लोकसभा चुनावों से पहले किसानों के ग़ुस्से से डर गई बीजेपी?

03:04 pm Feb 23, 2019 | अमित कुमार सिंह - सत्य हिन्दी

क्या बीजेपी को 2019 लोकसभा चुनाव में किसानों के ग़ुस्से का डर है? यदि ऐसा नहीं है तो वह अब क्यों किसानों को लुभाने की तैयारी में जुट गई है? जिसकी चिंता इसे साढ़े चार साल तक नहीं हुई, अब ऐसा क्या हो गया कि इसके लिये इसने ज़ोर-शोर से बैठकें शुरू कर दी हैं?

दरअसल, कृषि संकट पर मोदी सरकार में अब हलचल शुरू हो गई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले किसानों के लिए कुछ करना (लुभावनी घोषणाएँ) चाहते हैं। इस पर संभावनाएँ तलाशने के लिए उन्होंने वित्त मंत्री अरुण जेटली, अमित शाह और कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह के साथ बैठक की। बताया जाता है कि अब प्रधानमंत्री कार्यालय, वित्त मंत्रालय, कृषि मंत्रालय, नीति आयोग और सरकारी नीति तैयार करने वाले ‘थिंकटैंक’ के बीच विभागीय स्तर पर भी बैठकें होंगी। तो क्या यह माना जाए कि मोदी सरकार को भी लगने लगा है कि कृषि संकट में है? या फिर इसकी चिंता कुछ और ही है? आइए, देखते हैं, सच्चाई क्या है।

किसानों को फ़सलों के उचित दाम नहीं मिल रहे हैं। खेती दुर्दशा की शिकार है। इसको सुधारने के लिए किसान लगातार विरोध-प्रदर्शन करते रहे हैं। देशभर में हर रोज़ किसानों की आत्महत्याएँ हों या मध्य प्रदेश में पुलिस की गोलियाँ खाने का दंश। मुंबई में महाराष्ट्र के किसानों का पैदल मार्च हो या दिल्ली में किसानों का जमावड़ा। या कौड़ियों के भाव बिक रहे आलू-प्याज-टमाटर जैसी फ़सलों को किसानों द्वारा सड़कों पर फेंक कर रौंद देने का मामला। ये सारे मामले चीख-चीख कर कहते रहे हैं कि किसानी और किसान मर रहे हैं।

दिल्ली में प्रदर्शन के दौरान तमिलनाडु के किसान।

पहले समस्या को स्वीकार तो करें

बीजेपी नेतृत्व वाले एनडीए को सत्ता में आए क़रीब साढ़े चार साल हो गए, लेकिन अब तक इनका समाधान तो दूर, समस्या को स्वीकार तक नहीं किया गया। तभी तो किसान फ़सलों की लागत नहीं निकलने पर कराह रहे हैं, लेकिन मंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक लागत से डेढ़ गुना ज़्यादा समर्थन मूल्य देने का दावा कर रहे हैं। जब सब कुछ ठीक है तो अब क्या बदल गया कि सरकार को किसानों के लिए ‘चिंता’ सताने लगी?

चिंता कृषि संकट या 2019 चुनाव की?

दरअसल, यह चिंता कृषि संकट का है ही नहीं। चिंता है 2019 लोकसभा चुनाव की। सवाल है कि यह अब क्यों, पहले क्यों नहीं हुई? शायद बीजेपी ‘थिंकटैंक’ यह सोच रहा हो कि इसका चुनाव पर असर ज़्यादा नहीं पड़ेगा और दूसरे सियासी अजेंडे से इसकी भरपाई कर ली जाएगी। लेकिन पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव ने पार्टी का यह भ्रम तोड़ दिया। तीन राज्यों- मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ से सत्ता बीजेपी के हाथ से निकल गई। इन राज्यों में किसानों का मुद्दा चुनाव में काफ़ी ज़ोर-शोर से उठा और किसानों की ऋण माफ़ी की घोषणा करने वाली कांग्रेस जीत गई। अब बीजेपी को भी शायद किसानों के ग़ुस्से का अंदाजा हो गया।

किसानों में ग़ुस्से की पाँच बड़ी वजहें?

