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आप रौंदे जा चुके हैं और आपको अंदाज़ा ही नहीं है 

आप रौंदे जा चुके हैं और आपको अंदाज़ा ही नहीं है 

मवेशियों के अनियंत्रित झुंड की तरह यह भीड़ भाग रही है। आप एक कोने में खड़े होकर बड़े गर्व से कह रहे हैं-हाई हेट पॉलिटिक्स। आप रौंदे जा चुके हैं, लेकिन आपको अंदाज़ा नहीं है। 

क्या आपको पुराने ज़माने के एंटी-स्मोकिंग पोस्टर याद हैं? धुएं का दृश्य होता था और एक लाइन में लिखा होता था.. सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकार है। वक्त बदला तो पोस्टरों को अंदाज़ बदल गये—कंकाल, खोपड़ी और कैंसर से ग्रसित फेफड़े और विकृत हुए चेहरों की तस्वीरें दिखाई जाने लगीं।

पूरी दुनिया में सिगरेट बनाने वाली कंपनियों को लिए बकायदा नियम हैं कि सिगरेट के पैकेट के बड़े हिस्से पर उन्हें डरावनी तस्वीरें लगानी होंगी।

दफ्तर या घर में लगे पोस्टर 'सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है' का मजमून भी बदल गया। हिंदी -अँग्रेजी समेत दुनिया की तमाम भाषाओं में लिखा जाने लगा    'आपकी स्मोकिंग मेरे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।'

'पैसिव डिशिज़न मेकिंग' 

ये बदलाव इसलिए आया क्योंकि सभ्य होती मानव जाति ने महसूस किया कि पूरी दुनिया में हर साल जितने लोग स्मोकिंग से मरते हैं, उससे कई गुना ज्यादा लोग पैसिव स्मोकिंग से मरते हैं।  ये वो अभागे लोग होते हैं, जो दुखी होकर कहते हैं कि मुझमे कोई ऐब नहीं था, फिर भी जाने कैसे फेफड़े का कैंसर हो गया।

लोकतांत्रिक समाज में भी ऐसा ही होता है। समाज का बड़ा हिस्सा अपनी 'पैसिव डिशिज़न मेकिंग' की वजह से मरता है। आइये इस बात को थोड़ा विस्तार से समझते हैं। 

लोकतांत्रिक व्यवस्था में भले ही आप किसी खास पार्टी को वोट दे या ना दें मगर चुना गया नेता आपका भी नेता होता है और आपकी जिंदगी की डोर उसके फैसलों से बंधी होती है। यह माना जाता है कि फ़ैसला सामूहिक विवेक से हुआ है, इसलिए ठीक ही हुआ होगा।

सभ्य देशों में ऐसा होता भी है। वे इस बात पर मतदान करते हैं कि मानव जीवन को बेहतर बनाने के लिए कौन सा रास्ता ज्यादा अच्छा होगा। आप अल्पमत में भी हैं तो कोई बात नहीं, क्योंकि आपकी आवाज़ सुनी जाती है। 

मगर बडा वोटर समूह अगर घोषित तौर पर विवेक विरोधी हो और इस बात का गर्व महसूस करे तब? ऐसी स्थिति में आपका बेकाबू हुई उन्मादी और अनियंत्रित भीड़ के पैरो तले आपका रौंदा जाना अवश्यंभावी है।

विवेक विरोधी भीड़ 

 विवेक विरोधी भीड़ का इकट्ठा होना समाज के फासिस्ट होने की पहली और अनिवार्य शर्त है। अपना न्यू इंडिया यह शर्त बखूबी पूरी करता है। 

आपकी आँख एक व्हाट्स एप मैसेज से खुलती है, जिसमें यह लिखा होता है 'पूछते हो कि शिक्षा और स्वास्थ्य पर बात क्यों नहीं होती। पहले कांग्रेस की तरह 70 साल होने दो फिर बात करेंगे।'

आपकी दिमाग की नसें और झनझानती हैं जब आपको पता चलता है कि ये व्हाट्सऐप फॉरवर्ड आपके शिकारपुर वाले  साले साहब या मैट्रिक फेल मामा ने भेजा है। 

 - Satya Hindi

आप तो पूरी धौंस में थे और कह रहे थे कि मौजूदा राजनीति इतनी घटिया है कि मैंने वोट ही नहीं दिया या फिर नोटा में मुहर मारकर आया हूँ। अब झेलिये! क्या भाग्यविधाता भीड़ इस आधार पर आपको बख्शने को तैयार है?

