कल मैंने पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी के बारे में बीजेपी सांसद सुब्रमण्यन स्वामी के विचार बताए थे। ये विचार उन्होंने 1998 में व्यक्त किए थे जिनमें उन्होंने 1977-80 के बीच हुए कुछ चुनिंदा मगर महत्वपूर्ण राजनीतिक घटनाक्रमों की मिसाल देकर यह साबित करने की कोशिश की थी कि जनता पार्टी सरकार में जो भी गड़बड़ियाँ हुईं और जिनके कारण अंत में सरकार का पतन और पार्टी का बिखराव भी हुआ, उनके लिए सबसे ज़्यादा अगर कोई ज़िम्मेदार था तो वे थे अटलबिहारी वाजपेयी।
मैंने इस बात पर भी हैरानी जताई थी कि जिस व्यक्ति ने वाजपेयी के लिए ‘धूर्त’ और ‘पियक्कड़’ जैसे घटिया विशेषण इस्तेमाल किए हों, उस व्यक्ति को बीजेपी ने क्यों राज्यसभा का सांसद बनाया हुआ है। आज हम इसी सवाल का जवाब पाने की कोशिश करेंगे।
स्वामी के मामले में वह कहावत बिलकुल सही बैठती है कि राजनीति में कोई भी दोस्ती या दुश्मनी हमेशा के लिए नहीं होती लेकिन अपने दुश्मन से हिसाब बराबर करने का स्वामी का तरीक़ा सबसे अलग है।
स्वामी ने पहले वाजपेयी को निशाना बनाया, फिर आरएसएस को, उसके बाद सोनिया और राहुल गाँधी को और इन दिनों वह अधिकारियों के बहाने मोदी को निशाना बना रहे हैं।
दोस्ती-दुश्मनी का एक ही पैटर्न
स्वामी ने अपने जीवन में बहुत-से दोस्त और बहुत-से दुश्मन बनाए। उनकी दोस्ती और दुश्मनी का एक ही पैटर्न है। वे किसी ‘लाभ के लोभ’ में किसी के दोस्त बनते हैं और उसे अपनी ‘शत्रुनाशक सेवाएँ’ देते हैं। लेकिन यदि उनको उस दोस्त से वह लाभ नहीं मिलता तो वे उसके दुश्मन बन जाते हैं। इसी क्रम में पहले उन्होंने वाजपेयी को निशाना बनाया, फिर आरएसएस को निशाना बनाया, फिर सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी को निशाना बनाया और इन दिनों मोदी सरकार के अधिकारियों के बहाने मोदी को निशाना बना रहे हैं।
यदि आपने कल का ब्लॉग ध्यान से पढ़ा होगा तो आप यह जान गए होंगे कि स्वामी वाजपेयी से इसलिए नाराज़ थे कि (स्वामी के अनुसार) वाजपेयी ही थे जिन्होंने उनको मोरारजी की सरकार में कैबिनेट मंत्री नहीं बनने दिया था। उनका यह भी कहना है कि विदेश मंत्री के तौर पर वाजपेयी ने उनकी चीन यात्रा को एक साल तक लटकाए रखा।
हम नहीं जानते कि स्वामी के आरोप कितने सही हैं और स्वामी ख़ुद किसी पद या काम के लिए कितने लायक़ थे। लेकिन हम यह अवश्य जानते हैं कि यदि स्वामी को लगे कि कोई उनका काम बिगाड़ रहा है तो वे किस तरह उसके पीछे पड़ जाते हैं। और सिर्फ़ पीछे नहीं पड़ जाते, उसका सर्वनाश करने के लिए उस व्यक्ति या ताक़त से हाथ मिला लेते हैं जो उनके दुश्मन का दुश्मन हो, इस लालच में कि इस नए दोस्त से उनको कुछ मिल जाएगा। जब उस नए दोस्त से भी कुछ नहीं मिलता तो उनकी बंदूक अब उसकी तरफ उठ जाती है और वे एक और नया दोस्त खोज लेते हैं, जो इस पुराने दोस्त का दुश्मन हो। स्वामी का अब तक का इतिहास यही कहता है।
