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एआई से नई जान पा गया है नए मैटीरियल बनाने का विज्ञान!

एआई से नई जान पा गया है नए मैटीरियल बनाने का विज्ञान!

क्या आपको पता है कि मोबाइल के टचस्क्रीन में कौन सा मैटीरियल साइंस है? 2000 डिग्री सेल्सियस से भी ऊंचे तापमान पर न पिघले, ऐसे धातु कैसे बनते हैं? जानिए, एआई कैसे बड़ा बदलाव ला सकता है मैटीरियल साइंस में।

इक्कीसवीं सदी में पैदा होकर जवान हुई पीढ़ी रोजमर्रा की ज़िंदगी में कुछ ऐसी चीजें देखती-आजमाती बड़ी हुई है, जो बीसवीं सदी में जवान हुए लोगों की कल्पना से भी परे थीं। आप फोन या पैड की टचस्क्रीन को ही लें। अभी बीस साल पहले तक कौन सोचता था कि लोगबाग सिर्फ़ एक शीशे को छू-छूकर दूर बैठे लोगों से लंबी-लंबी बातें कर लेंगे। मैटीरियल साइंस, पदार्थ विज्ञान की एक अद्भुत खोज है टचस्क्रीन। मैटीरियल साइंस यानी कुछ ऐसी नई चीजें जड़ से बनाने का विज्ञान, जो अब तक कहीं रही ही न हों। देखें तो टचस्क्रीन एक सीधी-सादी चीज है। शीशे पर पड़ी दो धातुओं, इंडियम और टिन के साझा ऑक्साइड की एक बहुत पतली परत, जिसमें नाम मात्र का करेंट दौड़ता है। इस स्क्रीन को जहां-जहां आप छूते हैं, वहां-वहां सर्किट टूटता है और फोन के कंप्यूटर को इनपुट मिलता जाता है। 

इंडियम एक महंगी धातु ज़रूर है लेकिन एक इंडियम टिन ऑक्साइड खुद में कोई बहुत जटिल रसायन नहीं है। चीजों पर लग जाने वाली जंग की शक्ल में हमारा पाला किसी एक धातु के ऑक्साइड से अक्सर पड़ता है। यह दो धातुओं का साझा ऑक्साइड है। असल बात है, इस कमाल की चीज तक पहुँचने की प्रोसेस, जिसे हासिल करने में कई सारे नए पदार्थ बनाने, आजमाने और खारिज करने पड़े। आगे हम देखेंगे कि कुछ बिल्कुल नई ज़रूरतों के लिए जिन मैटीरियल्स की मांग दुनिया में बनी है, वे ज्यादा जटिल हैं और उनतक पहुंचने का रास्ता काफी टेढ़ा-मेढ़ा है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, कृत्रिम बुद्धि अभी ऐसे रास्तों को थोड़ा-बहुत सीधा करने में बड़ी भूमिका निभा रही है।

इसकी आजमाइश का एक जरखेज इलाक़ा मिश्रधातुओं का है। जिन दो मिश्रधातुओं (एलॉय्ज) से हमारी भेंट रोजमर्रा के जीवन में सबसे ज्यादा होती आई है, वे हैं पीतल और कांसा। पीतल न जाने कब से दो तिहाई तांबे और एक तिहाई जस्ते से बनाई जा रही है, जबकि कांसे में नौ हिस्सा तांबा और एक हिस्सा टिन पड़ता है। मानव सभ्यता का एक युग इसी के नाम पर ‘ब्रॉन्ज एज’ कहलाता है। पिछले दशक में एलॉय का किस्सा रॉकेट की तरह उछला और पांच या इससे ज्यादा धातुओं के मेल से बने ‘हाई एंट्रॉपी एलॉय’ अपने अद्भुत गुणों से दुनिया का ध्यान खींचने लगे। एआई ने इनके रचाव को ‘हिट एंड ट्रायल’ की अटकलबाजी से निकालकर एक अलग विज्ञान की शक्ल दे दी है। 

