द्रौपदी और कश्मीर : 'बहुमत' की मर्ज़ी के आगे दोनों लाचार
जम्मू-कश्मीर का विभाजन करने, उसको संघक्षेत्र यानी केंद्र शासित प्रदेश बनाने तथा अनुच्छेद 370 में दी गई व्यवस्था के तहत ही उसको कमज़ोर करने की कोशिश संविधान-सम्मत है या नहीं, इसपर दो राय हो सकती हैं और इसका अंतिम फ़ैसला सुप्रीम कोर्ट ही करेगा।
अनुच्छेद 370 को कमज़ोर करके और इसके तहत जम्मू-कश्मीर को मिली सीमित स्वायत्तता और अनुच्छेद 35ए के तहत वहाँ के ‘स्थायी निवासियों’ को मिले विशेषाधिकार समाप्त होने से राज्य और वहाँ की जनता को लाभ होगा या नुक़सान, इसपर भी दो राय हो सकती हैं और इसका भी अंतिम फ़ैसला यह देखने के बाद ही होगा कि आने वाले दिनों में कश्मीरियों के आर्थिक-सामाजिक हालात में सुधार होता है या बिगाड़।
जम्मू-कश्मीर के मामले में की गई यह केंद्रीय कार्रवाई ऐतिहासिक क़दम था या ऐतिहासिक भूल, इसपर भी दो राय हो सकती हैं और इसका भी अंतिम निर्णय अगले कुछ दिनों, महीनों और सालों में कश्मीर से आने वाली ख़बरें ही तय करेंगी।
ख़ुश होते तो जश्न मना रहे होते कश्मीरी
लेकिन एक बात ऐसी है जो बिल्कुल तय है और जिससे पक्ष-विपक्ष का कोई भी व्यक्ति इनकार नहीं कर सकता कि जम्मू-कश्मीर के मामले में केंद्र सरकार और संसद ने जो कुछ भी किया है, वह वहाँ की बहुसंख्यक जनता की रज़ामंदी से नहीं हुआ है। बल्कि यूँ कहना ज़्यादा सही होगा कि यह उनकी इच्छा के विरुद्ध हुआ है।
तभी तो भारत सरकार ने पूरे कश्मीर को संगीनों की नोक पर तालों में बंद कर दिया है। न कोई घऱ से निकल सकता है, न किसी से फ़ोन पर बात कर सकता है, न बाहर की ख़बरें जान सकता है। यदि कश्मीरी इस क़दम से ख़ुश होते तो उनको इस तरह बंद करने की ज़रूरत नहीं होती। आज वे सड़कों पर निकलकर जश्न मना रहे होते।
किसी बीमारी का यह कैसा इलाज?
सरकार कह सकती है कि कश्मीरियों का व्यवहार वैसा ही है जैसा उस बच्चे का होता है जो कोई कड़वी दवा नहीं पीना चाहता हालाँकि वह उसकी सेहत के लिए अच्छी है और ऐसे में उस बच्चे के साथ ज़बरदस्ती करनी ही पड़ती है। लेकिन पहला सवाल तो यह कि यह कड़वी दवा उस बच्चे के लिए फ़ायदेमंद है, यह कौन तय करेगा? भारत सरकार के गृह मंत्री या जम्मू-कश्मीर की जनता और वहाँ के नेता? सालों पहले वहाँ की जनता, वहाँ के नेताओं और वहाँ के महाराजा ने ही तय किया था कि अनुच्छेद 370 और अनुच्छेद 35ए राज्य और राज्य के निवासियों के हित में है और भारत सरकार द्वारा उनको यह दवा दी गई थी। तो आज ये नए डॉक्टर किस आधार पर यह दावा कर रहे हैं कि अब तक जो दवाई दी जा रही थी, वह ग़लत थी और इस दवाई को छोड़ते और नई दवाई पीते ही वह स्वस्थ हो जाएगा ख़ासकर तब जब बच्चे के माता-पिता भी इसका विरोध कर रहे हैं?
जब बीमार पिछली दवा की शिकायत ही नहीं कर रहा, उसके माता-पिता को कोई गिला-शिकवा नहीं है तो कोई भी डॉक्टर कैसे कह सकता है कि नहीं, बच्चे को यह दवा छोड़नी होगी और यह नई दवा पीनी होगी? एक ऐसी दवा जिसको पहले कभी परखा नहीं गया है! क्या ऐसा नहीं हो सकता कि यह नई दवा उसके लिए और नुक़सानदेह साबित हो और इसके कारण अपने होशोहवास और मानसिक संतुलन खो दे! अभी तो उसके हाथ-पाँव बाँध रखे हैं लेकिन कभी तो उनको खोलना होगा। तब वह क्या करेगा?
जो बात मेडिकल सिस्टम में लागू होती है कि आप किसी का ज़बरदस्ती इलाज नहीं कर सकते, वही लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था में भी लागू होती है। क्या कश्मीर में जो हो रहा है, वह लोकतांत्रिक तरीक़े से हो रहा है?
जवाब में कोई कह सकता है कि हाँ, कश्मीर के मामले में जो किया जा रहा है, वह लोकतांत्रिक तरीक़े से और भारतीय संविधान के उपबंधों के अनुसार ही किया जा रहा है। भारत के दोनों सदनों में उसे दो-तिहाई से ज़्यादा समर्थन मिला है, और संसद से बाहर सड़कों पर भी 'भारत की जनता' का उसे भरपूर समर्थन मिल रहा है, यही बताता है कि सबकुछ जनता की इच्छा से हो रहा है।
क्या लोकतंत्र का अर्थ बहुमत की तानाशाही है?
इस दलील के बाद हमारे उदाहरण में कुछ और पात्र प्रवेश करते हैं। वे हैं आस-पड़ोस के लोग। बच्चे को जो दवा पिलाई जा रही है और जो उसके माता-पिता के विरोध के बावजूद पिलाई जा रही है, उसका कारण यह है कि आस-पड़ोस के लोग लंबे अर्से से यह चाह रहे थे कि बच्चे को यह दवाई पिलाई जाए। यानी मुहल्ला तय कर रहा है कि किसी घर में किसी बच्चे का इलाज किस तरह होना चाहिए! क्या लोकतंत्र इसी का नाम है? क्या लोकतंत्र का अर्थ बहुमत की तानाशाही है? क्या बहुमत जो खाता-पीता है, जैसे रहता-जीता है, जैसे पूजा-अर्चना करता है, वही सारे देश को करना होगा?
द्रौपदी पर भी हुआ था ऐसा ही फ़ैसला!
सदियों पहले ‘लोकतांत्रिक बहुमत’ के आधार पर ऐसा ही एक फ़ैसला हुआ था जब एक राजकुमार अपनी धनुर्विद्या के बल पर एक राजकुमारी का वरण करके आया था और बाद में माँ और बाक़ी भाइयों ने मिलकर उस राजकुमारी को सभी की अर्धांगिनी बना दिया।
कश्मीर में आज सदियों पहले की वही घटना दोहराई जा रही है। फ़र्क बस इतना है कि जब कुंती और उनके चार बेटों ने यह फ़ैसला अर्जुन और द्रौपदी पर थोपा था, तब संभवतः उन्होंने अर्जुन के हाथ-पैर नहीं बाँधे थे और न ही द्रौपदी के मुँह में कपड़ा ठूँसा गया था। लेकिन आज कश्मीर में वही हो रहा है।
मुँह में कपड़ा ठूँसकर और हाथ-पैर बाँधकर क्या किया जाता है, यह आप भी जानते हैं और मैं भी।