गिराई थी NDA की सरकार
स्वामी ख़ुद बताते हैं कि जब 1999 में वाजपेयी के नेतृत्व वाली NDA सरकार को उन्होंने कांग्रेस और जयललिता की मदद से गिराया था तो उनको भरोसा दिया गया था कि उनके (स्वामी के) नेतृत्व में एक ग़ैर-कांग्रेसी और ग़ैर-बीजेपी सरकार बनेगी और कांग्रेस उसको बाहर से समर्थन देगी। लेकिन सोनिया ने तब ख़ुद दावा पेश कर दिया और स्वामी हाथ मलते रह गए। हालाँकि सरकार कांग्रेस की भी नहीं बनी। शासन में आए वाजपेयी, जो 2004 तक सत्ता में रहे। वाजपेयी के रहते स्वामी की तब सरकार तो दूर, पार्टी में भी एंट्री असंभव थी। स्वामी ने इस दौरान RSS के ख़िलाफ ख़ूब लिखा और बोला। लेकिन उसका भी उन्हें कोई लाभ नहीं मिला। अगली सरकार कांग्रेस की बनी।
2006 के बाद अपने नए अवतार में स्वामी ने RSS और हिंदूवादी संगठनों से हाथ मिला लिया। यह सोचकर कि अगली बार जब केंद्र में भगवा सरकार आएगी तो उनको कोई बड़ा पद मिलेगा। तब तक वाजपेयी स्वास्थ्य कारणों से राजनीति से निष्क्रिय हो चुके थे और स्वामी को लगा कि अब बीजेपी में उनको रोकने वाला कोई नहीं रहा। मगर स्वामी को इसके लिए और 8 साल इंतज़ार करना पड़ा। और जब इंतज़ार ख़त्म हुआ तो सारा नज़ारा ही बदल चुका था। बीजेपी की बागडोर सँभालने तब तक एक नया 'हिंदू हृदय सम्राट' आ गया था जिसे कुछ लोग 'विकास पुरुष' भी मानते थे।
सुब्रमण्यन स्वामी का मूलमंत्र है - ऐसा कोई सगा नहीं, जिससे पीछे लगा नहीं। नरेंद्र मोदी का मूलमंत्र है - मैं किसी का सगा नहीं, भूलूँगा कोई दग़ा नहीं।
इस बार पड़ा मोदी से पाला
स्वामी का पाला इस बार मोदी से पड़ा था जो दूसरों का इस्तेमाल करना ख़ूब जानते हैं चाहे वह पार्टी हो, मीडिया हो, पूँजीपति हों या बॉलिवुड के सितारे हों। मगर आज तक कोई माई का लाल पैदा नहीं हुआ जो (बिना उनकी प्रत्यक्ष या परोक्ष सहमति के) मोदी का इस्तेमाल करके दिखा दे। सो, कांग्रेस की गाड़ी का टायर पंक्चर करने में मोदी सहित संघ परिवार ने स्वामी की सेवाएँ बड़े प्रेम से लीं। लेकिन जब स्वामी ने मोदी से वित्त मंत्रालय के रूप में अपना इनाम माँगा तो मोदी ने यह कहते हुए हाथ जोड़ लिए - ‘नमस्कार, आपका काम अच्छा रहा। देशसेवा में लगे रहिए। फिर मिलते हैं।’
मगर मोदी, बीजेपी और आरएसएस, स्वामी की एक ‘ख़ूबी’ को बख़ूबी जानते हैं कि बंदे को यदि ज़्यादा पिनकाया तो वह हमारे ही पीछे पड़ जाएगा और अपनी बंदूक हमारे ही सामने तान देगा। इसीलिए उनको संसद की एक सीट दे दी गई जिसमें बैठकर वे छह साल तक चलने वाला ‘पार्लीपॉप’ चूस सकते हैं।
लेकिन स्वामी ‘पार्लीपॉप’ से संतुष्ट होने वाले हैं नहीं। वे अंदर ही अंदर ख़ूब किलस रहे होंगे। उनकी हताशा बयानों के रूप में बीच-बीच में बाहर आती रहती है। स्वामी का बायोडेटा को देखकर लगता तो यही है कि वे इन दिनों ज़रूर किसी नए दोस्त की तलाश कर रहे होंगे ताकि बीजेपी और ख़ास कर मोदी से इस ‘धोखे’ का बदला लिया जा सके।