करो या मरो! 1942 की अगस्त क्रांति का यही नारा था जिसने दूर दिखाई पड़ रही आज़ादी की भोर को अगले पाँच साल में हक़ीक़त बना दिया। यह 1857 के बाद सबसे बड़ी क्रांति थी जिसने भारत में अंग्रेज़ी राज पर निर्णायक चोट की थी। पर इस क्रांति के साथ एक सपना भी जुड़ा था जिसे 80 साल बाद आज ज़मींदोज़ होते देखा जा रहा है। 2019 के अगस्त महीने में देश का मुकुट कहा जाने वाला जम्मू-कश्मीर राज्य न सिर्फ़ विभाजित हुआ, बल्कि धरती का स्वर्ग कही जाने वाली घाटी क़ैदख़ाने में तब्दील हो चुकी है। जनता ख़ामोश है और नारा सरकार दे रही है- डरो या मरो!
1942 की अगस्त क्रांति इन अर्थों में अनोखी थी कि इसने महात्मा गाँधी का एक बिलकुल नया रूप दुनिया के सामने रखा था। कहाँ तो कुछ हिंसक घटनाओं की वजह से 1922 में असहयोग आंदोलन वापस ले लेने वाले गाँधी और कहाँ जीवन में पहली बार आम हड़ताल का आह्वान। दरअसल, 1942 की गर्मियाँ आते-आते गाँधी जी एक संघर्षशील मनोस्थिति में पहुँच चुके थे। 16 मई को उन्होंने प्रेस को साक्षात्कार देते हुए कहा - 'इस सुव्यवस्थित अनुशासनपूर्ण अराजकता को जाना ही होगा और यदि इसके परिणामस्वरूप पूर्ण अव्यवस्था की स्थिति उत्पन्न होती है तो मैं यह ख़तरा उठाने को भी तैयार हूँ।'
पहले थोड़ी पृष्ठभूमि समझते हैं। 1 सितंबर 1939 को दूसरे महायुद्ध की घोषणा हो गई थी। ब्रिटिश सरकार ने बिना भारतीयों से पूछे भारत को युद्ध में झोंक दिया। इसकी प्रतिक्रिया में कांग्रेस ने प्रांतीय मंत्रिमंडलों से इस्तीफ़ा दे दिया। नारा दिया गया-- न एक पाई, न एक भाई। कांग्रेस ने व्यक्तिगत सत्याग्रह शुरू किया जो अक्टूबर 1940 से लेकर जनवरी 1942 तक, यानी लगभग 15 महीने चला। पहले सत्याग्रही विनोबा भावे थे और दूसरे जवाहरलाल नेहरू। धीरे-धीरे कांग्रेस के तमाम बड़े नेता पकड़ लिए गए। लगभग 30,000 लोग जेल गए।
ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों का समर्थन पाने के लिए 23 मार्च 1942 सर स्टीफर्ड क्रिप्स को भारत भेजा। क्रिप्स मिशन ने युद्ध के बाद भारत में औपनिवेशक स्वराज की स्थापना, संविधान सभा बनाने, जिसमें भारतीय रियासतों का भी हिस्सा हो, और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा आदि से जुड़ी योजनाएँ पेश कीं, लेकिन प्रमुख दलों ने इसे मानने से इंकार कर दिया। वे युद्ध के दिनों में भारतीयों की प्रभावशाली भूमिका न होने और रियासतों को संविधान सभा में प्रतिनिधि भेजने या उन्हें अलग हो जाने का विकल्प देने से नाराज़ थे।
लेकिन युद्ध की स्थिति में अंग्रेज़ों पर चोट की जाए या नहीं, इसे लेकर कांग्रेस नेताओं में मतभेद था। राजगोपालाचारी से लेकर नेहरू तक नहीं चाहते थे कि युद्ध के दौरान आंदोलन चले। नेहरू ख़ासतौर पर जर्मनी और इटली के फ़ासिस्ट अभियान के ख़िलाफ़ थे जिसका सामना ब्रिटिश कर रहे थे। यूँ तो कांग्रेस हमेशा ही फ़ासीवाद को ख़तरा बताती रही थी, लेकिन महात्मा गाँधी इस अवसर पर निर्णायक चोट करने के पक्ष में थे। 8 अगस्त 1942 को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के अधिवेशन में प्रसिद्ध 'भारत छोड़ो' प्रस्ताव पारित हुआ। प्रस्ताव में अहिंसक रूप से जितना संभव हो, उतने बड़े स्तर पर जन संघर्ष का आह्वान किया गया था।
