आमतौर पर कहा जाता है कि पके हुए चावल देखने के लिए बर्तन से सिर्फ़ एक दाना निकाल कर समझा जा सकता है कि चावल कितने पके हैं, पूरे पक गए हैं या नहीं। जितना अनुभवी और समझदार रसोइया होता है, उतना अंदाज़ा सही होता है। लेकिन क्या यही बात चुनावों में वोटिंग के बाद हुए एग्ज़िट पोल या फिर वोटिंग से पहले होने वाले ओपिनियन पोल के लिए मानी जा सकती है या खरी उतरती है?
आठ फरवरी को दिल्ली विधानसभा के चुनावों के बाद आए एग्ज़िट पोल के नतीजों ने मौजूदा मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल और आम आदमी पार्टी की फिर से दमदार वापसी और हैट्रिक लगाने की संभावना बताई है।
एग़्जिट पोल, कितने सही, कितना झोल?
लेकिन इसके बाद बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष सांसद मनोज तिवारी ने बीजेपी को 48 सीटें मिलने का दावा किया है और इससे यह बहस शुरु हो गई कि क्या एग्ज़िट पोल पर भरोसा करना चाहिए?मनोज तिवारी के इस बयान से मुझे बचपन के वे दिन याद आ गए जब इम्तिहान में बुरी तरह फेल होने वाले कुछ साथी भी परीक्षा के बाद फ़र्स्ट डिवीज़न आने का दावा करते थे और कहते थे कि पेपर्स बहुत अच्छे हुए हैं। लेकिन तब भी मैं जानता था कि दावा करने वाले साथी को ख़ुद पता है कि उसके इम्तिहान कैसे हुए हैं और नतीजा क्या आने वाला है, लेकिन इससे कम से कम रिजल्ट तक तो पिटाई से बचा जा सकता था।
बीजेपी के एक ज़माने तक ताक़तवर नेता रहे मेरे मित्र प्रमोद महाजन कहा करते थे कि टिकट माँगने वाला हर उम्मीदवार सौ फ़ीसद जीत का दावा करता है भले ही उसे अपनी ज़मानत नहीं बचा पाने के बारे में भी भरोसा नहीं हो।
बकरे की माँ कब तक ख़ैर मनाएगी?
मगर कहा तो यह भी जाता है कि बकरे की माँ कब तक ख़ैर मनाएगी। यूं तो दिल्ली विधानसभा चुनावों से पहले हुए बहुत से ओपिनियन पोल्स ने भी अरविन्द केजरीवाल सरकार की वापसी का अंदाज़ा लगाया था, लेकिन तब भी उसे नहीं माना गया। दरअसल मुझे लगता है कि यह मानवीय स्वभाव ही होगा कि हारने वाला कभी अपनी हार को नतीजे से पहले स्वीकार नहीं करना चाहता।अभी कुछ दिनों पहले तक की ही बात है कि साल 2014 के चुनावों में बीजेपी और नरेन्द्र मोदी की शानदार जीत के बाद हुए ज़्यादातर विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को लगातार एक के बाद एक चुनावों में हार का सामना करना पड़ रहा था और तब कांग्रेस ने टीवी चैनल्स पर ओपिनियन पोल या एग्ज़िट पोल के दौरान अपने नुमाइंदे भेजना बंद कर दिया था। कुछ राजनीतिक दल चुनाव नतीजों में हार का ठीकरा ईवीएम मशीनों पर भी फोड़ने लगे थे।
हराती तो जनता है या फिर राजनीतिक दल के ख़ुद के काम लेकिन गुस्सा एग्ज़िट पोल और ईवीएम मशीनों पर उतार दिया जाता है। मगर इससे भी नतीजे तो नहीं बदलते।
ख़त्म होगा बीजेपी का वनवास?
