भारतीय जनता पार्टी ने अप्रत्याशित रूप से उत्तर भारत के तीन प्रमुख राज्य मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में शानदार जीत दर्ज करके उन सारे आकलनों और अनुमानों को ध्वस्त कर दिया है जो यह मानकर चल रहे थे मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की जीत तय है और तेलंगाना में भी कांग्रेस सरकार बना सकती है जबकि राजस्थान में काँटे की टक्कर में भाजपा कांग्रेस में किसी का भी दाँव लग सकता है। अगर ऐसा होता तो माना जाता कि 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को कांग्रेस और विपक्ष से कड़ी चुनौती मिलेगी। लेकिन जिस तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राज्यों के छत्रपों की जगह खुद को आगे करके यह चुनाव लड़ने का जोखिम उठाया, उससे साबित हो गया कि इस शानदार जीत के पीछे भाजपा की रणनीति और मोदी मैजिक सबसे बड़ा कारण है।
जाहिर है इन नतीजों ने भाजपा की उम्मीदों और भरोसे को पंख लगा दिए हैं। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीन राज्यों की हैट्रिक जीत को 2024 में भाजपा की लोकसभा चुनावों में जीत की हैट्रिक की गारंटी बताया है। इन नतीजों से भाजपा नेतृत्व वाले एनडीए के भीतर पहले से ही मौजूद भाजपा और मजबूत होगी और सहयोगियों के साथ सीट बँटवारे में उठ सकने वाले असंतोष के स्वर न सिर्फ खामोश होंगे बल्कि सहयोगी भाजपा की इच्छानुसार सीट बंटवारे के हर फार्मूले को सिर झुकाकर स्वीकार करेंगे। बिहार की हाजीपुर सीट के लिए न चिराग पासवान बाल हठ कर सकेंगे और न ही उनके चाचा पशुपति पारस ही हाजीपुर न मिलने पर एनडीए से बाहर जाने की सोच सकेंगे। जीतन राम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा भी प्रसाद में जो मिलेगा उस पर ही खुश रहेंगे। कुछ इसी तरह उत्तर प्रदेश में अनुप्रिया पटेल का अपना दल और ओम प्रकाश राजभर की सुभासपा सीट बंटवारे को लेकर आंखें नहीं तरेर सकेंगे। महाराष्ट्र में भी भाजपा ही तय करेगी कि लोकसभा की 48 सीटों में सहयोगी दलों शिवसेना (शिंदे) और एनसीपी (अजीत पवार) कितनी और कौन सी सीटों पर लड़ेंगे।
उधर कांग्रेस के लिए ये नतीजे बेहद निराशाजनक हैं। सिर्फ दक्षिण भारत से तेलंगाना की जीत ने उसे कुछ राहत दी है। हालाँकि यह भी सच है कि जब जब कांग्रेस संकट में आई है उसे दक्षिण भारत ने ही सहारा दिया है। 1977 में जब पूरे उत्तर और पश्चिम भारत में कांग्रेस का सफाया हो गया था, तब दक्षिण के तत्कालीन चारो राज्यों ने कांग्रेस का ही परचम लहराया था। सत्ताच्युत हुई इंदिरा गांधी को पहले कर्नाटक के चिकमंगलूर फिर तब आंध्र प्रदेश और अब तेलंगाना की मेडक सीट ने लोकसभा में भेजा। 2004 में भी कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार की बुनियाद आंध्र प्रदेश की जीत बनी थी। 2019 में अमेठी से हारे राहुल गांधी को केरल की वायनाड सीट ने भारी मतों से लोकसभा में भेजा और अब भी पहले कर्नाटक और अब तेलंगाना में कांग्रेस की जीत ने उसे हौसला दिया है।
लेकिन मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान की हार ने विपक्षी इंडिया गठबंधन के सहयोगी दलों को कांग्रेस को दबाव में लेने का मौक़ा दे दिया है। जबकि कांग्रेस के नेता सोच रहे थे कि इन तीनों राज्यों और तेलंगाना जीतने के बाद इंडिया गठबंधन में कांग्रेस का नेतृत्व और दबदबा स्वीकार कर लिया जाएगा और सीट बँटवारे में सहयोगी दल झुक कर नरमी से बात करेंगे। लेकिन अब सहयोगी दलों ने अपना दबाव बढ़ा दिया है। समाजवादी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, नेशनल कांफ्रेंस, जनता दल(यू) के नेताओं ने तो खुलकर कहा है कि अगर कांग्रेस अहंकार की बजाय कुछ सहयोगी दलों के साथ सीट बंटवारा करके चुनाव लड़ी होती तो नतीजे कुछ और होते। यह अलग बात है कि जिन सहयोगी दलों ने इन राज्यों में चुनाव लड़ा उन्हें न तो कोई सीट मिली और उनका वोट भी पूरी तरह खिसक गया।
