नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के ख़िलाफ़ दिल्ली के शाहीन बाग़ में 70 दिन से चल रहे प्रदर्शन में उच्चतम न्यायालय की मध्यस्थता बेनतीजा होती दिख रही है। यह प्रदर्शन शांतिपूर्ण और अहिंसक है। प्रदर्शनकारियों ने प्रदर्शन स्थल पर महात्मा गांधी से लेकर मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और डॉ. बी.आर. अंबेडकर की फ़ोटो लगा रखी हैं। प्रदर्शन को गांधीवादी सत्याग्रह से भी जोड़ा जा रहा है। ऐसे में यह देखना ज़रूरी है कि गांधीवादी सत्याग्रह क्या होता है और शाहीन बाग़ के प्रदर्शनकारियों को आगे क्या करना चाहिए।
शाहीनबाग़ के प्रदर्शनकारियों की मांग है कि सीएए वापस लिया जाए। गृह मंत्री अमित शाह ने साफ घोषणा कर दी है कि किसी भी हाल में सीएए वापस नहीं लिया जाएगा। सरकार ने अपने वकील के माध्यम से उच्चतम न्यायालय में यह भी कहलवाया कि उसके फ़ैसले से ऐसा नहीं लगना चाहिए कि एक धरने के सामने संवैधानिक संस्थाएं झुक गई हैं। शीर्ष न्यायालय ने भी कह दिया कि प्रदर्शन करिए, लेकिन किसी दूसरे के काम में व्यवधान नहीं पड़ना चाहिए।
अगर हम गांधी के सत्याग्रह को देखें तो वह कहते हैं, “सत्याग्रही का अन्यायी को परेशान करने का इरादा कभी नहीं होता। वह उसे डराना भी नहीं चाहता। वह हमेशा उसके हृदय से अपील करता है। सत्याग्रही का उद्देश्य अन्याय करने वाले को दबाना नहीं, बल्कि उसका हृदय परिवर्तन करना होता है।” (सर्वोदय, लेखक- मोहनदास करमचंद गांधी, पेज 93)
शाहीन बाग़ के मामले में केंद्र सरकार का हृदय परिवर्तन होता नहीं दिख रहा है। केंद्र सरकार अंग्रेजों से भी बदतर लग रही है, जो किसी भी हाल में शाहीन बाग़ के प्रदर्शनकारियों से मिलना नहीं चाहती है। ऐसे में क्या अभी कुछ दिन तक और प्रदर्शन को जारी रखने पर सरकार का हृदय परिवर्तन हो सकता है फिलहाल अभी ऐसा कुछ नज़र नहीं आ रहा है।
सत्याग्रहियों के नियम बताते हुए गांधी कहते हैं कि सत्याग्रह करने वालों को अपने सेनापति के आदेशों का दिल से पालन करना चाहिए। साथ ही उन्होंने सत्याग्रह का ढंग भी बताया है। हरिजन में प्रकाशित 27 मई 1939 के एक लेख में वह कहते हैं, “सत्याग्रह के आंदोलन में लड़ाई का तरीक़ा और रणनीति का चुनाव- अर्थात आगे बढ़ें या पीछे हटें, सविनय क़ानून भंग करें या रचनात्मक कार्य तथा शुद्ध निःस्वार्थ मानव सेवा के द्वारा अहिंसक बल संगठित करें, आदि बातों का निर्णय परिस्थिति की विशेष आवश्यकताओं के अनुसार किया जाता है।”
गांधी ने वापस लिया असहयोग आंदोलन
इन नियमों का पालन गांधी ने भी किया। 1922 का असहयोग आंदोलन चरम पर था। पूरे देश में लोग आंदोलित थे। चौरी-चौरा कांड होने के बाद अचानक गांधी ने असहयोग आंदोलन वापस लेने का फ़ैसला किया। वह आंदोलन अंग्रेजों के ख़िलाफ़ चले उस समय के आंदोलनों में सबसे व्यापक था। नेहरू सहित तमाम कांग्रेसियों को इससे निराशा हुई कि गांधी ने आंदोलन क्यों वापस ले लिया।
गांधी सत्ता की ताक़त और जनता द्वारा प्रतिरोध करने की क्षमता से संभवतः सबसे ज्यादा वाकिफ थे। भूखी-प्यासी जनता की एक सीमा होती है कि वह अपना घर-द्वार, बाल-बच्चों को छोड़कर कितने दिन तक प्रतिरोध कर सकती है।
गांधी ने यह अनुमान लगा लिया कि आंदोलनकारियों में गुस्सा भी फैल रहा है और एक वर्ग निराश भी हो रहा है कि इस आंदोलन से क्या होने वाला है। ऐसे में जब असहयोग आंदोलन चरम पर था, उसी समय गांधी ने चौरी-चौरा के बहाने इसे वापस ले लिया।
असहयोग आंदोलन की तुलना में शाहीन बाग़ का आंदोलन छोटा है। शुरुआत में इस आंदोलन को लेकर बहुत उत्साह था और देश भर में कई इलाक़ों में शाहीन बाग़ जैसे प्रदर्शन शुरू हुए। दिल्ली के तमाम इलाक़ों से भी लोग प्रदर्शन में शामिल होने जाते थे। लेकिन लंबा खिंच जाने के बाद आम नागरिक कम ही मिलेंगे जो बार-बार वहां जाकर समर्थन करें। लोग इसे सुनते-सुनते यथास्थितिवादी हो रहे हैं।
