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प्रजातंत्र को कैसे मारा जाता है...भारत का उदाहरण सामने है

प्रजातंत्र को कैसे मारा जाता है...भारत का उदाहरण सामने है

प्रजातंत्र जनता से चलता है। प्रजातंत्र देश के हर समुदाय, वर्ग को साथ लेकर चलने का नाम है। भारतीय संविधान भी यही कहता है। लेकिन हाल ही में एक धार्मिक स्वतंत्रता रिपोर्ट में भारत की स्थिति को भयावह बताया गया है। भारत में 2014 के बाद अल्पसंख्यक समुदायों की धार्मिक आजादी छिन गई है। भारत ने इस अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट को खारिज कर दिया। भारत हर साल ऐसी रिपोर्टों को खारिज करता आ रहा है। लेकिन क्या इससे भारतीय लोकतंत्र मजबूत हो रहा है। उसकी खामियां पर कितना पर्दा डाला जायेगा। भारत में प्रजातंत्र को कैसे मारा जा रहा है, उसी पर नजर डाली है वरिष्ठ पत्रकार एनके सिंह नेः

“लद गए वो दिन जब दुनिया में फासिज्म, डिक्टेटरशिप, कम्युनिज्म और सैनिक शासन हुआ करता था. अब डेमोक्रेसी को मारने का तरीका बैलट-बॉक्स के जरिये है. आज सैनिक विद्रोह या अन्य हिंसक तरीकों से सत्ता हड़पने की घटनाएँ एक्का-दुक्का होती हैं. दुनिया के तमाम देशों में आज नियमित चुनाव होते हैं. प्रजातंत्र फिर भी मरता है लेकिन उसका तरीका कुछ अलग है. अब चुनी हुई सरकारें हीं इस प्रजातांत्रिक शासन पद्धति का खून करती हैं बड़े प्यार से. वेनेजुएला, जॉर्जिया, हंगरी, निकारागुआ, पेरू, चिली, फिलिपीन्स, पोलैंड, रूस, टर्की, पोलैंड और श्रीलंका इसके उदाहरण हैं. आज सेना के टैंक सडकों पर नहीं होते. प्रजातान्त्रिक संस्थाएं देखने में वैसी की वैसी दीखती हैं. लोग मतदान करते हैं. और जो सत्ता में आता है डेमोक्रेसी का मुलम्मा बरक़रार रखते हुए अन्दर से उसकी अतड़ियां निकाल लेता है. ऐसे देशों में प्रजातंत्र के आवरण में सब कुछ कानूनी लगेगा. दावा किया जाएगा कि पहले का प्रजातंत्र गलत था और इसे मजबूत करना होगा. इस प्रक्रिया में न्यायपालिका से छेड़छाड़ की जायेगी. भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के नाम पर संस्थाओं की स्वायत्तता ख़त्म की जायेगी”

उपरोक्त निष्कर्ष मशहूर पुस्तक “प्रजातंत्र के मौत कैसे होती है” (हाउ डेमोक्रेसीज डाई) के लेखक –स्टीवन लेवित्सकी और डेनिअल जिब्लेट-- का है. पुस्तक वर्ष 2018 में छपी थी और तब भारत में मोदी शासन की “गुणवत्ता” के बारे में उतना खुलके तथ्य नहीं आ सके थे. लेकिन आज जब भारत की स्थितियां देखी जाती हैं तो लगता है कि लेखक-द्वय शत-प्रतिशत सही है. 

भारत में अफसरशाही और विपक्ष को धमकाया जा रहा है और जो साथ आएंगे उन्हें “जांबख्शी” दी जाती है. वरना उसे पीएमएलए की धारा ४५(अ) में महीनों बगैर दोष सिद्ध हुए जेल रखा जाता है और प्रॉपर्टी जब्त कर ली जाती है. अगर किसी धर्म विशेष का है और तत्काल किसी आपराधिक कृत्य में शामिल है तो बैक डेट में नोटिस दे कर (ताकि कानून के पालन का नाटक चलता रहे) प्रॉपर्टी पर बुलडोजर चला दिया जाता है.