सपा के एक नेता के मुताबिक भले ही ये नतीजे अभी निराशा पैदा करने वाले हैं लेकिन इनका विपक्ष को एक बड़ा फायदा ये होगा कि सीट बंटवारा अब आसानी से हो जाएगा क्योंकि अब कांग्रेस का अड़ियलपन भी खत्म होगा और उसे गठबंधन की जरूरत भी ज्यादा होगी। यानी अगर कांग्रेस तीन या चार राज्यों में जीतती तो जीतती कांग्रेस के साथ गठबंधन करना सहयोगी दलों की राजनीतिक मजबूरी होती और अब लड़खड़ाई कांग्रेस के सामने भाजपा से लड़ने के लिए सहयोगी दलों के साथ मजबूती से बने रहने की मजबूरी है। इसलिए इंडिया गठबंधन में ज्यादा मजबूती आएगी और सभी सहयोगी समान स्तर से बातचीत करके लोकसभा सीटों का एक तार्किक और जिताऊ बँटवारा कर सकेंगे। ऐसा होने पर 2024 में भाजपा को कड़ी चुनौती दी जा सकेगी।
कांग्रेस मीडिया विभाग के प्रभारी जयराम रमेश तो अपने कार्यकर्ताओं को 2003 के विधानसभा चुनाव और 2004 के लोकसभा चुनावों के नतीजे याद दिलाकर उनका हौसला बढ़ा रहे हैं। जयराम के मुताबिक़ 2003 में भाजपा मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ जीती थी लेकिन 2004 में लोकसभा चुनाव में कांग्रेस सबसे बड़ा दल बनकर उभरी और सरकार बनाई।
हालांकि तब कांग्रेस का मुकाबला उदारमना अटल बिहारी वाजपेयी की भाजपा सरकार से हुआ था और 2024 में आक्रामक छवि वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भाजपा से होगा। लेकिन तेलंगाना की शानदार जीत ने दक्षिण भारत में कांग्रेस को मजबूत किया है।
तेलंगाना का असर पड़ोसी राज्य आंध्र प्रदेश और उड़ीसा में भी पड़ सकता है जैसे कर्नाटक की जीत का फायदा कांग्रेस को तेलंगाना में मिला। लेकिन इन दोनों राज्यों में कांग्रेस के पास कोई रेवंत रेड्डी जैसा मेहनती और जमीन से जुड़ा कोई नेता नहीं है। हालांकि आंध्र प्रदेश में सत्तारुढ़ जगन मोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस का मुकाबला पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू की तेलगू देशम से है, लेकिन पिछले दिनों भ्रष्टाचार के आरोप में चंद्रबाबू नायडू की गिरफ्तारी ने तेलुगू देशम को अस्त व्यस्त किया है। ऐसे में कांग्रेस वहां अपनी खोई जमीन पा सकती है बशर्ते उसके पास एक मजबूत स्थानीय नेतृत्व हो। उड़ीसा में कांग्रेस लंबे समय से सत्ता से बाहर है, इसके बावजूद उसके पास करीब 24 फीसदी जनाधार है। लेकिन पार्टी के पास कोई ऐसा मजबूत चेहरा नहीं है जिसकी पूरे उड़ीसा में पहचान और पकड़ हो। जबकि चुनौती विहीन नवीन पटनायक का करिश्मा अब धीरे-धीरे उतार पर है। भाजपा इस शून्य को भरने की कोशिश कर रही है। ऐसे में अगर कांग्रेस वहां किसी स्थानीय नेता को आगे करके मेहनत करे तो वह कुछ सफलता पा सकती है। इसलिए तेलंगाना की सफलता कांग्रेस के लिए आंध्र और उड़ीसा में कुछ नई संभावनाओं के द्वार खोल सकती है।
इसमें कोई शक नहीं कि कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे, पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी और महासचिव प्रियंका गांधी ने चुनाव प्रचार में कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन मध्य प्रदेश में कमलनाथ और दिग्विजय सिंह की सार्वजनिक खींचतान, टिकटों के बेहद गलत बंटवारे और आखिरी 15 दिनों में पार्टी का चुनाव अभियान के बुरी तरह पिछड़ने को इस बुरी हार के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। साथ ही कांग्रेस अगर समाजवादी पार्टी और आदिवासी पार्टियों के साथ एक बेहतर तालमेल कर लेती तो नतीजे इतने ख़राब नहीं होते।