हाई एंट्रॉपी एलॉय (एचईए) क्या-क्या कर सकते हैं, इस बारे में यहां ज्यादा जानकारी देना संभव नहीं है लेकिन दो-चार ज़रूरी बातें हम अभी उनके बारे में जान सकते हैं। एक तो इनका बुनियादी गुण कि ये बहुत मज़बूत होते हैं। जल्दी घिसते नहीं और इनमें खरोंच भी बड़ी मुश्किल से आती है। फिर परिभाषा। यह कि एचईए का पांच या उससे ज्यादा धातुओं से मिलकर बना होना ज़रूरी है। किसी भी धातु का हिस्सा वजन में न तो पांच प्रतिशत से कम होना चाहिए, न 35 प्रतिशत से ज्यादा। अगल-बगल कुछ धातुनाम लिख देने भर से इनका नाम बन जाता है, हालांकि इससे उनमें अलग-अलग धातुओं का सटीक अनुपात नहीं, सिर्फ ज्यादा से कम की ओर उनका क्रम पता चलता है।

एक खास मिजाज वाले कुछ एचईए के नाम दोहराने हों तो- अल्युमिनियम क्रोमियम आयरन निकिल कोबाल्ट, क्रोमियम मैगनीज आयरन कोबाल्ट निकिल और अल्युमिनियम कोबाल्ट क्रोमियम आयरन निकिल। इनमें पहले का इस्तेमाल सुपरसोनिक विमानों का ढांचा बनाने में हो रहा है, दूसरा ज्यादा घिसाव की आशंका वाले औजारों के लिए बहुत अच्छा है, जबकि तीसरे में मेडिकल इंप्लांट यानी टूटी हड्डियों को रिप्लेस करने की बहुत अच्छी संभावनाएं हैं। इनके करीब पड़ने वाला मिश्रधातुओं का एक क्लास रिफ्रैक्ट्री हाई एंट्रॉपी एलॉय (आरएचईए) का है, जिसका इस्तेमाल अत्यधिक ताप पर पहुंच जाने वाली स्थितियों में होता है। इसका एक उदाहरण ‘हैफनियम मोलिब्डेनम नियोबियम टैंटेलम जर्कोनियम’ है जो बहुत ऊंचे तापमान और दबाव की स्थितियों में भी अपनी शक्ल नहीं बदलता।

जिस धात्विक बनावट के औजार डेढ़ सौ किलोमीटर प्रति घंटा तक की रफ्तार से चलने वाली रेलगाड़ियों के लिए बेहतरीन साबित होते हैं, 350 किलोमीटर प्रति घंटे पर भागने वाली बुलेट ट्रेन का काम उनसे नहीं चल सकता। नई मेटलर्जी की ज़रूरत इसीलिए पड़ती है।

किसी अतिविशिष्ट काम के लिए ज़रूरी मिश्रधातुओं को लेकर विभिन्न प्रयोगशालाओं में अभी तक हुए अधिक से अधिक काम का डेटा जिस मशीन लर्निंग अल्गोरिदम में फीड हो पाता है, वह इसी के आधार पर इस खास उद्देश्य के लिए समर्पित एक आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस खड़ी कर देता है। सिर्फ एक लक्ष्य के लिए समर्पित यह विशिष्ट एआई धातुओं को मिलाने की क्रिया की तह में सक्रिय नियमों तक पहुंच जाती है और इस तरह के सुराग देने लगती है कि किस धातु का अनुपात बढ़ाने या घटाने से कैसे नतीजे मिल सकते हैं। 

