मज़दूरों पर खुद के वजन से दोगुना ‘बोझ’! कैसे कम होगा?
नए साल के जश्न और शोर-शराबे में यह ख़बर कहीं पीछे छूट गई है। पिछले कुछ महीने से हड़ताल पर चल रहे सूरत के कपड़ा उद्योग के हमाल पहली जनवरी को वेयरहाउस (गोदाम) मालिकों के साथ हुए मौखिक समझौते के बाद अस्थायी तौर पर काम पर लौट आए हैं। उनकी लड़ाई अभी बाकी है। ये हमाल जिन मांगों को लेकर हड़ताल पर थे, उनमें कपड़े की गठान का वजन 65 किलोग्राम तक सीमित करने की मांग शामिल है। अमूमन ये गठानें पहले 120 से 150 किलोग्राम तक हुआ करती थीं। यानी एक हमाल के खुद के औसत वजन से दो गुना से भी ज्यादा! इस अर्थ में यह अनूठी मांग है कि मजदूर खुद की शारीरिक क्षमता की कीमत मांग रहा है। आखिर एक मजदूर को अपनी शारीरिक क्षमता तय करने का अधिकार क्यों नहीं होना चाहिए?
इंडियन नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस (इंटक) के गुजरात इकाई के अध्यक्ष नैशध देसाई से मैंने फोन पर बात की, तो उन्होंने कहा, “यह मौखिक समझौता है और मजदूर इसे लिखित में चाहते हैं।“ उनके मुताबिक वेयरहाउस यानी गोदाम मालिकों से जो मौखिक बातचीत हुई है, उसमें तीन बातों को लेकर दोनों पक्षों में सहमति बनी है। ये तीन मुद्दे हैं:
- हफ्ते में एक दिन साप्ताहिक अवकाश
- कपड़े की गठान का अधिकतम वजन 80 किलोग्राम
- सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम वेतन का भुगतान
अपने कपड़ा और डायमंड उद्योगों के लिए मशहूर सूरत का यह एक और चेहरा है। यहां लाखों मजदूर काम करते हैं। जैसा कि नैशध देसाई ने कहा, “इनमें से ज्यादातर मजदूर प्रवासी मजदूर हैं। इनमें उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और ओडिशा से लेकर दक्षिण भारत से आए मजदूर भी काम करते हैं। “यदि स्मृति धुंधली न पड़ी हो, तो कोविड और लॉकडाउन के दौरान सूरत से भी घर लौटने वाले मजदूरों की अच्छी खासी तादाद थी। थोड़ा और पीछे लौटें तो 21 सितंबर, 1994 को जब प्लेग ने सूरत में दस्तक दी थी, तब भी रातों-रात प्रवासी मजदूरों को अपने घरों की ओर लौटना पड़ा था। यह विडंबना ही है कि लौटने वाले मजदूरों का कोई स्थायी गंतव्य नहीं होता। वे फिर उन्हीं महानगरों की ओर लौटते हैं।
सूरत के सरोली, अंतरौली, वांकनेडा और नियोल जैसे इलाक़ों में ट्रांसपोर्ट गोदाम हैं, जहां भिवंडी, मालेगांव और इरोड सहित देश के विभिन्न हिस्सों से ग्रे यानी कच्चे कपड़े आते हैं। ग्रे कपड़ों को मिलों में कई प्रक्रियाओं से गुजराने के बाद परिष्कृत किया जाता है और उसके बाद ही वे बाज़ार में जाते हैं। यहां के कपड़ा उद्योग के हमाल पिछले कई महीने से इन कपड़ों की गठानों का वजन 65 किलोग्राम तक अधिकतम करने की मांग कर रहे हैं।
नैशध देसाई कहते हैं, “हमालों की मांग तो गठान का वजन अधिकतम 65 किलोग्राम तक सीमित करने की है, लेकिन कुछ समय पहले इसे 100 किलोग्राम कर दिया गया था और अभी की बातचीत के बाद सहमति 80 किलोग्राम तक करने पर हुई है।“ अंदाजा है कि सूरत में दस हजार से अधिक हमाल इस सख्ती से सीधे प्रभावित हैं। नैशध देसाई कहते हैं, “अपने वजन से अधिक वजन उठाना मजदूर की सेहत और सुरक्षा के लिहाज से सही नहीं है।“
नैनो चिप और एआई के जमाने में इस वजन का क्या मतलब है? और क्या पता जिस तरह से विकास की रफ्तार बढ़ रही है, उसमें टनों वजनी गठान उठाने वाली मशीनें इन हमालों की जगह कब ले लें?
