सपा-बसपा से 'ठुकराई' गई कांग्रेस अब छोटे दलों के सहारे

11:24 am Jan 24, 2019 | यूसुफ़ अंसारी - सत्य हिन्दी

उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बीएसपी के बीच चुनावी गठबंधन के एलान के साथ ही यह साफ़ हो गया है कि कांग्रेस इस गठबंधन का हिस्सा नहीं होगी। सपा-बसपा की साझा प्रेस कॉन्फ़्रेंस की शुरुआत ही मायावती ने इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की नींद उड़ाने वाली बताकर की थी। कॉन्फ़्रेंस ख़त्म होते-होते इससे कांग्रेस की भी नींद उड़ गई। मायावती ने जिस तरह बीजेपी के साथ-साथ कांग्रेस पर तीखे हमले किए, उससे चुनाव के बाद की परिस्थितियों में इस गठबंधन के कांग्रेस को समर्थन देने में भी आनाकानी करने की संभावनाएँ बढ़ गई हैं।

‘प्लान बी’ पर काम कर रही कांग्रेस

सपा-बसपा के गठबंधन के एलान के बाद अब कांग्रेस अपने ‘प्लान बी’ को अमली जामा पहनाने में जुट गई है। कांग्रेस इस गठबंधन में जगह पाने से छूट गई छोटी पार्टियों को साथ लेकर एक नए गठबंधन के साथ चुनावी समर में कूदने की तैयारी कर रही है। 

साझा प्रेस कॉन्फ़्रेंस के फ़ौरन बाद कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने ‘सत्य हिंदी’ से फ़ोन पर बात करते हुए कहा कि कांग्रेस, रालोद और अन्य छोटी पार्टियों को साथ लेकर एक मजबूत गठबंधन बनाएगी और 2009 की तरह उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरेगी। 

सपा-बसपा के गठबंधन में दोनों पार्टियाँ 38-38 सीटों पर चुनाव लड़ेंगी। मायावती ने कहा कि हमने 2 सीटें कांग्रेस के लिए छोड़ी हैं और दो अन्य सहयोगी दलों के लिए छोड़ने की बात कही गई है। अन्य सहयोगी दलों में पीस पार्टी और निषाद पार्टी के लिए एक-एक सीट हो सकती है। हालाँकि ये दोनों पार्टियाँ अपने लिए कम से कम दो-दो सीटें माँग रही हैं। 

कांग्रेस के सूत्रों का दावा है कि अखिलेश और मायावती के ज़्यादा सीटों पर लड़ने की वजह से छोटी पार्टियाँ उसके साथ आ सकती हैं। कांग्रेस के साथ आने पर उन्हें पूरा सम्मान और ज़्यादा सीटें मिलेंगी। इसलिए कांग्रेस का गठबंधन ज़्यादा मजबूत होगा।

शिवपाल भी आ सकते हैं साथ 

कांग्रेस के सूत्र दावा कर रहे हैं कांग्रेस के गठबंधन में रालोद के अलावा समाजवादी पार्टी से अलग होकर बनी शिवपाल यादव की प्रजातांत्रिक समाजवादी पार्टी, पीस पार्टी और निषाद पार्टी समेत कई कुछ और छोटी पार्टियाँ भी हो सकती हैं। सूत्रों के मुताबिक़, शिवपाल यादव के साथ गठबंधन की बात चल रही है। कांग्रेस शिवपाल यादव के ज़रिए अखिलेश के गढ़ में उन्हें मात देने की फ़िराक में हैं। 

सूत्रों का कहना है कि शिवपाल यादव इटावा, मैनपुरी, एटा और अलीगढ़ जैसे मुलायम सिंह यादव के मज़बूत गढ़ में सेंध लगाकर अखिलेश यादव को नुक़सान पहुँचा सकते हैं। सूत्रों के मुताबिक़, कांग्रेस शिवपाल को 10-15 सीटें दे सकती है लेकिन शिवपाल 20-25 सीटों से कम पर गठबंधन को तैयार नहीं हैं। शिवपाल को साथ लेकर कांग्रेस उन सीटों पर बड़ा खेल कर सकती है जहाँ सपा-बसपा गठबंधन की तरफ़ से बसपा का उम्मीदवार होगा। ऐसी सीटों पर अखिलेश से नाराज़ समाजवादियों का वोट बसपा के बजाय शिवपाल की पार्टी को मिल सकता है।   

