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'बीजेपी के 'पंचशूल' से धराशायी विपक्ष'

'बीजेपी के 'पंचशूल' से धराशायी विपक्ष'

बीजेपी ने बीते महीने आए चुनाव नतीजों में विपक्ष को एक बार फिर मात दी है। ऐसे कौन से पांच हथियार हैं जिनसे बीजेपी विपक्ष को शिकस्त देने में बीते कई सालों से कामयाब हो रही है। जानिए इन हथियारों के बारे में। 

किसान फसलों के भूसे व अन्य अवशेषों को एकत्रित करने के लिए एक पंजेनुमा यंत्र का प्रयोग करते हैं। इसमें एक लाठी के आगे डेढ़-डेढ़ फुट लंबे पांच शूल लगे होते हैं। इसे पश्चिम उत्तर प्रदेश में 'जेली' कहते हैं। यह यंत्र कृषि कार्य के अलावा वक्त पड़ने पर एक कारगर हथियार भी बन जाता है जो आत्मरक्षा या हमला करने के काम भी आता है। आज बीजेपी ने भी इसी प्रकार की एक जेली यानी 'पंचशूल' विकसित कर लिया है जिसका उपयोग वह अपने वोट बटोरने और विपक्षियों पर घातक राजनैतिक हमला करने में कर रही है। किसानों की जेली के पांचों शूल तो दिखाई देते हैं परंतु बीजेपी की जेली के केवल तीन शूल दिखाई देते हैं, दो अदृश्य हैं। 

'राष्ट्रवाद' 

इसका पहला शूल है 'राष्ट्रवाद' जिसके सामने कोई विपक्षी टिक नहीं सकता। इसका उपयोग जनता में राष्ट्रीयता की भावनाओं को जागृत कर अपने पक्ष में जनसमर्थन व वोटों का प्रवाह मोड़ने की रणनीति काम करती है। इसका ऐसा प्रचार किया जाता है कि पाकिस्तान के दो टुकड़े करने वाली कांग्रेस और उसके नेता तो राष्ट्रवाद के पैमाने पर खलनायक नज़र आते हैं और चीन के हाथों ज़मीन गवाने वाली बीजेपी की सरकार परम राष्ट्रवादी लगने लगती है। बीजेपी या उसकी सरकारों का विरोध करने वाले विपक्षियों को देशद्रोही घोषित कर दिया जाता है। सच्चाई चाहे जो हो परन्तु देशद्रोह का आरोप चस्पा होने पर इसे हटा पाना लगभग असंभव होता है। एक धर्म विशेष पर तो यह ऐसा चिपकता है कि बहुसंख्यक समुदाय अपनी सारी समस्याओं को भूलकर बीजेपी के पीछे लग जाता है। इस छद्म राष्ट्रवाद की कोई काट अभी तक विपक्ष ढूंढ नहीं पाया है।

'हिंदुत्व' 

दूसरा शूल है 'हिंदुत्व' जिसका उपयोग बहुसंख्यक समुदाय को अल्पसंख्यक समुदाय का भय दिखाकर अपने पक्ष में करने की सोची समझी रणनीति काम करती है। बहुसंख्यकों को यह बताया जाता है कि एक दिन अल्पसंख्यक समुदाय बहुसंख्यक बन जाएगा और आपका हाल कश्मीरी पंडितों की तरह कर दिया जाएगा। जबकि विभिन्न धर्मों की वर्तमान जनसंख्या और उसकी वृद्धि-दर के आंकड़ों का अध्ययन करने से यह प्रमाणित होता है कि यह बात सच्चाई से कोसों दूर है। 

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अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न

बहुसंख्यकवाद की भावनाओं को जागृत करने के लिए अल्पसंख्यक समुदाय का तरह-तरह से उत्पीड़न किया जाता है। अल्पसंख्यकों को देशद्रोही साबित करने की पूरी मशीनरी काम कर रही है। इसमें सीएए, धारा 370, राममंदिर, ट्रिपल तलाक, गौरक्षा, हिजाब, नवरात्रों में मांस पर प्रतिबंध, धर्म संसद आयोजित कर अल्पसंख्यकों के खिलाफ भड़काऊ भाषण, लव जिहाद, लैंड जिहाद, शिक्षा जिहाद आदि कुछ वास्तविक और कुछ काल्पनिक मुद्दों का प्रयोग किया जाता है। 

