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प्रियंका में इंदिरा गांधी की छवि नहीं तलाशी जानी चाहिए!

प्रियंका में इंदिरा गांधी की छवि नहीं तलाशी जानी चाहिए!

प्रियंका गांधी वायनाड से कांग्रेस सांसद बन गई है। उन्हें इस तरह पेश किया जा रहा है, जैसे कांग्रेस ने कोई बहुत बड़ा मोर्चा फतह कर लिया हो। लेकिन प्रियंका या कांग्रेस का कोई कार्यकर्ता अगर यह सोचता है कि किसी शख्सियत के संसद में पहुंचने मात्र से पार्टी को जनाधार मिल जाएगा, वो गलतफहमी में है। प्रियंका के सामने बहुत सारी चुनौतियां हैं, उनमें कांग्रेसी इंदिरा गांधी क्यों तलाश कर रहे हैं। वरिष्ठ पत्रकार श्रवण गर्ग की टिप्पणीः

प्रियंका गांधी से कितनी उम्मीदें रखी जानी चाहिए ? सवाल के जवाब के साथ कई संकट जुड़े हैं। मसलन, ज़्यादा उम्मीदें कीं और वे पूरी नहीं हुईं तो निराशा हाथ लगेगी। प्रियंका ने कुछ करके दिखा दिया तो पूछा जाने लगेगा वे पहले क्यों नहीं प्रकट हुईं ? इतने साल क्यों लगा दिए ? चिंता की जाने लगेगी कि जो प्रियंका कर रही हैं राहुल क्यों नहीं कर पाए ? या सवाल होने लगेंगे कि राहुल अब क्या करने वाले हैं ? प्रियंका क्या करने वाली हैं ? कांग्रेस के कितने इलाक़े में वे काम करने वाली हैं ? वे क्या नहीं करेंगीं ? इन सब सवालों को लेकर कार्यकर्ताओं-नेताओं, प्रशंसकों और पार्टी के स्थायी चापलूसों के मुक़ाबले प्रियंका का स्वयं का संकट भी काफ़ी बड़ा और चुनौतीपूर्ण बनने वाला है।

राहुल में नेहरू या राजीव की छवि नहीं ढूँढ़ी गई पर प्रियंका में इंदिरा गांधी की वापसी देखी जा रही है। हो सकता है ऐसा देखने वालोंकी असली मंशा ‘अब आया है ऊँट पहाड़ के नीचे’ की तर्ज़ पर भाजपा को (यहाँ मोदी-शाह भी पढ़ सकते हैं) डराने की हो। यह किसी अन्य आलेख का विषय हो सकता है कि प्रियंका को अपने नए अवतार में इंदिरा गांधी बनने या उनके जैसा दिखने की कितनी कोशिश करना या नहीं करना चाहिए !

लोकसभा में शपथ-ग्रहण के दौरान जिस मुख-मुद्रा, कैश-विन्यास और परिधान (केरल की प्रसिद्ध कसावु साड़ी) में प्रियंका प्रस्तुत हुईं उसका इंदिरा गांधी के उस फोटोग्राफ के साथ मिलान किया जा सकता है जब उन्होंने पहली बार सांसद बनने पर शपथ ली होगी।हालाँकि उस समय का फोटोग्राफ इसलिए नहीं मिल सकता कि साठ साल पहले संसद की कार्रवाई के सीधे प्रसारण की कल्पना नहीं की जा सकती थी। 

प्रियंका अपनी दादी जैसा दिख सकती हैं पर उनके जैसा बनना शायद मुमकिन नहीं हो।1917 में जन्मीं इंदिरा गांधी 42 की उम्र में कांग्रेस की अध्यक्ष और 47 की उम्र में लाल बहादुर शास्त्री की सरकार में सूचना एवं प्रसारण मंत्री बन गईं थीं। पचास की होने के पहले देश की पहली महिला (और अब तक की अंतिम) प्रधानमंत्री बन चुकी थीं। प्रियंका ने 52 साल की उम्र में पहली बार संसद में प्रवेश किया है और इस उम्र में इंदिरा गांधी को कांग्रेस की स्थापना के बाद हुए पहले और सबसे बड़े विभाजन (1969) का साक्षी बन उस पार्टी को खड़ा करना पड़ा था जो राहुल और प्रियंका को विरासत में प्राप्त हुई है।

