एंटी बीजेपी फ्रंट के लिए जुटेंगे विपक्षी दल, कांग्रेस को रखेंगे दूर
जीत के रथ पर सवार मोदी सरकार को हराने के लिए विपक्ष आख़िर कब एकजुट होगा, यह सवाल पिछले लोकसभा चुनाव से पहले भी जोर-शोर से पूछा गया था। तब विपक्षी एकता की हज़ार कोशिशें की गईं, तेलंगाना के सीएम केसीआर और आंध्र प्रदेश के पूर्व सीएम चंद्रबाबू नायडू तमाम विपक्षी नेताओं से मिले, लेकिन एनडीए के ख़िलाफ़ क्षेत्रीय दलों का कोई ऐसा राष्ट्रीय गठबंधन नहीं बन पाया, जिसमें सभी दलों की भागीदारी हो।
2019 का चुनाव जीतने के बाद मोदी सरकार हिन्दुत्व के एजेंडे पर तेज़ी से आगे बढ़ी है। सीएए-एनआरसी और एनपीआर के अलावा राम मंदिर निर्माण, धारा 370 के मसले पर उसने बेहद आक्रामक रूख़ दिखाया है।
तानाशाही का लगा आरोप
सीएए-एनआरसी के ख़िलाफ़ पिछले साल शुरू हुआ जनांदोलन कोरोना महामारी के कारण बिखर गया और सरकार ने राहत की सांस ली। लेकिन उस दौरान बीजेपी नेताओं ने सीएए के ख़िलाफ़ चल रहे आंदोलनों को जिस तरह बदनाम करने की कोशिश की, योगी सरकार की पुलिस ने मुसलमानों को पीटा, उससे बीजेपी की केंद्र व राज्य सरकारों को तानाशाह कहा गया।
एजेंसियों का बेजा इस्तेमाल
मोदी सरकार विपक्षी दलों के नेताओं के ख़िलाफ़ सीबीआई, ईडी और इनकम टैक्स जैसी नामी एजेंसियों के इस्तेमाल को लेकर सवालों के घेरे में भी है और बदनाम भी हो चुकी है। हालात ये हैं कि सरकार के साथ खड़े पत्रकार अर्णब गोस्वामी के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वाले विपक्षी विधायकों के घर और दफ़्तरों पर ईडी रेड मार रही है।
किसान आंदोलन जोरों पर
ताज़ा हालात में कृषि क़ानूनों को लेकर देश की सियासत गर्म है। ख़ुद को किसानों का हितैषी बताने वाली मोदी सरकार ने इन क़ानूनों को बनाने से पहले किसानों के किसी संगठन, किसी प्रतिनिधिमंडल से कोई बात तक नहीं की। अध्यादेश आने से लेकर क़ानून बनने तक किसान चेताते रहे कि सरकार इन्हें वापस ले ले लेकिन जीत के नशे में चूर मरकज़ी सरकार ने किसी की नहीं सुनी।
कांग्रेस के ताज़ा हालात पर देखिए चर्चा-
मोदी सरकार और बीजेपी पर आरोप लगता है कि तानाशाही के साथ ही वे हिंदू मतों के ध्रुवीकरण के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। यह हाल में फिर दिखा जब तेलंगाना बीजेपी के अध्यक्ष बंडी संजय कुमार ने कहा कि हैदराबाद में अगर बीजेपी जीती तो पुराने हैदराबाद में सर्जिकल स्ट्राइक की जाएगी।
सरकार की तानाशाही और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वालों को पाकिस्तानी, देशद्रोही और इन दिनों खालिस्तानी कहा जा रहा है। ऐसे हालात में एक मजबूत विपक्ष की ज़रूरत बेहद शिद्दत से महसूस की जा रही है, जो हिंदुस्तान के सेक्युलर मिजाज को जिंदा रख सके।
फिर शुरू हुई कोशिश
