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बहुसंख्यकवाद के दौर में धैर्य और अधैर्य पर गाँधी ने क्या कहा था?

बहुसंख्यकवाद के दौर में धैर्य और अधैर्य पर गाँधी ने क्या कहा था?

कब धैर्य रखना चाहिए और कब नहीं, यह सवाल बार-बार उठा है और बहुसंख्यकवाद के दौर में ज़्यादम अहम है। महात्मा गाँधी ने इस मुद्दे पर अपने बड़े बेटे से क्या कहा था?

'हम भारतीय पर्याप्त बेसब्र नहीं हैं', इस बार की अपनी भारत यात्रा में  मशहूर अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन ने यह शिकायत की। बुज़ुर्ग सब्र की नसीहत देते पाए गए हैं, लेकिन हमारा यह बुज़ुर्गवार अध्यापक हमें अधैर्य की शिक्षा दे रहा है। ज्यां द्रेज़ के साथ अपनी पिछली किताब में भारत की दुर्दशा का वर्णन करने के बाद उन दोनों ने एक अध्याय लिखा,'बेसब्री की ज़रूरत'। सेन ज़िंदगी का लंबा हिस्सा भारत से बाहर गुजारने के बावजूद मानसिक रूप से भारत में रहते आए हैं। वे विश्व नागरिक हैं, रवीन्द्रनाथ टैगोर की परम्परा में, इंग्लेंड और अमरीका में लंबा वक़्त गुज़ारा है लेकिन भावनात्मक तौर पर वे भारत के ही नागरिक बने रहे हैं। भारत की जनता की वे आवाज़ हैं और इसकी परवाह उन्होंने नहीं की है कि वे अपने कद की ग़रिमा बनाए रखने के लिए संतुलित और संयमित होकर बोले। 

वस्तुपरक और निष्पक्ष होने की मांग अक्सर बुद्धिजीवियों से की जाती रही है। सेन वस्तुपरकता को समस्याग्रस्त अवधारणा मानते हैं और उसपर विचार करने की आवश्यकता महसूस करते हैं। संतुलित, वस्तुपरक और धैर्यवान, बौद्धिक को ऐसा ही होना चाहिए। राजसत्ता या कोई भी सत्ता धैर्य को सबसे बड़े नागरिक गुण के रूप में प्रचारित करना चाहती है। इस धैर्य से अनुशासन का बड़ा रिश्ता है। हालाँकि साहित्य अक्सर इसके ख़िलाफ़ रहा है। 'गार्डियन' अख़बार को अपने इंटरव्यू में अमर्त्य सेन क़ाज़ी नजरुल इस्लाम को उद्धृत करते हैं, “'धैर्य निराशा का लघु रूप है, जिसे गुण की तरह पेश किया जाता है।' 

भारत में राजनीति में अधैर्य के शिक्षक के रूप में राम मनोहर लोहिया को याद किया जाता है, जिन्होंने कहा था कि जिंदा क़ौमें पाँच साल इंतज़ार नहीं किया करती हैं।

हालातों से तालमेल बिठाना विवेकवान के लक्षण

अधैर्य का गहरा रिश्ता संदेह से है। जो सत्य प्रस्तुत किया जा रहा है, उस पर शक करने से। आश्चर्य नहीं कि सरकारें आपसे ख़ुद पर विश्वास करने के लिए कहती हैं। जो वे कह रही हैं, उनकी परीक्षा करने के लिए नहीं! बर्तोल्त ब्रेख्त की एक कविता याद आती है, 'मैं तुम्हें सलाह दूँगा उस शख़्स की इज्ज़त करने की जो तुम्हारी बात की जाँच करता है जैसे खोटे सिक्के को परख़ रहा हो।' संदेह की प्रशंसा में लिखी गई इस कविता में वे आगे लिखते हैं, 'ऐसे विचारहीन हैं जो कभी शक नहीं करते या उनका हाजमा शानदार है..वे संदेह करते हैं किसी नतीजे पर पहुँचने के लिए नहीं, बल्कि फैसले को टालने के लिए।' ऐसे लोग हमेशा ही इंतजार करने की सलाह देते हैं, उनके लिए स्थिति विचार-विमर्श के लिए कभी परिपक्व नहीं होती। 

इसलिए कवि का मश्विरा है, 'अगर तुम संदेह की प्रशंसा करो तो उस संदेह की नहीं जो निराशा का एक रूप है। उस आदमी के लिए संदेह की लियाक़त का क्या फ़ायदा जो कभी कुछ तय ही न कर पाता हो वह जो कम ही वजहों से संतुष्ट हो जाता है, ग़लती कर सकता है। लेकिन जिसे ढेर सारे कारण चाहिए वह ख़तरे में भी निष्क्रिय रहता है।' संदेह न करना, धीरज धरना और जो हालात हैं उनसे तालमेल बैठा लेना, ये ‘विवेकवान’ लोगों के लक्षण हैं। 'जेहि बिधि राखे राम तेहि बिधि रहिए', यह जीवन का संचालक सूत्र बन जाता है। ऐसे लोग और ऐसी जनता अपने साथ हो आ रही नाइंसाफी में भी अच्छाई खोज लेती है। ऐसे लोग अक्सर उदासीन रहते हैं जो कुछ भी घट रहा है, चारों ओर ही नहीं, ख़ुद उनके साथ भी। 