आठ फरवरी की शाम वोटिंग खत्म होने के बाद जब अलग-अलग टीवी चैनलों पर अलग-अलग कंपनियों की तरफ से किए गए एग्ज़िट पोल के रुझान दिखाए जाने लगे तो साफ़ हो गया कि बीजेपी का 22 साल बाद भी दिल्ली में वनवास ख़त्म नहीं होने वाला है।इन एग्ज़िट पोल में एक समान बात यह है कि सभी ने केजरीवाल की वापसी का दावा किया है और टाइम्स नाऊ के सर्वे में कम से कम 47 सीटें दी गईं हैं तो इंडिया टुडे आजतक माइ एक्सिस माई इंडिया ने सबसे ज़्यादा 68 सीटों तक का अनुमान बताया है।
यदि सभी का औसत निकाला जाए तो कम से कम 55 सीटें आम आदमी पार्टी को मिलती दिख रही हैं और बीजेपी बड़ी मुश्किल से दहाई के आँकड़े को छू पा रही है, जिसमें औसत 14 सीटें मिल रही हैं। शीला दीक्षित की नुमाइंदगी में 15 साल तक राज करने वाली कांग्रेस एक बार फिर से बिना खाता खोले रह सकती है।
वैसे दिल्ली का चुनाव पहला विधानसभा चुनाव होगा जब बीजेपी ने चुनावों से पहले कोई सीटों की तादाद का दावा नहीं किया था जैसे झारखंड में 70 सीटें मिलने का दावा।
वैसे भी अमित शाह के लिए कहा जाता है कि वे दावे हिमालय के शिखर पर पहुँचने के इसलिये करते हैं ताकि पार्टी कार्यकर्ता का उत्साह बना रह सके और फिर हिमालय नहीं तो कम से कम सहयाद्रि की पहाड़ियों तक तो पहुँचा ही जा सकता है।
'आप' की तैयारियाँ
एग्ज़िट पोल पर सवाल उठाने से पहले हमें देखना चाहिए कि इन चुनावों में हुआ क्या? सबसे पहले तो आम आदमी पार्टी ने दो साल पहले एमसीडी के चुनावों में हारने के बाद से ही विधानसभा चुनावों की तैयारियाँ शुरु कर दी थीं।उससे पहले 2015 के चुनावों में 67 सीटें मिलने के बाद मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल कुछ ज़्यादा ही फूल कर और अकड़ते हुए यह समझ कर बैठ गए थे कि अब दिल्ली की जनता के पास उनके अलावा कहीं ओर जाने का कोई रास्ता या विकल्प ही नहीं है।
लेकिन साहब जनता तो जनता है। वह गुब्बारे को हवा डाल कर भले ही फुलाती हो और आसमान में उड़ने के लिए छोड़ देती हो, लेकिन हवा निकालने के लिए पिन हमेशा अपने पास ही रखती है।
बीजेपी का अति आत्मविश्वास
एमसीडी चुनावों में केजरीवाल की हार और फिर 2019 के लोकसभा चुनावों में सातों संसदीय सीटें जीतने के बाद बीजेपी आठवें आसमान पर थी, अतिआत्मविश्वास का शिकार। इतना अतिआत्मविश्वास की वोटिंग के दिन बीजेपी अध्यक्ष मनोज तिवारी सिर्फ़ गोरा-चिट्टा मुख्यमंत्री बनने का दावा कर रहे थे यानी बीजेपी में भी उनके अलावा कोई नहीं।वैसे गोरे-चिट्टे नेताजी को तो इस बात का अंदाज़ा पहले ही हो गया होगा कि चुनाव नतीजों से बहुत पहले बीजेपी आला कमान ने उनकी राजनीतिक ताकत को समझ लिया है। पार्टी अध्यक्ष होने के बावजूद उन्हें मुख्यमंत्री पद का दावेदार नहीं बनाया। उनके चेहरे पर चुनाव नहीं लड़ने का फ़ैसला किया। फिर तिवारी जी को यह कैसे लगा कि जब पार्टी जिसे सीएम का चेहरा नहीं मानती, उसे जनता कुर्सी पर बिठा देगी।
दिल्ली में सबसे विनम्र और लोकप्रिय मुख्यमंत्रियों में से एक रहे स्वर्गीय साहिब सिंह वर्मा के बेटे और सांसद युवा प्रवेश वर्मा ने तो सभी हदें पार कर दी और लगा कि वह सिर्फ अपनी पार्टी के नेताओं से ही लड़ाई जीतना चाहते हैं केजरीवाल से नहीं।
1998 में भी बीजेपी ने कमोबेश ऐसी ही हालत में सरकार गवाईं थी और तब से ना तो सरकार में लौटी ना ही घर के हालात सुधरे।
काम बनाम नाम!