'भारत छोड़ो' प्रस्ताव में यह भी कहा गया था कि अगर कांग्रेस के सभी नेता गिरफ्तार हो जाएँ तो 'स्वाधीनता की इच्छा एवं प्रयास करने वाला प्रत्येक भारतीय स्वयं अपना मार्गदर्शक बने। प्रत्येक भारतीय अपने आपको स्वाधीन समझे, केवल जेल जाने से ही काम नहीं चलेगा।'
राजनीतिक हड़ताल को गाँधी का समर्थन
उसी दिन अपने भावपूर्ण ‘करो या मरो’ का आह्वान करने वाले भाषण में गाँधी जी ने यह घोषणा की- 'यदि आम हड़ताल करना आवश्यक हो तो मैं उससे पीछे नहीं हटूँगा।' गाँधी जी पहली बार राजनीतिक हड़तालों का समर्थन करने के लिए तैयार हुए थे। 9 अगस्त को नेताओं की गिरफ्तारी के साथ ही आंदोलन देशव्यापी होने लगा। शुरुआत में शहरों में श्रमिकों की हड़तालें हुईं, नौजवान और छात्रों ने उग्र प्रदर्शन किया और जल्दी ही यह ग्रामीण अंचलों में फैला। दिन में खेती में जुटे रहने वाले किसान रात में तोड़-फोड़ करते थे। कुछ जगहों पर गुप्त समानांतर राष्ट्रीय सरकारें भी स्थापित हुईं। जैसे मिदनापुर के तमलुक, महाराष्ट्र के सतारा और उड़ीसा के तलचर में। यह आंदोलन ब्रिटिश सरकार के लिए भयंकर साबित हुआ। सरकार ने 538 जगह गोलियाँ चलाईं। कई बार मशीनगन का इस्तेमाल हुआ। कम से कम 7000 व्यक्ति मारे गए।
कांग्रेस के तमाम बड़े नेताओं के जेल चले जाने पर नेतृत्व उन लोगों के हाथ आया जो गिरफ्तारी से बच गए थे। पार्टी के अंदर समाजवादी दल था- कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी, उसके नेता भूमिगत होकर आंदोलन चला रहे थे। राममनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन, एस.एम.जोशी प्रमुख थे। 9 अगस्त को बम्बई के गोवालिया टैंक मैदान में अरुणा आसफ अली ने मुंबई के मैदान में झंडा फहराकर सनसनी फैला दी थी। एक और प्रमुख समाजवादी नेता जय प्रकाश नारायण थे। वह 1941 में जेल में रहते हुए सशस्त्र संघर्ष चलाने पर विचार कर रहे थे। उन्होंने वहीं से एक गुप्त पत्र कलकत्ता में सुभाष बोस को भेजा था जिसमें उन्होंने भारत में मार्क्सवादी-लेनिनवादी शैली की क्रांति करने की बात थी। लेकिन जनवरी 1941 में नज़रबंद बोस भारत से निकल गए और जर्मनी पहुँच गए।
1942 का आंदोलन मील का पत्थर
1942 के आंदोलन ने स्वतंत्रता आंदोलन में जैसे बिजली भर दी थी। महात्मा गाँधी महानायक थे। लेकिन यहाँ ध्यान देने की बात है कि तमाम राजनीतिक धाराएँ इस आंदोलन के ख़िलाफ़ थीं। 1934 से ही पाबंदी झेल रही कम्युनिस्ट पार्टी युद्ध में रूस के शामिल हो जाने की वजह से अब उसे जनयुद्ध कहने लगी थी। अब वह अंग्रेज़ों के साथ थी, हालाँकि अंग्रेज़ सशंकित थे कि पार्टी मौक़े का फ़ायदा उठाकर बोल्शेविक क्रांति की तैयारी कर रही है। (ऊपर से देखने पर वे फ़ासीवाद-विरोधी और युद्ध समर्थक प्रतीत होते हैं किंतु भीतर से वे साम्राज्यवाद विरोधी हैं और उनकी शस्त्रों की माँग का इन दोनों में से किसी भी विचारधारा से संबंध हो सकता है- लिनलिथगो को बिहार के गवर्नर स्टेवर्ट का पत्र, 6 मई 1942)