मंत्री न बनाए जाने से थी नाराज़गी

पिछले कुछ दिनों से लग रहा था कि यूपी में कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बीएसपी का महागठबंधन वजूद में नहीं आ सकेगा। ख़ासकर राजस्थान और मध्य प्रदेश में बसपा और समाजवादी पार्टी के समर्थन के बावजूद कांग्रेस ने इन दोनों के विधायकों को अपनी सरकारों में शामिल नहीं किया। इस पर मायावती और अखिलेश दोनों ने ही सख़्त ऐतराज जता कर साफ़ कर दिया था कि उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव को लेकर बनने वाले गठबंधन में वह कांग्रेस को अपने साथ नहीं रखेंगे। कांग्रेस को भी इस बात का एहसास था, लिहाजा कांग्रेस ने एक समानांतर रणनीति बनानी शुरू की और वह गठबंधन में जगह पाने से छूट गई छोटी पार्टियों को साधने में जुट गई। 

यूं तो कांग्रेस अकेले भी चुनाव लड़ सकती है लेकिन उसके लिए गठबंधन ज़रूरी है। गठबंधन बनाकर वह संदेश देना चाहती है कि वह अकेले और अलग-थलग नहीं है। छोटी पार्टियों के गठबंधन के साथ चुनावी समर में उतरने पर उसे मज़बूत सीटोंं पर मुसलिम वोट भी मिल सकता है। अभी की स्थिति में मुसलिम वोटों का बड़ा हिस्सा सपा-बसपा गठबंधन को ही जाएगा।

पश्चिम उत्तर प्रदेश में जहाँ रालोद से गठबंधन करके कांग्रेस को फ़ायदा हो सकता है, वहीं पूर्वी उत्तर प्रदेश की छोटी पार्टियों के साथ गठबंधन, वोट प्रतिशत के साथ उसकी सीटें भी बढ़ा सकता है।

रालोद को थी जगह मिलने की उम्मीद

सूत्रों के मुताबिक़, राष्ट्रीय लोक दल को गठबंधन में शामिल किए जाने की उम्मीद थी। जयंत चौधरी प्रेस कॉन्फ़्रेंस में शामिल होने का न्यौता मिलने के इंतज़ार में लखनऊ में ही मौजूद थे। उन्हें प्रेस कॉन्फ़्रेंस में नहीं बुलाए जाने से साफ़ हो गया था कि अखिलेश और मायावती उन्हें गठबंधन में नहीं रखना चाहते। इसके बावजूद भी यह उम्मीद की जा रही थी कि शायद मायावती और अखिलेश इस बात का संकेत दें कि रालोद उनके साथ गठबंधन में शामिल है।

कैराना में दिया था समर्थन

सपा-बसपा, दोनों ने ही रालोद की उम्मीद पर पूरी तरह पानी फेर दिया। यह उम्मीद इसलिए की जा रही थी कि कैराना लोकसभा सीट पर हुए उप-चुनाव में समाजवादी पार्टी और बसपा दोनों ने ही रालोद को अपना समर्थन दिया था। समाजवादी पार्टी ने तो अपने ही उम्मीदवार को राष्ट्रीय लोक दल के टिकट पर चुनाव लड़वा कर उसे जिताया था। अखिलेश यादव ख़ुद वहाँ प्रचार करने गए थे। इसके बावजूद इस गठबंधन में राष्ट्रीय लोक दल को शामिल नहीं किए जाने से कई सवाल उठे हैं। अहम सवाल यह है कि अखिलेश और मायावती किसी तीसरे को इस गठबंधन में जगह क्यों नहीं देना चाहते?

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस अकेले भी चुनाव लड़ सकती है लेकिन उसके लिए गठबंधन करना ज़रूरी है। गठबंधन बनाकर वह संदेश देना चाहती है कि वह अकेले और अलग-थलग नहीं है।

1999 में साथ लड़े थे कांग्रेस-रालोद

रालोद के पास विकल्प सीमित हैं। वह अकेले लड़कर ख़त्म हो जाए या फिर कांग्रेस के साथ मिल कर चुनावी  सागर में तैरे, इस तरह दोनों पार्टियाँ एक दूसरे के लिए तिनके का सहारा साबित हो सकती हैं। 1999 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस और रालोद का गठबंधन अच्छे नतीजे दे चुका है। तब कांग्रेस को 10 और रालोद को 5 सीटें मिली थी। इस लिहाज से देखें तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस और रालोद का गठबंधन सपा-बसपा गठबंधन को नुकसान पहुँचा कर उनसे कुछ सीटें झटक सकता है। 