आम आदमी पार्टी ने इस बार मोदी को निशाना बनाने की ग़लती नहीं की,बल्कि उनका ज़िक्र ही नहीं किया और अपने काम को लोगों तक पहुँचाने या उस पर भरोसा दिलाने में कामयाब रही। लोगों तक ‘पानी माफ़ और बिजली हॉफ़’ के नारे को ठीक तरह से पहुँचाया, साथ ही स्कूलों और अस्पतालों को सुधारने के उनके दावे को बीजेपी के सातों सांसद चुनाव के ऐन मौके पर वहाँ पहुँच कर भी ठीक से उजागर नहीं कर पाए या फेल रहे।दिल्ली का यह चुनाव आम आदमी पार्टी ने बीजेपी के 2014 और 2019 के आम चुनाव की तरह लड़ा यानी सिर्फ़ केजरीवाल के नाम पर। बीजेपी दिल्ली में लोकपाल नहीं बनाने के मुद्दे को भी ठीक से नहीं उछाल पाई।
आम आदमी पार्टी ने तो अपनी ग़लती सुधार ली, लेकिन बीजेपी ने 2015 के बिहार विधानसभा चुनावों वाली ग़लती दोहरा दी कि नीतीश कुमार के सामने लड़ाई में मोदी को खड़ा कर दिया था, उसी तरह इस बार मोदी बनाम केजरीवाल लड़ाई रखी और केजरीवाल ने उसे उलटते हुए कहा कि केन्द्र में आप मोदी को रखें, लेकिन दिल्ली में केजरीवाल।
कहाँ थे दिल्ली के दिग्गज़?
साल 2015 के चुनावों के बाद भी बीजेपी अपना घर ठीक नहीं कर पाई। पूरी पार्टी में एक अदद लोकप्रिय नेता उसे नहीं मिला। दिल्ली के नेता और मुख्यमंत्री होने का दावा करने वाले डॉ हर्षवर्धन ग़ायब थे। दिल्ली की हर गली को समझने वाले विजय गोयल को कोई पूछ नहीं रहा था। सांसदों की दिल्ली के वोटरों के बीच कोई पहचान नहीं है, वो तो वैसे भी मोदी के नाम पर चुनाव जीते थे।
मनोज तिवारी टीवी चैनलों के उस लालच से नहीं बच पाए और एक गंभीर इंटरव्यू के बजाय क्रिकेट खेलते दिखना उन्हें ज़्यादा अच्छा लगा जबकि चुनाव क्रिकेट नहीं, शतरंज का खेल हैं, जहाँ हर चाल को दस कदम पहले सोचना पड़ता है, जो केजरीवाल ने किया।
केजरीवाल की मदद कांग्रेस ने राजनीतिक समझदारी की वजह से की या फिर उनकी ख़त्म होती पारी ने इस खेल को अंजाम दिया। कांग्रेस इस चुनाव में कहीं नहीं थी, नतीजतन एग्ज़िट पोल के हिसाब से केजरीवाल को 55 फ़ीसद वोट मिल रहे हैं और बीजेपी 32 से 36 फ़ीसद वोट पर है जबकि कांग्रेस सिर्फ 4-5 फ़ीसद पर।
अपना घर जला कर दूसरों को हाथ तापने देने का खेल कांग्रेस जैसी पार्टी करेगी, इसकी उम्मीद तो उसके उम्मीदवारों को नहीं रही होगी।
हिन्दुत्व का कार्ड
जब दिल्ली में वोट डाले जा रहे थे तब प्रवेश वर्मा का हैरानी वाला इंटरव्यू सामने आया जिसमें उन्होंनें कहा कि बीजेपी मुसलमानों को अपना वोट बैंक नहीं मानती क्योंकि मुसलमान उन्हें वोट नहीं देते।
