ख़बरों की बदलती दुनिया में एक नया ख़तरा
कभी दुनिया की क्रिकेट का चेहरा बदल देने वाले आस्ट्रेलियाई मीडिया मुगल कैरी पैकर और टेलीविजन की दुनिया बदल देने वाले रपर्ट मर्डाक अब सोशल मीडिया का चेहरा बदलने पर तुल गए हैं। हम अभी तक सोशल मीडिया पर ख़बरों को जिस तरह देखते, पढ़ते और सुनते हैं वह अब पूरी तरह से बदलने वाला है। अब अगर कोई सोशल मीडिया कंपनी किसी न्यूज़ कार्पोरेशन की ख़बरें इस्तेमाल करना चाहती है तो उसे इसके लिए बाकायदा पैसा देने होंगे।
मर्डाक ने अगर गूगल, ट्विटर और फेसबुक जैसी सोशल मीडिया कंपनियों के सामने ऐसी कोई शर्त रखी होती तो शायद इस पर इतना विवाद न होता जितना इसलिए हो रहा है कि उन्होंने आस्ट्रेलिया की सरकार को राजी करके इस पर बाकायदा कानून भी बनवा लिया है।
पूरी दुनिया पर पड़ेगा असर
न्यूज़ मीडिया बारगेनिंग कोड नाम के इस कानून को बनाने की प्रक्रिया दो साल पहले ही शुरू हो गई थी, देश के कंपटीशन कमीशन द्वारा तैयार किए गए इस कानून को अब आस्ट्रेलियाई संसद ने पास कर दिया है। वैसे तो यह सिर्फ आस्ट्रेलिया का कानून है लेकिन इसका असर पूरी दुनिया पर पड़ने जा रहा है।
एक तो इसलिए कि सोशल मीडिया चलाने वाली कंपनियां ख़बरें देने वालों संस्थानों को पैसा दें, ये मांग पिछले कुछ समय से दुनिया भर में ही उठ रही है। दूसरा, आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्काॅट माॅरीसन इसका दुनिया भर में प्रचार कर रहे हैं। पिछले दिनों उन्होंने जब इस कानून पर भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बात की तो इसे ट्वीट भी किया।
इस पूरे मामले को हम एक दूसरी तरह से समझने की कोशिश करते हैं। आप इस लेख को सत्य हिंदी की वेबसाइट पर पढ़ रहे हैं। इस पर आपकी दो तरह की प्रतिक्रिया हो सकती है। एक तो आपको यह लेख पसंद आता है और आप चाहते हैं कि बाकी लोग भी इसे पढ़ें तो आप सोशल मीडिया पर इसे शेयर कर देते हैं।
दूसरी स्थिति यह हो सकती है कि आप इससे पूरी तरह असहमत हैं और इस असहमति को सोशल मीडिया पर दर्ज कराने के लिए इसके लिंक को शेयर कर देते हैं। दोनों ही स्थितियों में यह सोशल मीडिया पर यह देखा और पढ़ा जाएगा व उसकी कमाई में एक भूमिका भी निभाएगा। फिर ख़बरों से सोशल मीडिया की कमाई सिर्फ इसी तरह से नहीं होती।
फेसबुक पर एक न्यूज़फीड होती है और गूगल के पास तो गूगल न्यूज़ है जो काफी लोकप्रिय भी है। इन सबके जरिये भी ये कंपनियां ख़बरों से कमाई करती हैं। ख़बरों का काम करने वाली कंपनियों का कहना है कि आप इन ख़बरों से कमा रहे हो इसलिए इस कमाई में हमें भी हिस्सा दो।
अलगोरिदम को लेकर विवाद
वैसे, फेसबुक न्यूज़फीड के लिए और गूगल भी गूगल न्यूज़ के लिए ख़बरिया कंपनियों को कुछ पैसे देते हैं लेकिन इसके लिए उनके अपने नियम हैं और ख़बरों का काम करने वाली कंपनियां इससे कभी संतुष्ट नहीं दिखीं। न्यूज़फीड और गूगल न्यूज़ में किस ख़बर को ऊपर रखा जाना है और किस ख़बर को नीचे इसके लिए इन कंपनियों के सर्वर पर प्रोग्रामिंग का एक गणित होता है जिसे अलगोरिदम कहते हैं, यह अलगोरिदम हमेशा ही विवादों में रहा है।