यह सही है कि ऐसी चुनौतियां वैज्ञानिकों की तरफ सबसे ज्यादा या तो युद्ध सामग्री बनाने वाली कंपनियों की ओर से उछाली जाती हैं, या फिर स्पेस टेक्नॉलजी में सक्रिय संस्थानों की ओर से। हाइपरसोनिक मिसाइल के अगले हिस्से के लिए ऐसा पदार्थ चाहिए जो हवा की तीखी रगड़ के बीच ध्वनि की कई गुनी रफ्तार पर चलते हुए बनने वाले 2000 डिग्री सेल्सियस से भी ऊंचे तापमान पर न तो पिघले, न उसमें कोई ऐसी टेढ़ पैदा हो कि उसका रास्ता ही बदल जाए। लेकिन हाइपरसोनिक फाइटर प्लेन के लिए इसको थोड़ा और खास होना चाहिए। मिसाइल तो एक बार ही चलनी है, जबकि विमान को बार-बार उड़ाया जाना है। इसलिए इसके बाहरी ढांचे में काम आने वाली धातु न सिर्फ ज्यादा हल्की और ऊंचे तापमान पर किसी भी टेढ़ से परे होनी चाहिए, बल्कि उसे ज्यादा टिकाऊ भी होना चाहिए।

बहरहाल, मैटीरियल साइंस के चमत्कार और इसमें एआई की भूमिका सिर्फ वॉर और स्पेस टेक्नॉलजी तक सीमित नहीं है। आने वाले दिनों में दुनिया को नए सिरे से, खासकर ग्लोबल वॉर्मिंग रोकने की दिशा में कार्बन-मुक्त ढंग से गढ़ने में इसका बड़ा दखल दिखाई देने वाला है, जिसकी कुछेक झलकियों पर यहां हम चर्चा करेंगे। 2015 में हुए ऐतिहासिक पेरिस जलवायु सम्मेलन के लक्ष्य हासिल करने में दुनिया फिलहाल कामयाब होती नहीं दिख रही। राजनीति इस काम में फिसड्डी साबित हुई है लेकिन टेक्नॉलजी ने इस दिशा में काफी कुछ किया है। इन्हीं दस सालों में एलईडी बल्बों ने रोशनी के मद में बिजली की खपत नगण्य बना दी है। सोलर और विंड एनर्जी की संयुक्त सप्लाई भारत में न्यूक्लियर एनर्जी से ज्यादा है और 40 लाख सोलर पंपिंग सेटों ने गांवों में बिजली की मारामारी कम की है।

कार्बन कटौती में आगे दो मुख्य चुनौतियाँ सुपरकंडक्टिविटी और फ्यूजन एनर्जी की तरफ़ से आनी हैं और ये दोनों क्षेत्र बाकी शास्त्रों के अलावा सबसे मुश्किल सवाल मैटीरियल साइंस के सामने ही खड़े कर रहे हैं। फ्यूजन एनर्जी धरती पर सूरज और अन्य तारों में पैदा होने वाली ऊर्जा का दोहराव है। माना जा रहा है कि मौजूदा सदी आधी बीतने तक यह धरती पर कार्बन बेस्ड बिजली का क़िस्सा खत्म कर सकती है। यह दस करोड़ डिग्री सेल्सियस पर चलने वाली प्रक्रिया है और इससे जुड़े कम से कम उन्नीस क्षेत्र मैटीरियल साइंस से नई खोजों की गुहार लगा रहे हैं। 

सुपरकंडक्टिविटी 1911 की खोज है, जब पहली बार पाया गया कि पारे को ऐब्सोल्यूट जीरो यानी माइनस 273 डिग्री सेल्सियस के आसपास ठंडा करने पर बिजली उसमें बिना किसी रेजिस्टेंस के गुजर जाती है। तभी से वैज्ञानिक इस काम में लगे हुए हैं कि कैसे कोई ऐसी चीज खोजी या बनाई जाए, जो ज्यादा ठंडी न किए जाने पर भी बिजली को खुद में से बिना रेजिस्टेंस के गुजर जाने दे। ध्यान रहे, अभी दुनिया भर में पैदा होने वाली बिजली का लगभग आधा हिस्सा रेजिस्टेंस की भेंट चढ़ जाता है। फ़िलहाल प्रयोगों के दायरे तक सीमित फ्यूजन एनर्जी का तो सारा काम ही बहुत हाई वोल्टेज पर होता है, लिहाजा सस्ती सुपरकंडक्टिविटी हासिल करना उसके लिए साँस लेने जितना ज़रूरी है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस इस काम में मददगार साबित हो रही है, हालाँकि ब्रेकथ्रू मिलना अभी बाक़ी है।

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