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नेहरु के बनाये रिश्ते, मोदी ने किस तरह एक-एक कर खोये

नेहरु के बनाये रिश्ते, मोदी ने किस तरह एक-एक कर खोये

भारत के परमाणु कार्यक्रमों की जननी रहा कनाडा क्यों बना हमारा दुश्मन। बता रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार ओंकारेश्वर पांडेयः

कनाडा के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों की जो गहरी बुनियाद 1950 के दशक में जवाहरलाल नेहरू ने रखी थी और जिसके कारण भारत परमाणु क्षमता वाला देश बन सका था, उसकी चूलें 74 साल बाद मोदी सरकार के शासनकाल में हिला दी गयीं। एक गहरा दोस्त हमारे दुश्मनों की कतार में शुमार कर दिया गया। और हम खुश हैं कि जस्टिन ट्रुडो ने इस्तीफा दे दिया है।  आखिरकार ऐसा क्यों हुआ? कनाडा के साथ संबंध इतने क्यों खराब हुए? इस पर बहुत बातें हो चुकीं। आज यह देखें कि भारत को परमाणु क्षमता से लैस बनाने में कनाडा की क्या भूमिका थी।

 - Satya Hindi

होमी जहांगीर भाभा भारत के परमाणु कार्यक्रमों के पिता माने जाते हैं, तो कनाडा को इसकी जननी या माँ का दर्जा प्राप्त है। कनाडा और भारत के बीच परमाणु सहयोग की शुरुआत 1950 के दशक में हुई थी, जब कनाडा ने भारत को पहला परमाणु रिएक्टर लगाने में सहायता प्रदान की। 1955 में अगर कनाडा ने भारत को 40 मेगावाट क्षमता का CIRUS ("कनाडा-इंडिया रिएक्टर, यूएस") प्रदान नहीं किया होता, तो आज भारत परमाणु हथियार संपन्न देश नहीं होता। तब कनाडा ने भारत को CIRUS शोध रिएक्टर के लिए आवश्यक यूरेनियम ईंधन का आधा हिस्सा प्रदान किया था, जबकि शेष आधा अमेरिका ने उपलब्ध कराया था। इसी ऐतिहासिक सहयोग से भारत ने परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में अपनी यात्रा की शुरुआत की।

दरअसल होमी जहांगीर भाभा जब दोराब जी टाटा के आर्थिक सहयोग से विदेश से पढ़कर भारत लौटे तो उन्होंने 26 अप्रैल 1948 को प्रधानमंत्री नेहरू को लिखा कि, "परमाणु ऊर्जा का विकास एक छोटे और शक्तिशाली निकाय को सौंपा जाए, जो सीधे प्रधानमंत्री को जवाबदेह हो। इसे परमाणु ऊर्जा आयोग कहा जा सकता है।" और उन्हीं की सलाह पर नेहरू ने 10 अगस्त 1948 को परमाणु ऊर्जा अधिनियम के तहत AEC की स्थापना कर दी। पहले अध्यक्ष भाभा बने और उन्हीं की राय पर एस एस भटनागर और के एस कृष्णन को सदस्य बनाया गया। जुलाई 1948 में भाभा को रक्षा मंत्रालय की वैज्ञानिक सलाहकार समिति में भी शामिल किया गया।

1955 में जब कनाडा ने कोलंबो योजना के तहत भारत को एनआरएक्स परमाणु रिएक्टर के डिजाइन और निर्माण की पेशकश की, जिसमें पूरी तकनीकी और वित्तीय सहायता शामिल थी, तो यह पेशकश इतनी अच्छी थी कि इसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता था।

कनाडाई परमाणु ऊर्जा एजेंसी के प्रमुख डब्ल्यू.बी. लुईस के साथ भाभा की व्यक्तिगत मित्रता थी। इसी वजह से कनाडा के साथ परमाणु सौदे की सुचारू बातचीत में भाभा ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। तब भाभा और कनाडा के बीच चल रहे परमाणु उर्जा कार्यक्रम संबंधी गोपनीय बातचीत का पता भारत के विदेश मंत्रालय को भी बाद में चला।

प्रधानमंत्री नेहरू इस सहयोग को लेकर आशान्वित और सकारात्मक थे। उन्होंने कनाडा के प्रधानमंत्री लुई सेंट-लॉरेन्ट के साथ मुलाकातों में इस सहयोग को भारत के विकास के लिए महत्वपूर्ण बताया और कहा था कि यह सहयोग भारत को अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं को पूरा करने में मदद करेगा और विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत की क्षमता को बढ़ाएगा।