सीएए के ख़िलाफ़ शाहीन बाग में चल रहे प्रदर्शन को इस उम्मीद से चलाए रखना और ग़ैर ज़िम्मेदाराना बयानबाजी करना कि हिन्दू वोट बीजेपी के पक्ष में एकजुट हो जाएगा, ग़लत साबित हुआ।
अगर आम आदमी पार्टी को 50 फ़ीसद से ज़्यादा वोट मिल रहा है तो उसमें 35 फ़ीसद हिन्दू शामिल हैं बशर्ते 15 फ़ीसद मुसलमानों ने पूरा वोट बीजेपी के ख़िलाफ़ दिया हो, लेकिन ऐसा होना मैं फिलहाल नहीं मानता। बीजेपी ने मुसलमानों के अलावा दलितों और पिछड़ों का वोट भी गंवाया है।
ग़लत भी हुए हैं एग़्जिट पोल
खैर, अब नतीजे तो मंगलवार को सामने आ ही जाएँगें, एक बार फिर चर्चा एग्ज़िट पोल की, क्योंकि खुद के गिरेबां में झांकना सबसे ज़रूरी काम है। दुनिया भर में चुनावों से पहले ओपिनियन पोल की शुरुआत 60 के दशक में हुई थी और हिन्दुस्तान में 1979 के चुनावों में।1992 में इंग्लैंड के आम चुनावों में ओपिनियन पोल बुरी तरह फेल हुए थे जब दो कंपनियों के ओपिनियन पोल में वहां त्रिशंकु संसद की संभावना जताई गई थी जबकि उन चुनावों में कंजरवेटिव पार्टी की सरकार के जॉन मेजर ने फिर से वापसी की। इसी तरह 2016 के आस्ट्रिया के राष्ट्रपति चुनाव में भी ओपिनियन पोल गलत साबित हुए थे।
हिन्दुस्तान में डॉ प्रणय रॉय और उनकी टीम ने 1979 से चुनाव से पहले सर्वेक्षण का काम शुरु किया और फिर 1991 के चुनावों में टीवी पर यह सर्वेक्षण चुनावों से पहले दिखाए जाने लगे, लेकिन एग्ज़िट पोल वोटिंग के बाद होते हैं उनसे बेहतर नतीजों की तस्वीर आने की संभावना होती हैं। इसमें भी पोस्टल वोट देने वालों से बात नहीं हो पाती।
हमेशा ग़लत नहीं होते एग़्जिट पोल
आम चुनावों की बात करें तो 1998 में चुनाव पूर्व सर्वेक्षण सटीक रहे तो 1999 में बीजेपी को सर्वेक्षण से कम सीटें मिली लेकिन सरकार बनाई। साल 2004 के चुनावों में चुनाव पूर्व सर्वेक्षण गलत रहे और कांग्रेस और यूपीए की सरकार की संभावनाओं को समझने में वो नाकाम रहे तो 2009 में भी वे खरे नहीं उतरे।लेकिन 2014 के बाद से ज़्यादातर चुनाव पूर्व सर्वेक्षण और खासतौर से एग्ज़िट पोल करीब करीब सही रहे हैं , खासतौर से तब जबकि सर्वेक्षण कराने वाली कंपनी को किसी राजनीतिक दल के बजाय अपनी प्रतिष्ठा बचाए रखने और बनने पर फोकस रहा हो।
वैसे एक हिन्दुस्तानी कहावत है कि बाल कटाने को बैठने के बाद नाई से यह पूछना कि नाई नाई बाल कितने, तो जवाब होता है सब सामने आ जाएंगें, साहब। यह कहावत एग्जिट पोल और राजनीतिक दलों के दावों पर भी सौ फीसद खरी उतरती है।
चुनाव की थकान अभी सबको होगी इसलिए बेहतर है कि ...आराम बड़ी चीज़ है , मुंह ढक कर सोइए...मंगलवार की दोपहर का इंतज़ार ।