केंद्र सरकार भी तमाम कवायदें कर रही है, जिससे वह यह बता सके कि यह आंदोलन कुछ स्वार्थी लोग कर रहे हैं। आंदोलन में फूट पड़ गई है और इसका असर भी आंदोलन के प्रति सहानुभूति रखने वाले लोगों के मन पर पड़ रहा है। साथ ही सड़क बंद होने, आसपास की दुकानों का कारोबार ख़राब होने से स्थानीय लोगों में भी आंदोलन को लेकर गुस्सा पैदा करने में शासन कामयाब दिख रहा है।
इससे पहले इरोम शर्मिला ने पूर्वोत्तर राज्यों में सेना को विशेषाधिकार दिए जाने को लेकर सबसे लंबा आमरण अनशन किया था। गांधी आमरण अनशन को सत्याग्रह का अभिन्न अंग मानते थे।
गांधी चाहते थे कि आत्मपीड़न के माध्यम से अन्यायी के उत्तम गुणों को जगाया जाए। उनका मानना था कि आत्मपीड़न अत्याचारी के दैवी स्वभाव को जगाता है जबकि प्रतिशोध उसकी आसुरी वृत्तियों को जगाता है। उपवास को अहिंसा के पुजारी का आख़िरी हथियार बताते हुए गांधी कहते हैं, “लोगों के जीवन पर ऐसे कर्म का प्रभाव यह होता है कि अगर उपवास करने वाला उसका परिचित हो तो उसका सोया हुआ अंतःकरण जाग उठता है।”
लेकिन इरोम शर्मिला के उपवास से किसी का अंतःकरण नहीं जागा। सरकार समय-समय पर उन्हें अस्पतालों में भर्ती कराकर नाक से पोषक तत्व ठूंसती रही और उन्हें जिंदा रखा। इरोम के उपवास से न तो किसी की अंतरात्मा जागी, न आसुरी वृत्तियों का खात्मा हुआ।
अनशन से लोगों को जगाते थे गांधी
गांधी अनशन का इस्तेमाल आत्मशुद्धि के साथ अपने समर्थक-परिचितों को जगाने के लिए करते थे। ऐसा लगता है कि अंग्रेज सरकार इसलिए डर जाती थी कि अगर गांधी के करोड़ों समर्थक जाग गए तो वे क़ानून व्यवस्था और सरकार के लिए मुसीबत बन सकते हैं। वहीं, अगर आपके परिचित, आपके फॉलोवर कम हैं और आपके अनशन से नए लोग भी आपके मक़सद से नहीं जुड़ रहे हैं तो अनशन के कोई मायने नहीं हैं और इस तरह के उपवास निरर्थक हैं।
देश की आज़ादी के बाद अलग तेलुगु राज्य की मांग को लेकर 19 अक्टूबर, 1952 को पोट्टी श्रीरामुलू उपवास पर बैठे थे और 15 दिसंबर, 1952 को उनकी मौत हो गई थी। हालांकि उनका असर इतना था कि नेहरू सरकार का व्यापक विरोध शुरू हो गया और उनकी मौत के बाद अलग राज्य का गठन करना पड़ा। लेकिन इरोम शर्मिला के उपवास का कोई असर नहीं हुआ। उत्तराखंड में गंगा की शुद्धि की मांग को लेकर उपवास पर बैठे आईआईटी के प्रोफ़ेसर जीडी अग्रवाल की मौत हो गई, लेकिन सरकार पर कोई फर्क नहीं पड़ा।
गांधी का सत्याग्रह, उपवास बहुत सोची-समझी रणनीति थी। स्वाभाविक रूप से इसका मकसद जान देना नहीं था। सत्याग्रह और उपवास को व्यापक जनसमर्थन मिले, तभी वह कारगर और समाज के लिए उपयोगी हो सकता है।
गांधी ने कई सत्याग्रह किए, उपवास किए। मौक़ा मिलते ही वह उपवास और सत्याग्रह ख़त्म भी कर देते थे और आगे की रणनीति तैयार करने के लिए रचनात्मक कार्य में लग जाते थे।
शाहीन बाग़ के प्रदर्शनकारियों को भी गांधी से सीखने की ज़रूरत है। लोगों के यथास्थितिवादी होने के साथ ही सरकार ने भी प्रदर्शन को लेकर तमाम संदेह पैदा कर दिए हैं, जिससे इसे कमजोर किया जा सके। ऐसे में अब यह उचित वक्त है कि प्रदर्शन को समाप्त कर रचनात्मक कार्य किया जाए और नागरिकता क़ानून को लेकर जनजागरूकता और रचनात्मक कार्यों पर जोर दिया जाए।
एक सड़क पर प्रदर्शन करते रहने से कोई परिणाम निकलता नहीं दिख रहा है। न तो इससे देश भर में कोई तूफान उठने वाला है और न ही सरकार को इस प्रदर्शन की कोई चिंता है।
इस आंदोलन को लेकर सरकार दो विकल्प अपना सकती है- पहला, वह सड़क को बंद रहने दे और प्रदर्शनकारियों को वहीं अनंतकाल तक बैठे रहने दे। दूसरा, सरकार पुलिस बल का इस्तेमाल कर प्रदर्शनकारियों को खदेड़ दे। ये दोनों ही स्थितियां प्रदर्शनकारियों के लिए अच्छी और सम्मानजनक नहीं हैं।