कनाडा के प्रधानमंत्री लुई सेंट-लॉरेन्ट ने भी इस सहयोग को लेकर उत्साह व्यक्त करते हुए कहा था कि कनाडा भारत के बीच यह परमाणु सहयोग दोनों देशों के बीच मित्रता और सहयोग का प्रतीक है। कनाडा ने भारत को परमाणु तकनीक प्रदान कर उसके ऊर्जा और रक्षा क्षेत्रों में आत्मनिर्भरता की ओर कदम बढ़ाने में मदद की थी।

1950 से लेकर 1960 के दशक तक इस कार्यक्रम को पूर्ण रूप से गोपनीय रखा गया। नेहरू कहते थे कि "गोपनीयता जरूरी है ताकि हमारे अनुसंधान का फायदा दूसरों को न मिले और सहयोगी देशों से समझौतों में बाधा न आए।" भाभा ने भाई नेहरू की बात का पूरा मान रखा।

भाभा तब प्रधानमंत्री नेहरू को "प्रिय भाई" और नेहरू होमी जहांगीर भाभा को "मेरे प्रिय होमी" कहकर संबोधित किया करते थे। इंदिरा गांधी ने एक साक्षात्कार में कहा था कि नेहरू भाभा से महत्वपूर्ण चर्चा के लिए हमेशा तुरंत समय निकालते थे।

परमाणु विकास के काम में भाभा की मांग पर नेहरु कभी बेजा सवाल नहीं उठाते थे। सन 1957 में परमाणु ऊर्जा विभाग के बजट पर लोकसभा में चर्चा के दौरान नेहरू ने बताया कि 1954 से 1956 तक परमाणु ऊर्जा कार्य के लिए बजट "बारह गुना बढ़ गया।" विपक्ष ने भी सवाल नहीं किये। 1954 में भाभा ने सरकार को ट्रोम्बे में परमाणु ऊर्जा संस्थान की स्थापना का सुझाव दिया। तुरंत मुंबई सरकार से 1200 एकड़ जमीन प्राप्त कर AEET (अब भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र) स्थापित किया। भाभा DAE के सचिव बने, जो सीधे प्रधानमंत्री के अधीन था।

भारत के पास यूरेनियम का सीमित भंडार परमाणु विकास में आड़े आ रहा था। लेकिन थोरियम का विशाल भंडार (~5 लाख टन) भारत के पास था। इसको देखते हुए ही भाभा ने तीन-स्तरीय थोरियम आधारित रणनीति पेश की, जिसे 1958 में भारत सरकार ने औपचारिक रूप से अपनाया।

कनाडा से मिले रियेक्टर ने भाभा को परमाणु हथियार बनाने की क्षमता विकसित करने का अवसर दे दिया था। और तभी जब 1959 में भाभा ने दावा किया कि भारत बिना बाहरी मदद के परमाणु हथियार बना सकता है, तो समूचा देश ही नहीं दुनिया भी चौंक गयी। 1962 में भारत पर हमले के दो ही साल बाद सन 1964 में चीन ने जब परमाणु परीक्षण किया तो इसके बाद भाभा ने भारत सरकार को परमाणु हथियार बनाने का आधिकारिक सुझाव देते हुए ऑल इंडिया रेडियो पर कह दिया कि "2 मेगाटन का विस्फोट केवल ₹30 लाख में संभव।" तब डॉलर का भाव करीब 5 रूपये था। 

प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने इसका ऊपरी तौर पर विरोध किया, लेकिन कार्यक्रम जारी रखा और विकल्प खुले रखने की बात कही। सन 1964 में संसद ने निर्णय लिया कि भारत जरूरत पड़ने पर परमाणु हथियार बनाने की तकनीकी क्षमता विकसित करेगा। तब प्रधानमंत्री शास्त्री ने कहा कि "स्थिति बदलती है, और हमें अपनी नीतियों को भी उसी अनुसार ढालना होगा।" यहीं से "न्यूक्लियर ऑप्शन" नीति की शुरुआत मानी जाती है।

1974 में जब इंदिरा गांधी के नेतृत्व में भारत ने अपना पहला परमाणु परीक्षण "शांति परमाणु विस्फोट" किया तो इसके बाद कनाडा ने भारत के साथ परमाणु सहयोग निलंबित कर दिया। कनाडा के प्रधानमंत्री पियरे ट्रूडो ने इस परीक्षण की आलोचना की और कहा कि यह कदम वैश्विक शांति और सुरक्षा के लिए खतरा है। उन्होंने भारत से परमाणु परीक्षणों को रोकने की अपील की।  

पियरे ट्रूडो, कनाडा के पूर्व प्रधानमंत्री और वर्तमान प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो के पिता, ने 1968 से 1979 तक और फिर 1980 से 1984 तक कनाडा के प्रधानमंत्री रहे। उनके कार्यकाल के दौरान भारत और कनाडा के संबंधों में कई महत्वपूर्ण घटनाएँ घटीं।

