जिन्हें हिंद पर नाज़ है वो कहाँ हैं
कल तक बड़े गर्व से कहा जाता था कि जब यूरोप में अंधकार युग चल रहा था तो भारत में ऋषि वात्स्यायन कामसूत्र लिख रहे थे। ऐतिहासिक कालक्रम को देखते हुए यह बात सच भी है, लेकिन 'गर्व से कहो हम हिंदू हैं' का नारा लगाने वाले आरएसएस के आनुषंगिक संगठन बजरंग दल ने अहमदाबाद की एक दुकान में रखी कामसूत्र को धर्मविरोधी बताते हुए जला डाला। उन्होंने दावा किया कि इसमें हिंदू देवी-देवताओं के अश्लील चित्र हैं।
निश्चचित रूप से तमाम दक्षिणपंथी विचारकों के लिए भी यह माथा पीटने का समय है, क्योंकि कामसूत्र के बाद ये उत्साही बजरंग दली खुजराहो के मंदिर भी ध्वस्त करने निकल पड़ें तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। जब धर्म का मतलब तोड़ना, फोड़ना, जलाना हो जाये तो कोई भी लंपट ख़ुशी-ख़ुशी धार्मिक होना चाहेगा।
हद तो ये है कि मथुरा में श्रीनाथ जी के नाम से चलने वाले एक डोसा सेंटर में काम करने वाले इरफ़ान नाम के एक लड़के की पिटाई की गयी। वजह ये कि वह एक मुस्लिम है जबकि दुकान का नाम श्रीनाथ जी है। अगर इनको अनन्य कृष्ण भक्ति में डूबे रसखान मिल जायें तो उनकी भी लिंचिंग हो जायेगी क्योंकि उनका नाम सैयद इब्राहिम था। मक़बरा भी मथुरा में है और ज़ाहिर है ख़तरे में है।
अगला नंबर उन तमाम कृष्ण भक्त कवियों का होगा जो मुस्लिम थे लेकिन कन्हैया के प्रेम में पागल थे। मौलाना हरसत मोहानी जैसे कृष्ण के आशिक़ जन्माष्टमी पर मथुरा में हर हाल में पाये जाते थे (‘हसरत की भी क़ुबूल हो मथुरा में हाज़िरी सुनते हैं आशिक़ों पे तुम्हारा करम है आज।') 'मौलाना, कृष्णभक्त और इंकलाब -ज़िंदाबाद जैसा नारा देने वाला कम्युनिस्ट' हसरत मोहानी भारत की धरती पर कभी हो सकता था, आज नहीं।
नज़ीर अकबराबादी का क्या होगा जो कन्हैया के बालपन का ऐसा चित्रण कर गये हैं-
यारो सुनो ! यह दधि के लुटैया का बालपन
और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन॥
मोहन सरूप निरत करैया का बालपन
बन-बन के ग्वाल गाएँ चरैया का बालपन॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥
सईद सुल्तान ने तो कृष्ण को नबी का दर्ज़ा दिया है, लेकिन उनके लिए मथुरा की गलियों में घूमना संभव नहीं रहा।
और हमारा प्यारा 'अख़्तर पिया'... नवाब वाजिद अली शाह! उनके दौर में तो कृष्ण-लीला बाक़ायदा सरकारी आयोजन थी। ख़ुद नवाब वाजिद अली शाह कृष्ण बनकर रास रचाते थे!
इस तरह की साझा संस्कृति पर नाक भौं सिकोड़ने वाले हमेशा रहे हैं, और दोनों तरफ़ रहे हैं, लेकिन इस संस्कृति में पगकर जीवन में नया रस भरने वालों को मारा जाये, यह बौद्धों और बौद्धस्तूपों को नष्ट करने के लिए चले बर्बर अभियान के बाद 'राज्य के संरक्षण' में पहली बार हो रहा है। ऐसी घटना अंधकार युग का दस्तक होती हैं।
ज़ाहिर है, यह अभियान अब भारत नाम के विचार के लिए ख़तरा बन चुका है। कामसूत्र को फाड़ने जलाने का अभियान स्कूलों में पढ़ाई जा रही विज्ञान की किताबों को भी निशाना बनायेगा, क्योंकि कक्षा छह की किताबों में भी बहुत कुछ ऐसा है जो धार्मिक मान्यताओं के विरुद्ध है। कोई कह सकता है कि पृथ्वी शेषनाग के फन पर है, ये ग्रेविटेशनल फोर्स पढ़ाकर धर्म क्यों भ्रष्ट कर रहे हो? समाजशास्त्र और इतिहास की किताबों को तो वे बरबाद कर ही रहे हैं!
और हाँ, निशाने पर जीन्स ही नहीं, कल आम पैंट भी होगी क्योंकि ईसाईयों की देन है (गणवेश भी फाड़े जा सकते हैं)।
भारत ने आज़ादी के बाद अमेरिका और रूस से टक्कर लेने की सोची थी। अब प्रचार ये है कि भारत, अफ़ग़ानिस्तान से बेहतर है। सत्तर साल की तमाम उपलब्धियों को नकारने का अभियान हमें बारूदी गंध में डूबे 'अफ़ग़ानिस्तान से बेहतर होने' पर गर्व करने का पाठ पढ़ा रहा है।
(पंकज श्रीवास्तव के फेसबुक वाल से)