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असम : लाखों के सिर पर लटक रही है 'राज्यविहीन' होने की तलवार

असम : लाखों के सिर पर लटक रही है 'राज्यविहीन' होने की तलवार

असम में एनआरसी की सीमारेखा में सिर्फ़ 2 दिन बचे हैं, लाखों के सिर पर राज्यविहीन होने की तलवार लटक रही है। परिवार टूटने के कगार पर हैं, लोग बंदी शिविरों के डर से काँप रहे हैं। 

असम में नेशनल रजिस्ट्रेशन ऑफ़ सिटीजन्स यानी एनआरसी में नाम जुड़वाने की अंतिम तारीख में सिर्फ़ दो दिन बचे हैं और लाखों लोग साँस थामे हैं कि वे कहीं छूट न जाएँ। लाखों लोगों के सिर पर राज्यविहीन होने की तलवार तो लटक ही रही है, ऐसे लोग भी हैं जिनका परिवार टूटने के कगार पर है। 

एनआरसी को अपडेट करने के नियम के मुताबिक़, उन लोगो के नाम एनआरसी में नहीं जोड़े जाएँगे जिन्हें विदेशी पंचाट यानी फ़ॉरनर्स ट्राइब्यूनल ने विदेशी घोषित (डिक्लेअर्ड फ़ॉरनर्स या एफ़डी) कर दिया हो, स्थानीय चुनाव अधिकारी ने संदिग्ध मतदाता यानी डाउटफ़ुल वोटर (डीवी) क़रार दिया हो या जिनके नाम फ़ॉरनर्स ट्राइब्यूनल में अटका पड़ा  (पेंन्डिंग फ़ॉरनर्स ट्राइब्यूनल या पीएफ़टी) हुआ हो। इसके अलावा ऐसे लोगों के बच्चों के नाम भी एनआरसी में नहीं जुड़ेंगे। 

'डीएफ़', 'डीवी', 'पीएफ़टी' का मतलब

जिन लोगों का जन्म 3 दिसंबर, 2004 के बाद हुआ है, उनके माता-पिता में से किसी का नाम इन तीन श्रेणियों डीएफ़, डीवी या पीएफ़टी में नहीं होना चाहिए। 

हालाँकि केंद्र और राज्य सरकारों ने कह रखा है कि जिनके नाम एनआरसी में नहीं होंगे, उनमें से किसी को बंदी शिविरों में नहीं रखा जाएगा और उनके पास यह मौका होगा कि वे 120 दिनों के अंदर एफ़टी यानी फ़ॉरनर्स ट्राइब्यूनल में अर्जी दे सकेंगे। पर लोगों को तरह तरह की आशंकाएँ हैं और कोई पूरी तरह आश्वस्त नहीं है। नाबालिगों को कोई खास छूट नहीं मिलेगी। 

असम में 1997 में डी-वोटर कैटगरी शुरू की गई उन लोगों के लिए जो पड़ताल के दौरान अपनी नागरिकता साबित करने में नाकाम रहे।

फ़ॉरनर्स ट्राइब्यूनल यानी एफ़टी एक अर्द्ध सरकारी निकाय है जो इसकी जाँच करता है कि कोई आदमी विदेशी अधिनियम, 1946, के तहत विदेशी तो नहीं है। फ़ॉरनर्स ट्राइब्यूनल उन लोगों को नोटिस भेजता है जो डी-वोटर्स हैं या असम पुलिस की बोर्डर विंग ने जिनके ख़िलाफ़ शिकायत की है। 

'डी-वोटर्स के वंशज'

इंडियन एक्सप्रेस ने अपनी रिपोर्ट में एक केस स्टडी पेश की है। अख़बार के रिपोर्टर ने जिन लोगों से मुलाक़ात की, उनमें नयमणि का मामला अनूठा और दिलचस्प है। उन्हें इसका अहसास ही नहीं है कि वह, उनके पिता संजीत, मामा मनोजीत और छोटी बहन टीना राज्यविहीन घोषित की जा सकती हैं। पिछले साल जुलाई में उनके नाम एनआरसी में नहीं थे। उन्होंने अर्जी दी. औपचारिकताएँ पूरी कीं तो नाम जुड़ गए, लेकिन इस साल 26 जून को प्रकाशित सूची में उनके नाम नहीं हैं। उन्हें 'डी-वोटर्स के वंशज' बताया गया है। 

मेरे पिता की मृत्यु 2005 में हुई, उस समय तक मतदाता सूची में उन्हें डी-वोटर नहीं कहा गया था, लेकिन 2013 की सूची में वे डी-वोटर क़रार दिए गए, 2019 की मतदाता सूची में एक बार फिर उनका नाम शामिल था।


संजित, असम का बाशिंदा

परिवार टूटने का डर

उनके पड़ोसी रतीश दास का मामला और उलझा हुआ है। उनकी पत्नी कल्पना और सबसे छोटे बच्चे राजीब के नाम मतदाता सूची में हैं, पर दूसरे दो बच्चों रबींद्र और पूर्णिमा के नाम नहीं हैं। वे पूछते हैं, क्या हमारा परिवार बँट जाएगा

इंडियन एक्सप्रेस के रिपोर्टर ने लोअर असम का एक उदाहरण दिया। उन्होंने कहा, लोअर असम का भी यही हाल है। बरपेटा ज़िले में मछली बेचने वाले मोफ़ीज़ुद्दीन मियाँ का कहना है कि वह भारतीय हैं। लेकिन उनके पिता फिद्दुस मियाँ को फ़ॉरनर्स ट्राइब्यूनल ने विदेशी घोषित कर दिया और गोआलपाड़ा के बंदी शिविर में डाल दिया है। मोफ़ीज़ुद्दीन मियाँ का दावा है कि उनके पिता मधु मियाँ का नाम 1951 में ही मतदाता सूची में शामिल था और उस समय उनकी उम्र 30 साल बताई गई थी। 

बंदी शिविर

कामरूप ज़िल में मिठाई बेचने वाले फूलचन मियाँ को डीएफ़ घोषित कर दिया गया, उन्हें गोआलपाड़ा के बंदी शिविर में डाल दिया गया और इस साल फरवरी में उन्हें अदालत ने ज़मानत दे दी। वह इस आशंका से परेशान हैं कि एक बार फिर उन्हें शिविर में डाला जा सकता है, उन्हें राज्यविहीन घोषित किया जा सकता है। 

डीएफ़, डीवी और पीएफ़टी यानी डिक्लेअर्ड फ़ॉरनर्स, डाउटफ़ुल वोटर, पेंन्डिंग फ़ॉरनर्स ट्राइब्यूनल....इन तीन शब्दों ने पूरे असम में भूचाल ला दिया है। लोग परेशान हैं, भागदौड़ में लगे हैं, राज्यविहीन घोषित होने से बचने के लिए कुछ भी करने को तैयार है। पर सवाल यह है कि राज्य कहाँ है और क्या कर रहा है

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