम, सिख, ईसाई, अमीर और ग़रीब मुझे तो सभी बराबर दिखते हैं'।
क्या महाराजा रणजीत सिंह की यह समदृष्टि ही उन्हें आज की राजनीति के संदर्भ में भी लोकप्रिय, स्मरणीय और अनुकरणीय बनाती है इस पर विचार करने की ज़रूरत है।