अल्पसंख्यक वर्ग में संकीर्ण मानसिकता के कुछ लोग अपनी हरकतों से बीजेपी का रास्ता आसान बना रहे हैं, जैसा कि हाल ही में देश के विभिन्न हिस्सों में हिंदुओं की धार्मिक शोभा-यात्राओं पर पथराव की घटनाओं से साबित होता है। इसके प्रभाव में जनता मंहगाई, रोजगार, शिक्षा, चिकित्सा और अर्थव्यवस्था के मुद्दों को भूल जाती है।

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कुछ अंधभक्त तो एक लीटर पेट्रोल के 200 रुपये तक चुकाने को तैयार हो जाते हैं। वह भूल रहे हैं कि उपरोक्त अलगाववाद और सामाजिक वैमनस्य पैदा करने की कीमत बहुत से देशों ने सिविल वॉर यानी गृहयुद्ध के रूप में चुकाई है। हमने खुद अपने देश का बंटवारा होते देखा है। 

'लाभार्थीवाद' 

तीसरा शूल है 'लाभार्थीवाद' अर्थात एक ऐसे वर्ग को अपना वोटबैंक बनाने की नीति जो पूर्व व वर्तमान सरकार की नीतियों के कारण ही मुख्यधारा से कहीं न कहीं पीछे छूट गया है, जिसके पास दो वक्त की रोटी के भी लाले हैं और जो केवल जीवित रहने के लिए ही जद्दोजहद एवं संघर्ष में ही सारा जीवन काट देता है। इस वर्ग को सीधे सरकारी लाभ देकर उनके जीवन स्तर को सुधारने की अनेकों योजनाओं ने भी जाति-धर्म की दीवारों को गिराते हुए एक नए वोटबैंक को खड़ा कर दिया है। इन योजनाओं में मुफ्त खाद्यान्न वितरण, मुफ्त गैस कनेक्शन आवंटन, शौचालय निर्माण, पक्के घरों का निर्माण, बैंक खाते खोलना, किसानों को धनराशि वितरण, पेंशन, स्वास्थ्य बीमा आदि जनकल्याणकारी योजनाएं शामिल हैं।

इन व्यक्तिगत लाभकारी योजनाओं के माध्यम से सरकार की सीधी पहुंच बहुत ही ज्यादा बड़ी आबादी या कह लीजिए मध्यम व उच्च वर्ग को छोड़कर लगभग सारी आबादी तक हो गई है। निश्चित रूप से इसका राजनैतिक लाभ भी वोट के रूप में बीजेपी उठा रही है जबकि इन योजनाओं पर खर्च होने वाला धन वास्तव में जनता का अपना ही पैसा है।

विपक्ष के लिए उक्त तीनों शूलों से बचना ही अपने आप में असंभव काम है। यदि कोई बच भी जाये तो उसके लिए दो शूल और भी हैं। ये दोनों शूल अदृश्य हैं परन्तु इनकी मार वास्तविक एवं प्रत्यक्ष होती है।

'सरकारी तंत्र' का दुरुपयोग 

चौथा शूल है- 'सरकारी तंत्र' का दुरुपयोग यानी अपने विरोधियों को पुलिस, इनकम टैक्स, सीबीआई, ईडी आदि सरकारी एजेंसियों के माध्यम से काबू में करना। इस शूल का एक हिस्सा 'गोदी मीडिया' भी है जो सरकारी विमर्श को वास्तविकता के रूप में ऐसे पेश करता है कि जिससे जनता वास्तविक मुद्दों से दूर रहे। जो निष्पक्ष पत्रकार विरोध में आये उनका क्या हश्र हुआ यह सब जानते हैं। 