इसके साथ याद किया जाना चाहिए कि गुजरात की ज़मीन से ही महात्मा गांधी ने भी हड़ताल को प्रतिरोध की आवाज बनाया था। अंग्रेज़ों के समय से गुजरात अपनी कपड़ा मिलों के लिए मशहूर रहा है। साबरमती नदी के किनारे बसे अहमदाबाद को तो एक समय समृद्ध कपास उद्योग के लिए पूर्व का मैनचेस्टर तक कहा जाता था। कपड़ा मिलों के साथ ही मजदूरों के संघर्ष का भी गुजरात में पुराना इतिहास है। दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटने के बाद गांधी ने अपना पहला आंदोलन 1917 में बिहार के चम्पारण में नील की खेती करने वाले किसानों की मांगों को लेकर किया था। इसके एक साल बाद 1918 में उन्होंने वेतन में बढ़ोतरी की मांग कर रहे अहमदाबाद के कपड़ा मिल मजदूरों की हड़ताल का नेतृत्व किया था। यह एक ऐतिहासिक हड़ताल थी।
लेकिन इस दौर में गांधी को पूछ कौन रहा है?
बेशक, 1970-80 के दशकों में कपड़ा मिलों में ट्रेड यूनियन की हड़तालों और तालाबंदी ने मिल मालिकों और सरकार के साथ ही मजदूरों का भी खासा नुकसान किया था। लेकिन हकीकत यह भी है कि मजदूरों के मानवीय सुविधाओं के लिए हड़ताल पर जाने के लोकतांत्रिक अधिकार को लेकर अदालतों से लेकर नागरिक समाज का रुख बहुत सकारात्मक नहीं है। खासतौर से मजदूर हड़ताल को लेकर एक तरह की उपेक्षा का भाव है।
इधर, विकास की नई पटकथा ने मज़दूरों को हाशिये पर धकेलने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। बीते साल जिन दिनों सूरत के हमाल हड़ताल पर थे, ठीक उसी दौरान दो बहुराष्ट्रीय कंपनियों- अमेजन और सैमसंग के श्रमिक और कर्मचारियों ने भी हड़ताल की थी।
अमेजन की बात करें, तो उसकी श्रमिक और मजदूर विरोधी कथित नीतियों के ख़िलाफ़ वैश्विक स्तर पर विरोध चल रहा है। बीते साल 29 नवंबर को श्रमिकों के वैश्विक संगठन यूएनआई ग्लोबल यूनियन के आह्वान पर भारत सहित दुनिया के उन देशों में “ब्लैक फ्राइडे” के नाम से हड़ताल की गई थी, जहाँ इस बहुराष्ट्रीय कंपनी के ऑपरेशन चल रहे हैं। लेकिन भारत में इसकी ख़बर तक ठीक से नज़र नहीं आई। जबकि ख़बर तो यह भी है कि भारत का राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने जून, 2023 में चरम गर्मी के दिनों में बिना ब्रेक श्रमिकों से काम लेने के आरोपों को लेकर अमेजन को नोटिस भेजा था। तकरीबन उन्हीं दिनों तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई से सटे श्रीपेरुम्बदूर स्थित सैमसंग इलेक्ट्रॉनिक्स फैक्टरी के श्रमिक वेतन में बढ़ोतरी और बेहतर सुविधाओं को लेकर हड़ताल पर थे। 37 दिनों तक चली सैमसंग की हड़ताल प्रबंधन के साथ हुए समझौते के बाद खत्म जरूर हो गई, लेकिन समझा जा सकता है कि यह फौरी राहत ही है।
गौर किया जाना चाहिए कि इन हड़तालों से ज्यादा तवज्जो तो इन्फोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति के उस बयान को मिल रही है, जिसमें उन्होंने हफ्ते में 70 घंटे काम करने का सुझाव दिया है। यानी साप्ताहिक अवकाश को छोड़कर साढ़े ग्यारह घंटे से भी ज्यादा।
जहां पांच दिनों का हफ्ता है, वहां रोजाना 14 घंटे! जाहिर है, मूर्ति की यह सलाह “व्हाइट कॉलर जॉब” से जुड़े युवाओं के लिए है, लेकिन “ब्लू कॉलर जॉब” में तो काम के ऐसे हालात पहले से हैं। यकीन न हो तो पड़ोस की किसी फैक्टरी में जाकर इसकी पुष्टि की जा सकती है।
दरअसल, मूर्ति का यह सुझाव उस असमानता की खाई को चौड़ा ही करता है, जिसे खत्म करने के लिए मजदूर संघर्ष कर रहे हैं। और यह सब तब हो रहा है, जब हाल ही में देश में संविधान पर तीखी बहस शुरू हुई है।