2014 में 'भारत को सिंगापुर बनाने के आइडिया' और 2019 में घर में 'घुसकर मारने के नाम पर' वोट देने वाले जब कभी अपनी मिमियाती आवाज़ में सिस्टम पर सवाल उठाते हैं तो बदले में उन्हें भी माँ-बहन की गालियाँ मिलती हैं।

नफ़रत की राजनीति

ऐसा इसलिए है क्योंकि जो भीड़ बनाई गई है, उसकी जेहनी ट्रेनिंग में नफ़रत के सिवा कोई और दूसरा शब्द नहीं है। अगर उसे छोटी नफ़रत और बड़ी नफ़रत में एक चुनना होगा तो वह बड़ी नफ़रत चुनेगा। 

देश भर में दंगे करवाकर राष्ट्रीय राजनीति में स्थापित हुए लालकृष्ण आडवाणी जब बार-बार बेइज्ज़त होकर राष्ट्रीय परिदृश्य से किनारे किये गये तो उनके लिए उन लोगों के मुंह से भी एक शब्द नहीं निकला जो कभी उन्हें भगवान मानते थे।

वजह यह है कि फैन आडवाणी से प्रेम नहीं करते थे बल्कि उन्हें अपने नफ़रत के कस्टोडियन के रूप में देखते थे। अब ज्यादा बड़ा कस्टोडियन मिल गया है तो आडवाणी की ज़रूरत खत्म हो गई। नफ़रत के और बडे सौदागर के पटल पर स्थापित होते ही इस भीड़ के लिए मौजूदा डिक्टेटर की भी ज़रूरत खत्म हो जाएगी। 

पिछले सात साल में एक ऐसा वोटर समूह पनपा है, जो अपने नेता को काम करने नहीं बल्कि काम ना करने के लिए वोट दे रहा है और इस बात पर गर्व महसूस कर रहा है। वह सत्ता तंत्र के हर अनाचार को यह कहते हुए डिफेंड कर रहा है कि क्या पहले ऐसा नहीं हुआ है?

सोच समझ को मिटाने की नीति 

यह समूह आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस वाले किसी रोबो की तरह व्यवहार कर रहा है। भीड़ के आका को पता है कि पढ़े-लिखे लोग रास्ते में सबसे बड़ी रुकावट है। इसलिए अनपढ़ होने और विवेकहीन होने का महिमामंडन इतना कर चुका है कि इंटलेक्चुल शब्द सुनते ही भीड़ को दौरा पड़ता है और वो हर सोचने-समझने वाले आदमी को मिटा देने पर आमादा हो जाता है। 

इस भीड़ को अपने पड़ोसी मुसलमान को दुश्मन के तौर देखने के लिए प्रोग्राम किया गया है। अगर पड़ोस में मुसलमान नहीं मिलता तो वो रिश्तेदारों में ही किसी को मुसलमान बनाकर काम चला लेता है।

मवेशियों के अनियंत्रित झुंड की तरह यह भीड़ भाग रही है। आप एक कोने में खड़े होकर बड़े गर्व से कह रहे हैं-हाई हेट पॉलिटिक्स। आप रौंदे जा चुके हैं, लेकिन आपको अंदाज़ा नहीं है। 

ये भीड़ पहले 35 फीसदी थी और अब 45 परसेंट है।  पागलों की भीड़ 95 प्रतिशत भी हो जाये तब भी मैं उसे अपना भाग्य विधाता बनने की इजाज़त नहीं दूंगा।

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