2019 के चुनाव से पहले शुरू हुई कोशिश एक बार फिर परवान चढ़ने जा रही है। कई राज्यों में सरकार चला रहे या चला चुके क्षेत्रीय दलों को साथ लेकर बीजेपी के ख़िलाफ़ एक नेशनल फ्रंट या बड़ा मोर्चा बनाने पर विचार चल रहा है। इसमें टीएमसी प्रमुख ममता बनर्जी, टीआरएस प्रमुख केसीआर, शिव सेना प्रमुख उद्धव ठाकरे, एनसीपी प्रमुख शरद पवार, बीजेडी मुखिया नवीन पटनायक, एसपी अध्यक्ष अखिलेश यादव, शिरोमणि अकाली दल प्रमुख सुखबीर सिंह बादल और जेडीएस के नेता और पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा को शामिल करने का विचार है। इसके अलावा इसमें नेशनल कॉन्फ्रेन्स के मुखिया फ़ारूक़ अब्दुल्ला, वाईएसआर कांग्रेस प्रमुख जगनमोहन रेड्डी सहित कुछ और नेताओं को शामिल किया जा सकता है।
यह कुछ उसी तरह का विचार है जैसा देश में नेशनल फ्रंट और यूनाइटेड फ्रंट की सरकारों के दौरान सामने आया था।
इन क्षेत्रीय दलों को साथ आने की ज़रूरत इसलिए भी पड़ी है क्योंकि कांग्रेस की हालत बेहद लुंज-पुंज है। राष्ट्रीय दल के रूप में कांग्रेस के पास बड़ा संगठन है लेकिन 2019 की हार के बाद इक्का-दुक्का मौक़ों को छोड़कर उसके नेता सड़क पर लड़ाई लड़ते नहीं दिखे।
कांग्रेस नहीं कर सकती नेतृत्व
कांग्रेस अपने घर के झगड़ों से ही बेहद परेशान है और ऐसे में उससे ये उम्मीद करना बेईमानी ही होगी कि वह राष्ट्रीय स्तर पर बनने वाले किसी मोर्चे की क़यादत कर पाएगी।
इसके अलावा कांग्रेस के इस फ्रंट में आने से कई राज्यों में मुश्किल खड़ी होगी। जैसे- पंजाब में अकाली दल उसकी विरोधी पार्टी है तो उत्तर प्रदेश में एसपी के साथ मिलकर चुनाव लड़ने पर सीटों को लेकर लड़ाई होगी जबकि उसके इस फ्रंट में न रहने पर यह मुश्किल नहीं होगी।
इकनॉमिक टाइम्स के मुताबिक़, बीजेपी के ख़िलाफ़ नेशनल फ्रंट बनाने की इस क़वायद में कई क्षेत्रीय दलों के नेता राहुल गांधी को अपना नेता स्वीकार करने को तैयार नहीं दिखते।
ये क्षेत्रीय दल इस बात को जानते हैं कि 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी उनके राज्यों में मुख्य मुक़ाबले में होगी। इसके अलावा कांग्रेस अब बहुत से राज्यों में लड़ाई में नहीं दिखती, इसलिए भी इन दलों को ख़ुद का फ्रंट तैयार करने की ज़रूरत है।
बीजेपी की है नज़र
लेकिन बीजेपी विपक्षी एकता को तोड़ना भी जानती है। बीते कुछ महीनों में बीजेपी ने जगन मोहन रेड्डी और नवीन पटनायक से नजदीकियां बढ़ाने की कोशिश की है। बीजेपी की कोशिश है कि राज्यों में सरकार चला रहे ये दल उसके ख़िलाफ़ बनने वाले किसी फ्रंट में शामिल न हों, भले ही वे उसके ख़िलाफ़ चुनाव लड़ लें।
ये कवायद 2019 से पहले विपक्षी एकता को लेकर हुई ताबड़तोड़ मुलाक़ातों के दौर को याद दिलाती है। एक बात साफ है कि बीजेपी को अगर सत्ता से हटाना है तो मजबूत क्षेत्रीय दलों का नेशनल फ्रंट बनाना ही होगा, वरना 2024 के बाद इन क्षेत्रीय दलों को उनके राज्यों में बीजेपी से जबरदस्त चुनौती मिलेगी जो इनके सियासी वजूद के लिए ख़तरनाक साबित होगी।