भारत की यात्रा और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मुलाकात

पियरे ट्रूडो ने 1973 में भारत की यात्रा की, जो उस समय के कनाडाई प्रधानमंत्री की भारत की पहली यात्रा थी। इस दौरान उन्होंने इंदिरा गांधी से मुलाकात की और द्विपक्षीय संबंधों, व्यापार, और सांस्कृतिक सहयोग पर चर्चा की। ट्रूडो ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम की सराहना करते हुए कहा था कि कनाडा भारत के साथ अपने संबंधों को और मजबूत करना चाहता है। इंदिरा गांधी ने भी कनाडा के साथ सहयोग बढ़ाने की इच्छा व्यक्त की।

पियरे ट्रूडो के काल में कनाडा ने भारत के साथ एक स्तर पर सहयोग जारी रखा। लेकिन 1998 के पोखरण परमाणु परीक्षण के बाद कनाडा ने भारत के साथ परमाणु सहयोग पूरी तरह से खत्म कर दिया। कनाडाई प्रधानमंत्री जीन क्रेटिएन ने इन परीक्षणों को वैश्विक परमाणु निरस्त्रीकरण प्रयासों के खिलाफ बताया था। हालांकि कनाडा को यह शिकायत ज्यादा थी कि उसे विश्वास में नहीं लिया गया।

सन 2008 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जब अमेरिका के साथ ऐतिहासिक न्यूक्लियर समझौता कर लिया, तो 2010 में भारत और कनाडा के बीच फिर से असैन्य परमाणु सहयोग समझौता हुआ, जिस पर मनमोहन सिंह और कनाडा के प्रधानमंत्री स्टीफन हार्पर ने हस्ताक्षर किए।  

समय के साथ विभिन्न घटनाओं और परीक्षणों के कारण दोनों देशों के बीच सहयोग में उतार-चढ़ाव आया, लेकिन वैसी कटुता नहीं आयी जो पिछले एक साल में देखी गयी।

1974 की घटना को पीछे छोड़कर भारत-कनाडा फिर आगे बढ़े। तब कनाडा को शिकायत थी कि भारत ने कनाडा द्वारा निर्मित रिएक्टर से प्राप्त प्लूटोनियम का उपयोग करके अपनी पहला परमाणु बम बनाया था। लेकिन तब से नियामक निगरानी में महत्वपूर्ण सुधार हुआ है।

2008 में, भारत ने अपनी नागरिक और सैन्य परमाणु सुविधाओं को अलग करने और नागरिक परमाणु सुविधाओं को IAEA सुरक्षा उपायों के तहत रखने पर सहमति जताई। इसको कनाडा ने भी मान लिया। कनाडा ने 2010 में परमाणु सहयोग समझौता और 2013 में एक और उचित व्यवस्था की।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कनाडा के पिछले दौरे के दौरान जो अनेक समझौते किये, उनमें कनाडा के साथ परमाणु ऊर्जा हेतु हुआ एक व्यावसायिक समझौता भी था, जिसके तहत, अगले पांच वर्षों में भारत को सात मिलियन पाउंड से अधिक यूरेनियम आपूर्ति की जाएगी। यह नेहरू-मनमोहन की बनायी विरासत के कारण संभव हो सका था। 

सितंबर 2023 में कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो द्वारा भारतीय खुफिया एजेंसियों पर खालिस्तानी नेता हरदीप सिंह निज्जर की हत्या में संलिप्तता का आरोप लगाने के बाद से लगातार भारत और कनाडा के रिश्ते अभूतपूर्व तनाव में आ गए।

भारतीय मीडिया ने इस घटनाक्रम को लेकर ट्रूडो के खिलाफ कई आलोचनात्मक लेख प्रकाशित किए और उनके इस्तीफे की संभावनाओं पर खुशी जाहिर की। लेकिन गोदी मीडिया  ने कनाडा के साथ भारत के ऐतिहासिक संबंधों का महत्व जानने की कोशिश नहीं की। 

खालिस्तान के मुद्दे को भी ठीक से समझने की जरूरत है। यह एक पुराना जख्म है। 1980 के दशक में, कनाडा में बसे खालिस्तानी समर्थक गुटों ने भारत के खिलाफ अभियान शुरू किया। ऑपरेशन ब्लू स्टार (1984) और उसके बाद इंदिरा गांधी की हत्या के कारण खालिस्तान समर्थकों को और बल मिला। 1985 में एयर इंडिया की उड़ान 182 पर बम धमाके के पीछे भी खालिस्तानी आतंकवादियों का हाथ था।