इस चौथे शूल का प्रभाव ही था कि मायावती जैसी दिग्गज आत्मसमर्पण कर एक सीट पर सिमट गईं। उत्तर प्रदेश में जिला पंचायत और एमएलसी चुनावों में असंभव से लगने वाले परिणाम आसानी से हासिल कर लिए गए।

बुलडोजर

अब इस शूल में बुलडोजर भी जुड़ गया है जिससे तत्काल, त्वरित एवं 'प्रत्यक्ष न्याय' करना सुनिश्चित हो गया है। बुलडोजर की मार ऐसी है कि इससे विरोधी ध्वस्त और इस ध्वस्त-लीला को देखकर अपने वोटर आश्वस्त हो जाते हैं। बुलडोजर ने वोटों की संभावना को इतना ज्यादा बढ़ा दिया है कि कई राज्यों के मुख्यमंत्री खुद को बुलडोजर बाबा, मामा, दादा आदि कहलवाकर बड़ा ही गौरव महसूस कर रहे हैं।

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'धनबल'

यदि इन सब शूलों से कोई बच भी जाए तो उसके लिए पांचवा शूल है- 'धनबल'। यह ऐसा शूल है जिसकी मीठी मार से विरले ही बच सकते हैं। एमएलसी चुनाव में विपक्ष के कई प्रत्याशी रातों-रात पर्चा वापस लेकर पाला बदल गए या पर्चा भरकर घर बैठ गए। कई राजनैतिक दल केवल इसी उद्देश्य से चुनावों में वोट काटने के लिए उतरते हैं कि कोई उनकी कीमत अवश्य चुकाएगा। 

इस पंचशूल को थामे हुए है एक मजबूत नेतृत्व जिसके पीछे खड़ा है बीजेपी और आरएसएस का मजबूत संगठन। आज विपक्ष के पास ना तो इस पंचशूल से बचने का कोई तरीका है, ना ही राष्ट्रीय स्तर का नेतृत्व और ना ही कोई अपना विमर्श या नैरेटिव जिसके बलबूते जनमत को अपने पक्ष में किया जा सके। 

पारिवारिक राजकुमार

विपक्ष का प्रभावहीन नेतृत्व चंद 'पारिवारिक राजकुमारों' के हाथ में है जो संघर्ष से दूर केवल स्थितियां बदलने की आस में भाग्य-भरोसे राजनीति कर रहे हैं। जो दल और नेतृत्व प्रभावशाली हैं भी तो वो स्थानीय स्तर पर एक राज्य तक ही सीमित हैं, उनका अपने राज्य से बाहर कोई प्रभाव नहीं है। 

'पारिवारिक राजकुमारों' का हाल यह है कि उन्हें सजा-सजाया भी मिल जाए तब भी गुड़-गोबर कर देते हैं जैसा कि उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में हुआ। उत्तर प्रदेश में तीन महीने मेहनत करके विपक्षी गठबंधन यह आस लगाए बैठा था कि बीजेपी के पंचशूल और पंचवर्षीय परिश्रम का मुकाबला कर लेंगे और जनता उन्हें आसानी से गद्दी सौंप देगी।

किसान आंदोलन, कोविड, महंगाई, बेरोजगारी आदि से बने माहौल को भी भुनाने में भी ये राजकुमार असफल रहे। इनके पास पकी-पकाई फसल को काटने के लिए ना तो दरांती थी और ना ही मज़दूर।

ज़मीनी रणनीति और संगठन के अभाव में हेलीकॉप्टर से कुछ रैलियां करके, कुछ रोड-शो निकालकर बीजेपी की मज़बूत चुनावी मशीनरी को चुनौती देने चले थे। परिणाम यही होना था। 

विपक्ष जब तक बीजेपी के पंचशूल, विमर्श, नेतृत्व और संगठन को मात देने का माद्दा पैदा नहीं करेगा तब तक यही परिणाम होंगे। अब यह कब और कैसे होगा और कौन इसे करेगा यह वक्त के गर्भ में छुपा है। बीजेपी को जब तक इस पंचशूल से वोट और सत्ता मिल रहे हैं तब तक सामाजिक सौहार्द, संविधान और लोकतंत्र के उच्च मानकों की परवाह किसे है?

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