यह मोदी शासन का हीं कमाल था कि कानून संसद में पारित हुए लेकिन विपक्ष को आवाज उठाने के पहले हीं निकाल दिया गया. किसान कानून बिल पर विपक्ष मतदान की मांग करता रहा पर उन्हें बाहर का रास्ता दिखाया गया. लोकसभा का स्पीकर या राज्यसभा का सभापति भौडे ढंग से सरकार के लिए बैटिंग करते नज़र आयेंगें. 2015 में नेशनल जूडिशल कमीशन (एनजेएसी) कानून पारित कर कॉलेजियम सिस्टम को ख़त्म करना इसी प्रक्रिया का हिस्सा है. सभापति महोदय का जनमंचों से और सदन में सुप्रीम कोर्ट कोलेजियम सिस्टम के खिलाफ दिनरात बोलना इसका एक नया पहलू है. अखबारात आज भी साया होते हैं लेकिन उन्हें या तो सरकारी विज्ञापन से खरीद लिया गया होता है या ईडी की दहशत से सेल्फ-सेंसरशिप के लिए मजबूर होना पड़ता है.

दरअसल आपने राजकुमार का मशहूर डायलाग “लखनऊ में ऐसी वो कौन सी फिरदौस है जिसे हम नहीं जानते” सुना होगा। नए दौर के गवर्नेंस मॉडल में भी यह देखा जा रहा है कि वो कौन सी संस्था या उसके किरदार हैं जो “मा-बदौलत की कदमों में नहीं झुके हैं”. एससी आज भी अपनी कोलेजियम की ताकत से जजों की नियुक्ति का भगवाकारण रोक सकी है. लेकिन कब तक ?  

पिछले हफ्ते पीएम मोदी ने कहा कि जनता चकोर की तरह सकारात्मक खबरों रूपी "स्वाति की बूंद" की भूखी होती है. लेकिन यह जानना जरूरी है कि सकारात्मक खबरें कौन सी होती है. भारत में प्रजातंत्र द्वंदात्मक है जैसा ब्रिटेन या अमेरिका में है. इसमें पक्ष होता है, विपक्ष होता है और ये दोनों विधायिकाओं में, लोकमंचों से या संचार माध्यमों से मुद्दे पर दावा-प्रतिवाद करते हैं. इनके ठीक आसपास कहीं स्वतंत्र मीडिया होती है.

भारी जनमत से चुनी हुई सरकार भी यह कह कर नहीं बच सकती कि जनता ने उन्हें एक अवधि के लिए चुना है और अवधि पूरी होने पर वह जनता को हीं जवाब देगी. विधायिकाओं में शून्य-प्रहर, प्रश्न-काल, अविश्वास प्रस्ताव, कार्य-स्थगन प्रस्ताव आदि प्रक्रियाएं होती हैं ताकि जन-सरोकार और लोक कल्याण के मुद्दे पर क्या काम हुआ या नहीं हुआ, चर्चा हो सके. मीडिया उन्हें जनता तक पहुंचाती है और स्वयं भी सरकार के वादों और वास्तविक अमल या ऐसा सरोकार के मुद्दों पर सरकार की गलतियाँ बताती है. हाँ, सिर्फ वे ही मुद्दे सकारात्मक खबरों की सीमा या मर्यादा में आते हैं जिसमें किसी समाज या व्यक्ति ने मूल्य या प्रतिमान स्थापित किया है जैसे मजदूर के बेटे का आईएएस में टॉप करना, एक गरीब महिला का उद्यमी बन कर गाँव की लड़कियों को काम देना या किसी प्रतिभाशाली डॉक्टर का करोड़ों की प्रैक्टिस छोड़ सुदूर जंगल के नक्सली इलाकों में गरीबों का इलाज करना. कोई सरकार अगर लोक कल्याण के कार्य करती है तो यह कोई जनता पर अहसान नहीं है. 

भाखड़ा नंगल बाँध हो या आजादी के प्रथम दशक के बाद हीं पांच आईआईटी की स्थापन या हाल में गरीबों को पांच किलो अनाज देना या सड़कें या एअरपोर्ट बनवाना, ये सभी विकास के क्रम में आये पड़ाव हैं. सरकार अच्छे काम करने के लिए हीं चुनी जाती है. हाँ, मीडिया की भूमिका तभी आती है जब विकास के कार्य सुस्त हों या पूर्व में किये गए वादे के अनुरूप नहीं हों. याने मोदी जी की माने तो ऐसी कोई खबर जिसमें सरकार की निंदा हो, वह जनता ख़ारिज करती है और केवल उन्हीं खबरों का उन्हें इन्तेजार रहता है जिसमें मोदी की वाहवाही हो.

प्रजातंत्र मर रहा है लेकिन तिल-तिल कर और धीरे-धीरे. जनता स्वाति की बूँद की तरह इसे पी रही है.

(लेखक एन के सिंह ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन (बीईए) के पूर्व महासचिव हैं)

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