राजस्थान में पूरा चुनाव अशोक गहलोत के चेहरे, सरकार के काम और योजनाओं पर ही लड़ा गया। गहलोत और पायलट का संघर्षविराम तो हो गया था लेकिन दोनों के बीच की दूरी कम करने के लिए उनका कोई संयुक्त कार्यक्रम नहीं बना और लोगों में उनके मनमुटाव की आशंका बनी रही। गहलोत सरकार और खुद गहलोत से कहीं कोई नाराजगी नहीं थी बल्कि सरकार की योजनाओं के प्रति लोगों में आकर्षण और समर्थन भी था, लेकिन सत्ताधारी विधायकों और मंत्रियों के खिलाफ जबर्दस्त रोष था। उनके टिकट न काटना भी कांग्रेस को भारी पड़ा। इसीलिए कई ऐसे चेहरे जिन्हें पहली बार मैदान में उतारा गया अच्छी बढ़त से जीते लेकिन 25 में 17 मंत्रियों समेत कई विधायक बुरी तरह चुनाव हार गए। कहा जा रहा है कि अगर करीब 30 से 40 उन विधायाकों जिनकी सर्वे रिपोर्ट ठीक नहीं थी, के टिकट कट जाते तो नतीजे बदल सकते थे। दूसरा भाजपा ने जिस तरह ध्रुवीकरण का कार्ड खेला कांग्रेस मजबूती से उसका मुकाबला नहीं कर सकी। उदयपुर के कन्हैयालाल हत्याकांड का जिक्र खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी सभाओं में किया और भाजपा पूरे प्रचार में वह एक मुद्दा था, लेकिन कांग्रेस उसका यह जवाब नहीं दे सकी कि कन्हैयालाल की हत्या में शामिल सभी अभियुक्त 24 घंटे के भीतर पकड़ लिए गए। कन्हैया लाल के परिवार को पर्याप्त मुआवजा राशि और एक सदस्य को सरकारी नौकरी दे दी गई।।
ऐसे ही महिला सुरक्षा के मुद्दे पर भाजपा ने जिस आक्रामकता से राजस्थान में गहलोत सरकार को घेरा, लेकिन कांग्रेस मणिपुर, महिला पहलवानों के मामलों को मुद्दा नहीं बना सकी
राजस्थान में अग्निवीर एक बड़ा मुद्दा बन सकता था, जिसे बनाने में कांग्रेस विफल रही। पूरा चुनाव अशोक गहलोत के भरोसे लड़ा गया जबकि नरेंद्र मोदी की छवि के सहारे चुनाव लड़ने वाली भाजपा ने अपने तमाम अंदरूनी झगड़ों के बावजूद राज्य स्तर पर सामूहिक नेतृत्व को अपनी ताकत बना लिया। अशोक गहलोत को इसका श्रेय दिया जा सकता है कि अपनी सरकार की योजनाओं और सघन प्रचार के बल पर उन्होंने कांग्रेस को मुकाबले में तो ला दिया लेकिन रणनीति में कमजोर साबित हुए और जीत से चूक गए। क्योंकि चुनावों में मुद्दों और प्रचार के साथ साथ रणनीति का भी विशेष महत्व होता है।
मध्य प्रदेश में कमलनाथ के अहंकार और नेताओं के साथ असहयोग ने सारा चौपट कर दिया। जिला स्तर के कांग्रेस नेताओं ने चुनाव शुरू होने से पहले ही यह कहना शुरू कर दिया था कि जनता में कांग्रेस के प्रति सकारात्मकता और सहानुभूति के बावजूद पार्टी प्रचार और संपर्क में पिछड़ती जा रही है। खुद कमलनाथ जहां दिन में बमुश्किल एक सभा करते थे वहीं शिवराज सिंह चौहान 12 से 15 सभाएं करते थे। मतदान से एक पखवाड़े पहले ही कांग्रेस का चुनाव प्रचार ठंडा पड़ गया था। सिर्फ बड़े नेताओं की रैलियों के सिवा स्थानीय स्तर पर होने वाली चुनावी सभाएं कम होती गईं और उम्मीदवारों को प्रदेश कांग्रेस से वो सहयोग और सहायता नहीं मिल रही थी जिसकी उन्हें दरकार थी। दिल्ली से गए कई नेता भोपाल और इंदौर में ही बैठे रहे और इंतजार करते रहे कि उन्हें कहीं भेजा जाए। होर्डिंग, विज्ञापन और बैनर भी भाजपा के मुकाबले बहुत कम नजर आए। शिवराज सरकार की लाड़ली बहना योजना के असर को आंकने में कांग्रेस बुरी तरह