मसला सिर्फ़ कम्युनिस्टों का नहीं था। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फ़ासीवाद की जीत की आशंका से हर तरफ़ घबराहट थी। अगस्त 1941 में मृत्यु शैया पर पड़े गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर विश्वास जता रहे थे कि रूसी ही 'दानवों' को रोकने में समर्थ होंगे। दानव यानी जर्मनी का हिटलर। उधर सुभाषचंद्र बोस हिटलर के सहयोगी जापानियों की फ़ौजी मदद के सहारे भारत को आज़ाद कराने का सपना देख रहे थे। हालाँकि अपनी आज़ाद हिंद फ़ौज में उन्होंने गाँधी और नेहरू के नाम पर ब्रिगेड बनाई थी और महात्मा गाँधी को राष्ट्रपिता की उपाधि उन्होंने उसी वक़्त दी थी।
पाकिस्तान का प्रस्ताव पारित कर चुकी मुसलिम लीग ही नहीं, गोलवलकर का आरएसएस भी इस आंदोलन से पूरी तरह अलग रहा। हिंदू महासभा ने तो अंग्रेज़ी सेना में हिंदुओं की भर्ती के लिए बाक़ायदा कैंप लगवाए।
अंग्रेज़ समर्थक भी देशद्रोही क्यों नहीं?
4 सितंबर 1942 को महासभा के नेता वी.डी. सावरकर ने स्थानीय निकायों, विधायिकाओं और सरकारी सेवा में बैठे हिंदू महासभा के सदस्यों का आह्वान किया कि वे अपने स्थान पर रोज़मर्रा का काम करते रहें। उधर, महासभा के एक बड़े नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी तो बंगाल की सरकार में मंत्री ही थे। उन्होंने सुभाष बोस को बंगाल आने से रोकने के लिए अंग्रेज़ों के सामने लंबी चौड़ी योजना पेश की थी।
बहरहाल, किसी ने किसी को देशद्रोही नहीं कहा जैसे आज वैचारिक विरोधियों को कहने का चलन है। महात्मा गाँधी देश के केंद्रीय पुंज थे। कल्पना ही की जा सकती है कि अगर उन्होंने आरएसएस या हिंदू महासभा को देशद्रोही कह दिया होता तो क्या होता। दरअसल, किसी को किसी की निष्ठा पर संदेह नहीं था। विरोध था तो भविष्य के सपने को लेकर। जैसा कि डॉक्टर आंबेडकर कहते थे कि भारत एक बनता हुआ राष्ट्र है। इसका अर्थ हुआ कि इसे बनाने के लिए सबके पास अपना-अपना सपना था। असहमतियों के प्रति सहमति 1942 के आंदोलन का भी निचोड़ है। अगस्त क्रांति ने दुनिया को दिखाया कि आज़ादी मनुष्य का मूल अधिकार है और इसे पाने के लिए भारतीय कोई भी क़ीमत दे सकते हैं।
आज़ादी का मतलब
पाँच साल बाद जब आज़ादी मिली और आठ साल बाद जब संविधान लागू हुआ तो उसमें नागरिक अधिकारों को लेकर वे सारे वादे दर्ज हुए जो भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के मूल में थे। वरना प्रेमचंद की यह बात फ़िज़ा में थी कि 'जॉन की जगह गोविंद को बैठा देने का मतलब आज़ादी नहीं होता।' लेकिन 77 साल बाद यह ज़रूर पूछा जाना चाहिए कि वर्तमान सत्ता उन नागरिक अधिकारों को कुतरने में क्यों जुटी है। क्यों ऐसा है कि सरकार विरोधी देशद्रोही क़रार दिए जा रहे हैं। 'करो या मरो' के देश में 'डरो या मरो' का नारा कहाँ से आया?