उदासीनता

महमूद दरवेश अपनी एक कविता में ऐसे एक उदासीन व्यक्ति के दर्शन के बारे में लिखते हैं, 'उसे किसी चीज़ से फ़र्क़ नहीं पड़ता। अगर वे उसके घर का पानी काट दें, वह कहेगा, 'कोई बात नहीं, जाड़ा क़रीब है।' और अगर वे घंटे भर के लिए बिजली रोक दें वह उबासी लेगा, 'कोई बात नहीं, धूप काफ़ी है' अगर वे उसकी तनख़्वाह में कटौती की धमकी दें, वह कहेगा, 'कोई बात नहीं! मैं महीने भर के लिए शराब और तमाखू छोड़ दूँगा। और अगर वे उसे जेल ले जाएँ, तो वह कहेगा, 'कोई बात नहीं, मैं कुछ देर अपने साथ अकेले रह पाऊँगा, अपनी यादों के साथ।' और अगर उसे वे वापस घर छोड़ दें, वह कहेगा, 'कोई बात नहीं, यही मेरा घर है।' 

मैंने एक बार ग़ुस्से में कहा उससे, कल कैसे रहोगे तुम” उसने कहा, 'कल की मुझे चिंता नहीं। यह एक ख़याल भर है जो मुझे लुभाता नहीं। मैं हूँ जो मैं हूँ। कुछ भी बदल नहीं सकता मुझे, जैसे कि मैं कुछ नहीं बदल सकता, इसलिए मेरी धूप न छेंको।' मैंने उससे कहा, न तो मैं महान सिकंदर हूँ और न तुम डायोजिनिस” और उसने कहा, “लेकिन उदासीनता एक फ़लसफ़ा है यह उम्मीद का एक पहलू है।' धीरज, संदेहहीनता, उदासीनता और निष्क्रियता का आपस में गहरा रिश्ता है। 

कब धीरज धरना चाहिए और किस स्थति में एक पल का धीरज भी घातक हो सकता है, शिक्षा का दायित्व लोगों में इसी विवेक को जाग्रत रखना है।

अमरीका में डोनल्ड ट्रम्प के राष्ट्रपति चुने जाते ही वहां के बौद्धिक जगत और मीडिया में उनकी कठोर आलोचना आरम्भ हो गई। इसकी तुलना अगर भारत में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर होने वाली सार्वजनिक प्रतिक्रिया से करें तो यह दिखता है कि अत्यंत तीक्ष्ण बुद्धिसंपन्न और विवेकवान लोगों ने भी उसमें आशा देखी। अपने संदेह को, अगर वह था, उन्होंने स्थगित किया। अपनी इस सहनशीलता या स्वागतभाव के लिए तर्क उनका अकाट्य था। आख़िरकार यह जनता का चुनाव था, उसपर संदेह करके वे जनता का अपमान कैसे कर सकते थे! आप किससे उम्मीद कर सकते हैं और किससे नहीं, यह कैसे तय करें कब आपको धीरज की आड़ न लेनी चाहिए, इसका निर्णय आपके मूल्य बोध से होता है।

धैर्य और अधैर्य

जनवरी के इस महीने में धैर्य और अधैर्य पर एक असाधारण संवाद की याद आती है, एक पिता पुत्र के बीच। अठहत्तर साल के वृद्ध पिता ने जब 12 जनवरी,1948 को अनिश्चितकालीन उपवास करने का फैसला किया तो पुत्र ने उन्हें स्नेह से, लेकिन सख्त पत्र लिखा। पुत्र ने पिता पर आरोप लगाया कि वे धीरज छोड़ रहे हैं जिसकी सलाह वे ख़ुद जीवन भर दूसरों को देते रहे थे। उपवास का निर्णय उनके अधैर्य का सबूत था। पिता ने पुत्र की शुभाकांक्षा के लिए उन्हें धन्यवाद देते हुए कहा कि निर्णय में जल्दी दिख सकती है, लेकिन वह हड़बड़ी नहीं है। उन्होंने कहा कि अगर हिंदू, सिख हिंसा छोड़ने की उनकी अपील सुनने को तैयार नहीं हैं तो उनके उनके आगे और धीरज का कोई अर्थ नहीं है। अपने भीतर की नन्हीं आवाज़ को वे नज़रअंदाज कर रहे थे, लेकिन उसे और अनसुना करना अब उनके लिए संभव न था। उपवास का निर्णय अपने बुनियादी मूल्य की रक्षा के लिए करना ही था। धैर्य और अधैर्य को लेकर यह संवाद पुत्र देवदास गाँधी और पिता मोहनदास करमचंद गाँधी के बीच का है। उसी अधीर गाँधी के जन्म के हम डेढ़ सौवें साल में हम हैं। बहुसंख्यकवाद के प्रति अपने अधैर्य के चलते अपनी जान गँवानेवाले गाँधी की ह्त्या के सत्तर साल भी पूरे हुए। हमें भी धैर्य और अधैर्य में चुनाव करना है।

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