विफल रही और उसकी कोई ठोस काट नहीं खोज पाई। आदिवासियों के बीच प्रधानमंत्री मोदी ने भाजपा के खोए जनाधार को मजबूत करने के लिए राष्ट्रपति पद पर आदिवासी महिला को लाने से लेकर झारखंड में बीरसा मुंडा जयंती के अवसर पर अनेक घोषणाएं करने जैसे कदम उठाए जबकि कांग्रेस सीधी जिले में एक आदिवासी युवक के साथ हुए अपमानजनक व्यवहार और नए संसद भवन के उद्घाटन में आदिवासी महिला राष्ट्रपति को न बुलाने जैसी घटनाओं तक को जवाबी मुद्दा नहीं बना सकी। कांग्रेस नेताओं ने चुनावों के ऐलान से पहले ही खुद को जीता हुआ मानकर टिकट बंटवारे में मनमानी की और सामाजिक और स्थानीय समीकरणों को बुरी तरह अनदेखा किया।
छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल अति आत्मविश्वास का शिकार हुए। कांग्रेस नेतृत्व ने भी बघेल पर पूरा भरोसा किया और जैसा उन्होंने कहा वैसा ही किया। बघेल के कहने पर करीब 16 ऐसे विधायकों के टिकट काटे गए जो 20 से 25 हजार की बढ़त से जीते थे और जिनकी जीत की फिर संभावना थी। लेकिन क्योंकि इन विधायकों की वफादारी बघेल से ज्यादा टीएस सिंहदेव के साथ थी, इसलिए उन्हें मैदान से बाहर कर दिया गया। इसका खामियाजा पार्टी को हार के रूप में उठाना पड़ा। 2018 में राज्य में पिछड़ों और आदिवासियों की एकता ने कांग्रेस की प्रचंड बहुमत की सरकार बनवाई और 15 साल के भाजपा शासन से बदलाव के लिए शहरी वोट भी कांग्रेस को मिला था। वादे के बावजूद शराबबंदी न करने से महिलाएं नाराज हुईं। राज्य की सबसे बड़ी पिछड़ी आबादी साहू समाज की जिस तरह उपेक्षा हुई उसने कांग्रेस के पिछड़े जनाधार को बिखेर दिया और भाजपा ने उसमें सेंधमारी की। टीएस सिंहदेव की उपेक्षा ने सरगुजा क्षेत्र में कांग्रेस को कमजोर किया और रही सही कसर मतदान से कुछ दिन पहले ईडी की छापेमारी और महादेव ऐप को लेकर सीधे मुख्यमंत्री पर लगे आरोपों ने पूरी कर दी और शहरी मतदाताओं का रुझान भी बदल गया।
हालांकि मतदान के प्रतिशत का विश्लेषण करें तो तीनों राज्यों में कांग्रेस न सिर्फ अपना मत प्रतिशत बनाए रखने में कामयाब रही बल्कि कहीं उसमें इजाफा भी हुआ। तीनों ही राज्यों में उसका मत प्रतिशत 40 फीसदी के आसपास या उससे ज्यादा है। इससे जाहिर है कि लोगों ने कांग्रेस को वोट तो दिया, लेकिन भाजपा ने अपनी रणनीति और मोदी करिश्मे से उन मतदाताओं, जो कांग्रेस भाजपा से इतर के दलों को मिलते रहे हैं, उन्हें अपनी तरफ खींचकर अपना मत प्रतिशत बढ़ाया और सीटों की संख्या में जबर्दस्त बढ़ोत्तरी कर ली।
मध्य प्रदेश में उत्तर प्रदेश की सीमा से लगे जिलों में समाजवादी पार्टी का परंपरागत वोट हर विधानसभा क्षेत्र में पांच से 15 हजार तक रहा है। लेकिन सपा से गठबंधन न करने और सपा कांग्रेस की तूतू मैंमैं से इन मतदाताओं ने सपा को छोड़कर कांग्रेस को सबक सिखाने के लिए भाजपा को वोट दिया, जिसका फायदा भाजपा को उन सीटों पर मिला जहां उसके उम्मीदवार बहुत कम अंतर से जीते हैं। पिछले चुनाव में आदिवासी दलों का समर्थन कांग्रेस को मिला था, जिसे इस बार कांग्रेस नहीं बरकरार रख सकी। इसी तरह राजस्थान में पश्चिमी जिलों में माकपा का कुछ परंपरागत जनाधार है। अगर कांग्रेस माकपा, हनुमान बेनीवाल की पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल के साथ एक व्यवहारिक गठबंधन कर लेती तो उसे कुछ सीटों पर इसका फायदा मिलता। कांग्रेस सूत्रों के मुताबिक राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे दोनों ही राज्यों में इन दलों के साथ गठबंधन चाहते थे लेकिन कमलनाथ और अशोक गहलोत ने ऐसा नहीं होने दिया।