  1. न्यूनतम समर्थन मूल्य कम
  2. उपज की कीमतें भी कम
  3. लेकिन खेती की लागत बढ़ी
  4. कर्ज़ का लगातार बढ़ता बोझ
  5. कृषि की सरकारी उपेक्षा
अधिकांश फसलों की क़ीमतों में भारी गिरावट दर्ज़ की गई है। अभी हाल ही में प्याज के दाम इतने गिर गए कि मध्य प्रदेश में किसानों ने प्याज को सड़कों पर फेंक कर इस पर रोलर चलवा दिए। यानी किसानों की आय कम हुई है।किसानों का कहना है कि मजदूरी से लेकर खाद-बीज तक महंगे हो गए हैं। लेकिन इसकी तुलना में उपज क़ीमतें उतनी नहीं बढ़ी हैं। यही कारण है कि दिनों-दिन खेती महंगी होती जा रही है और किसान खेती छोड़कर दूसरे रोज़गार की तलाश में लगे हुए हैं।

खेती में घाटे और कर्ज़ में डूबे होने से किसान आत्महत्या को मजबूर है। सरकारी आँकड़े हैं कि क़रीब 22 सालों में साढ़े तीन लाख किसानों ने आत्महत्या की है। 2013 की रिपोर्ट के अनुसार, हर साल क़रीब 12 हज़ार किसान आत्महत्या कर रहे थे।

खेती से मोहभंग

  • सेंटर फ़ॉर स्टडीज़ ऑफ़ डवलपिंग सोसायटीज़ के एक सर्वे के अनुसार 76 फ़ीसदी किसान खेती को छोड़ना चाहते हैं। सर्वे किए गए लोगों में से 18 फ़ीसदी लोगों ने कहा कि वे सिर्फ़ परिवार के दबाव के कारण खेती में हैं।

कृषि संकट का क्या मतलब?

एक व्यापक धारणा है कि कृषि संकट सूखे जैसे प्राकृतिक आपदाओं को कहते हैं। लेकिन यदि किसानी की हालत सूखे जैसी बदतर हो जाए तो? आत्महत्या करने को कितनी बदतर स्थिति कही जाएगी? किसान घाटे में और कर्ज़ तले कराह रहा है। हालात ये हैं कि देश का हर दूसरा किसान कर्ज़दार है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आँकड़े बताते हैं कि यदि कुल कर्ज़ का औसत निकाला जाए तो देश के प्रत्येक कृषक परिवार पर औसतन 47 हजार रुपए का कर्ज़ आएगा। 

फ़सलों को सड़कों पर फेंकना पड़ रहा है। लोग किसानी को छोड़ रहे हैं। कृषि प्रधान देश होने के बावजूद क़रीब 52 फ़ीसदी क्षेत्रों में सिंचाई मानसून पर निर्भर है।
  • कृषि की स्थिति का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि इस पेशे में देश की क़रीब 53 फ़ीसदी जनसंख्या है, जबकि जीडीपी में कृषि क्षेत्र का योगदान सिर्फ़ 17 फ़ीसदी है। आज़ादी के समय जीडीपी में कृषि का योगदान 50 फ़ीसदी था। फ़िलहाल कृषि का विकास दर भी क़रीब 3 फ़ीसदी ही है।

क्या सरकार के पास है कोई ठोस समाधान?

किसानों के बढ़ते संकट का एक कारण किसानों को ज़्यादा कर्ज़ की वकालत करना ही नहीं है, बल्कि किसान कर्ज़ माफ़ी की बात करना भी है। कर्ज़ माफ़ी कोई स्थाई उपाय नहीं है। अगर ऐसा होता तो 2008 की साठ हजार करोड़ रुपए से ज़्यादा की कर्ज़ माफ़ी के बाद किसान आत्महत्याएँ बंद हो जातीं।

एक तथ्य यह भी है कि कृषि कर्ज़ के लिए बजट में प्रावधान होने के बावजूद आधे से ज़्यादा किसान साहूकारों और आढ़तियों से कर्ज़ लेने को मजबूर हैं। यह किसानों के लिए घातक साबित होता है। 

इसलिए इसका उपाय किसान की आय बढ़ाने में है न कि कर्ज़ माफ़ी। लेकिन सरकार शायद अभी इस दिशा में कुछ सोच नहीं रही है। उनकी आमदनी में इज़ाफ़ा करने का कोई बड़ा क़दम सरकार ने नहीं उठाया है। किसानों को ध्यान में रखते हुए कृषि पर राजनीतिक निर्णय लेने की ज़रूरत है।