आस्ट्रेलिया की सरकार ने जो कानून बनाया है उसमें सोशल मीडिया कंपनियों को न सिर्फ ख़बरिया संगठनों से भुगतान का समझौता करना होगा बल्कि ख़बरों को इस्तेमाल करने का अपना अलगोरिदम भी उन्हें बताना होगा और अगर वे इस अलगोरिदम में कोई बदलाव करती हैं तो उन्हें इसकी सूचना 28 दिन पहले देनी होगी।
मीडिया पर नियंत्रण की कोशिशों को लेकर देखिए वीडियो-
आस्ट्रेलिया सरकार बनाम फेसबुक
गूगल और फेसबुक शुरू से ही इसका विरोध कर रहे थे। लेकिन जब कानून सामने आ गया तो गूगल ने न सिर्फ इसे चुपचाप स्वीकार कर लिया बल्कि आस्ट्रेलिया के तीन बड़े ख़बरिया संगठनों से समझौता भी कर लिया। लेकिन फेसबुक अड़ गया। उसने न सिर्फ वहां के मीडिया संस्थानों की ख़बरों को अपनी साइट से हटा दिया बल्कि उन्हें शेयर करने पर भी रोक लगा दी।
यही नहीं, इसी चक्कर में आस्ट्रेलियाई सरकार के कई विभागों के पेज भी बंद हो गए। यह भी कहा जाने लग गया कि आस्ट्रेलिया सरकार बनाम फेसबुक की लड़ाई छिड़ गई है।
यह लगभग तय है कि यह लड़ाई भी जल्द ही सुलट जाएगी, यही फेसबुक और आस्ट्रेलिया सरकार दोनों के हित में है। लेकिन यह कानून जो कुछ दूसरी समस्याएं खड़ी करेगा, उसे लेकर चिंताएं अभी से शुरू हो गई हैं।
एलेजिबिलिटी क्राइटेरिया पर विवाद
इस कानून में सबसे ज्यादा विवादास्पद एलेजिबिलिटी क्राइटेरिया है, यानी इसका पैमाना कि कौन सी ख़बरिया कंपनियां समझौता करने की पात्रता रखती हैं। यह कहा जा रहा है कि इस तरह के समझौते सिर्फ बड़ी कंपनियाँ ही कर सकेंगी। जैसे अभी आस्ट्रेलिया में गूगल ने न्यूज़ काॅर्प के अलावा सेवेन वैस्ट मीडिया और नाइन एंटरटेनमेंट नाम की जिन तीन कंपनियों से यह समझौता किया है वे वहां की सबसे बड़ी मीडिया कंपनियां हैं।
यह माना जा रहा है कि ख़बरों का काम करने वाली बहुत छोटी कंपनियां, नए स्टाॅर्ट अप, वैकल्पिक मीडिया की कंपनियां, छोटे समूहों के ख़बरिया संगठन और कई ऐसे संगठन जिन्हें हम हाशिये के डाॅयवर्सिटी संगठन कहते हैं वे सब इस होड़ से बाहर हो जाएंगे।
छोटी कंपनियों को होगा नुक़सान
एक तो उनसे इस तरह के समझौते नहीं हो सकेंगे, दूसरा, बड़ी कंपनियों को क्योंकि अलगोरिदम की पूरी जानकारी होगी इसलिए वे अपनी ख़बरों को हमेशा आगे रख सकेंगी और छोटी कंपनियों की ख़बरें सिर्फ कंप्यूटर की गणित के चक्कर में ही दब जाएंगी।
अभी तक ऐसी छोटी कंपनियों का सबसे बड़ा सहारा सोशल मीडिया रहा है। सोशल मीडिया ने उन्हें जमीन दी है तो इन्होंने समाज के कई तबकों को सोशल मीडिया से जोड़ने का काम किया है।
अगर, बाकी दुनिया के देश भी इसी राह पर बढ़ते हैं तो कई और तरह की समस्याएं भी खड़ी हो सकती हैं। यह भी संभव है कि एलेजिबिलिटी क्राइटेरिया कई जगह इस तरह से तैयार किया जाए कि किसी खास सोच या विचारधारा की मीडिया को इससे बाहर ही कर दिया जाए। यानी यह सेंसर का विकल्प भी बन सकता है।
एक और सवाल यह भी उठ रहा है कि ऑनलाइन मीडिया क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय है और पूरी दुनिया में कहीं भी इससे जुड़ा जा सकता है, अलग-अलग देश में इसके लिए अलग-अलग कानून से स्थिति उलझेगी ही। बेहतर होगा कि इसके लिए एक अंतरराष्ट्रीय संहिता तैयार की जाए।