पाँच साल पहले प्रियंका के सामने अवसर आया था कि वे इंदिरा गांधी बनकर नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ वाराणसी से चुनाव लड़ लें पर वे राज़ी नहीं हुईं। उन्हें पराजय का डर रहा होगा। उन्होंने तब पूर्वी यूपी की सीटों पर कांग्रेस को जीत दिलाने की ज़िम्मेदारी ले ली।पश्चिमी यूपी राहुल ने ज्योतिरादित्य सिंधिया को दे दिया था। पूरे यूपी से कांग्रेस सिर्फ़ एक सीट रायबरेली जीत पाई थी। राहुल अमेठी से और ज्योतिरादित्य गुना(एमपी) से अपनी-अपनी सीटें हार गए थे।

2019 की महा-पराजय के सदमे ने राहुल और प्रियंका दोनों को निराश कर दिया था।दोनों ही लगभग सिमट से गए थे और कपिल सिब्बल, ग़ुलाम नबी आदि के नेतृत्व में ‘परिवारवाद’ विरोधी ‘ग्रुप ऑफ़-23’ के हमले बर्दाश्त करते रहे।सुझाव चाहे जिसका रहा हो ,शुक्र हो ‘भारत जोड़ो यात्रा’ का कि 2022 के सितंबर में कांग्रेस पार्टी प्राइवेट वार्ड के वेंटिलेटर से बाहर निकल कर जनरल वार्ड के बिस्तर पर आ गई।

सलाह न तो भाई को दी जा सकती है और न बहन को पर प्रियंका की कुछ स्वभावगत खूबियों को लेकर आश्वस्त अवश्य हुआ जा सकता है। उन खूबियों की अभी राहुल में तलाश नहीं जा सकी है। मसलन, राहुल के मुक़ाबले प्रियंका से ख़ौफ़ खाने वालों की संख्या शायद कम होगी। जो ग़ुस्सा राहुल के चेहरे पर नज़र आ जाता है उसे प्रियंका की नाक तक भी पहुँचने में देर लगती है। राहुल किसी से नाराज़ हो जाएँ तो उसके पार्टी छोड़ देने से भी उन्हें फ़र्क़ नहीं पड़ता। प्रियंका को पड़ता है।

प्रियंका अगर नहीं बीच में पड़ती तो सचिन पायलट, सिद्धू ,आदि काफ़ी पहले पार्टी छोड़ चुके होते। राहुल ने न ज्योतिरादित्य को रोका न जितिन प्रसाद को और न मिलिंद देवड़ा को। और भी कई नाम हैं। राहुल न तो किसी को रोकते हैं और न ही किसी को जाकर या बुलाकर मनाते हैं। प्रियंका की तुलना में राहुल की पटरी अपने से बड़ी उम्र के नेताओं से ज़्यादा बैठती है। कारण जो भी हों।

प्रियंका के इर्द-गिर्द स्थायी ख़ुशामदियों की तादाद भी राहुल के मुक़ाबले (अभी) कम है। पार्टी के लोग अपनी नाराज़गी के लिए उनसे आसानी से संपर्क कर सकते हैं। वे सुनती भी हैं। (तब एक कांग्रेसी) हिमंता बिस्वा सरमा अगर राहुल के बजाय प्रियंका से मिलने पहुँच जाते  तो नाराज़ होकर शायद भाजपा में भर्ती नहीं होते।

संक्षेप में कहना हो तो प्रियंका उन सब मोर्चों पर काम कर सकती हैं जिन पर राहुल कमज़ोर सिद्ध हो रहे हैं। एक बड़ा मोर्चा अपनी ही पार्टी के लोगों से लगातार मिलने-जुलने और दूसरी पार्टियों के सांसदों के साथ नेटवर्किंग का है। संसद से बड़ा और कोई स्थान इस काम के लिए नहीं हो सकता।

मोदी सरकार या उसके समर्थक राहुल के मुक़ाबले प्रियंका से ज़्यादा डरने वाले है क्योंकि वे डराती नहीं हैं। इसलिए प्रियंका के ख़िलाफ़ न तो मानहानि के ज़्यादा मुक़दमे दायर होंगे और न उन्हें जेल भेजने की कोशिश की जाएगी। 

भाजपा से मुक़ाबले के लिये राहुल अगर कांग्रेस की कमियाँ ढूँढ़ना चाहेंगे तो प्रियंका की उपस्थिति में अपनी स्वयं की कमज़ोरियों के उपचार के दौरान उसकी भी तलाश कर लेंगे।

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