भारत ने लगातार कनाडा से इन समूहों पर कार्रवाई करने की अपील की, लेकिन वहां की सरकारों ने "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता" का हवाला देकर ठोस कदम उठाने से परहेज किया। पर कुछ ऐसा ही हाल ब्रिटेन और अमरीका में भी रहा है। उनसे तो भारत ने दुश्मनी नहीं मोल ली। कनाडा के मामले पर भारत को समझदारी से काम लेना चाहिए था। जस्टिन ट्रुडो ने भी समझदारी नहीं दिखायी। दोनों देशों की अंदरुनी राजनीति और मुद्दों का लाभ लेने की होड़ ने मामला बिगाड़ दिया।

रूस: सबसे पुराना सहयोगी भी नाराजः 1971 के युद्ध के दौरान, सोवियत संघ ने भारत का हर मोर्चे पर साथ दिया। जब अमेरिका और ब्रिटेन ने पाकिस्तान का समर्थन किया, तब रूस ने भारत को सैन्य और कूटनीतिक सुरक्षा प्रदान की, अपना बेड़ा भेजा। रूस ने भारत को मिग-21 जैसे आधुनिक हथियार दिए, जो उस समय भारत की वायु सेना की रीढ़ बने। लेकिन 2022 में यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद भारत ने जिस तरह "तटस्थ" रुख अपनाया, उसने रूस को निराश किया। भारत ने संयुक्त राष्ट्र में रूस के खिलाफ वोटिंग से दूरी बनाई।

भारत ने लगातार कनाडा से खालिस्तानी समूहों पर कार्रवाई करने की अपील की, लेकिन वहां की सरकारों ने "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता" का हवाला देकर ठोस कदम उठाने से परहेज किया। पर कुछ ऐसा ही हाल ब्रिटेन और अमरीका में भी रहा है। उनसे तो भारत ने दुश्मनी नहीं मोल ली। कनाडा के मामले पर भारत को समझदारी से काम लेना चाहिए था। जस्टिन ट्रुडो ने भी समझदारी नहीं दिखायी। दोनों देशों की अंदरुनी राजनीति और मुद्दों का लाभ लेने की होड़ ने मामला बिगाड़ दिया।

रूस के साथ खुले समर्थन की जगह उल्टे उसे शांति का पाठ पढ़ाया।

बांग्लादेश: एक ऐतिहासिक सहयोगी की अनदेखी

1971 में बांग्लादेश को पाकिस्तान के चंगुल से आजाद कराने वाला भारत था। लेकिन हाल के वर्षों में, भारत-बांग्लादेश संबंध बेहद तनावपूर्ण हुए हैं। नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) के बाद बांग्लादेश में हिंदुओं पर हमले की झूठी-सच्ची बातें इतनी बढ़ा चढ़ाकर की गयीं कि आज बांग्लादेश हमसे दूर और चीन के करीब चला गया है। पाकिस्तान तो पहले से दुश्मन बना बैठा ही है।

नेपाल अपनी नयी करेंसी चीन में छपवा रहा है, जिसपर भारतीय क्षेत्रों को विवादित बता दिया है। श्रीलंका में भी चीन का जबर्दस्त प्रभाव बढ़ा है। मालदीव के साथ भी हमने संबंध बिगड़ते देखा। चीन के साथ जो रिश्ते 1988 के राजीव गांधी के दौरे के बाद से लगातार सुधर रहे थे, वह 2020 आते आते गलवान की घाटी में इतने गिर गये कि उसने भारतीय इलाके में घुसकर दो काउंटी बना लिये हैं, जिसे भारत सरकार को आधिकारिक रूप से स्वीकार करना पड़ा है। अमरीका के नये राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपने तेवर दिखाने शुरु कर दिये हैं।

सबक: क्या भारत अपनी कूटनीति सुधार सकता है

कनाडा के साथ तनाव ने एक व्यापक सवाल खड़ा किया है—कि कैसे हमने एक मित्र को दुश्मन बना लिया। क्या भारत अपनी परमाणु नीति और भू-राजनीतिक प्राथमिकताओं को सही ढंग से प्रबंधित कर पा रहा है? भारत के लिए यह समय आत्ममंथन का है। सन 2008 के अमरीका के साथ हुए परमाणु समझौते के बाद भारत को विदेशों से कोई महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल नहीं हुई है। भारत में विदेशी निवेश निम्न स्तर पर है और विदेशी कर्ज चार गुना ज्यादा बढ़ गया है। क्या इसी को अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत की मजबूत स्थिति कहते हैं। कनाडा भारत के लिए केवल एक कूटनीतिक चुनौती बनकर रह गया है। और यह घटना भारत की व्यापक कूटनीतिक रणनीति पर गंभीर सवाल खड़े करती है।

(लेखक अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार हैं)

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