हालाँकि कांग्रेसी सूत्रों ने अभी यह साफ़ नहीं किया है कि क्या अजित सिंह या जयंत के साथ कांग्रेस के किसी नेता की कोई औपचारिक या अनौपचारिक बातचीत हुई है। लेकिन ऐसा समझा जाता है कि कांग्रेस और रालोद के बीच किसी न किसी स्तर पर गठबंधन को लेकर चर्चा चल रही है।

राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने जीत दर्ज़ करके यह संदेश दिया है कि वह अपने दम पर भी बीजेपी को सीधे मुकाबले में हरा सकती है।

कई सीटों पर मजबूत है कांग्रेस

कांग्रेस भले ही 2014 के चुनावों मे आँकड़ों में यूपी में कमजोर दिखती हो लेकिन कई सीटों पर उसकी पकड़ मजबूत है। 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने अकेले दम पर 71 सीटों के साथ 42.63 फ़ीसदी वोट हासिल किए थे। एसपी को 22.35 फ़ीसदी वोटों के साथ 5 सीटें मिली थी। बीएसपी को 19.7 फ़ीसदी वोट तो मिले थे लेकिन सीट एक भी नहीं जीत पाई थी। 

कांग्रेस महज 7.53 फ़ीसदी वोट हासिल कर दो सीटें जीत सकी थी। साथ ही पार्टी ने सहारनपुर में मजबूत दस्तक दी थी। इसके अलावा पूर्व में गाज़ियाबाद और मुरादाबाद की लोकसभा सीटों पर कांग्रेस का कब्जा रहा है। ऐसे में एक बड़े वोटर समूह में अपनी पैठ बनाने वाली कांग्रेस अगर सपा-बसपा गठबंधन के मुक़ाबले कोई और गठबंधन तैयार करती है तो निश्चित रूप से उससे बीजेपी को थोड़ा फायदा होगा लेकिन इससे उसकी अपनी स्थिति पहले से ज़्यादा मज़बूत हो जाएगी।

2009 में 21 सीटों पर मिली थी जीत

2009 के लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस को कम आँका गया था। तब सपा उसे 10-15 सीटों से ज़्यादा सीटें नहीं देना चाहती थी। तब कांग्रेस अकेले लड़ी और 21 सीटें जीत कर सपा के बराबर आई। बाद में फिरोज़ाबाद सीट पर राज बब्बर ने डिंपल यादव को हराया था और लोकसभा में कांग्रेस यूपी की सबसे बड़ी पार्टी बन गई थी। अब भी कांग्रेसी नेता दावा कर रहे हैं कि इस बार भी कांग्रेस अकेले सपा और बसपा के मुक़ाबले ज़्यादा सीटें जीतेगी। 

कांग्रेसी नेताओं के इस दावे के पीछे दो वजहें हैं। पहली वजह देशभर में मुसलमानों का झुकाव कांग्रेस की तरफ़ होना है। पिछले साल गुजरात विधानसभा चुनाव में राहुल गाँधी ने जिस तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से सीधे टक्कर ली और उसके बाद से यह सिलसिला लगातार जारी है। मुसलिम समुदाय में यह समझ बन गई है कि मोदी से सिर्फ़ राहुल लड़ रहे हैं।

कांग्रेस के सूत्रों का दावा है कि अखिलेश और मायावती के ज़्यादा सीटों पर लड़ने की वजह से छोटे राजनीतिक दल उनके साथ आ सकते हैं। कांग्रेस के साथ आने पर उन्हें पूरा सम्मान और ज़्यादा सीटें मिलेंगी। इसलिए कांग्रेस का गठबंधन ज़्यादा मजबूत होगा।

राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने जीत दर्ज़ करके यह संदेश दिया है कि वह अपने दम पर भी बीजेपी को सीधे मुकाबले में हरा सकती है। कांग्रेस को उम्मीद है कि जहाँ उसके उम्मीदवार मजबूत होंगे वहाँ उसे मुसलमानों का वोट मिलेगा। पार्टी के पास मौजूद सात विधायकों में से दो पश्चिम उत्तर प्रदेश से हैं, लेकिन क़रीब तीन दशक से सत्ता से बाहर कांग्रेस संगठन की दृष्टि से काफ़ी कमजोर है। 

2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को कुल 7.3 फ़ीसदी वोट मिले थे, लेकिन 2017 के विधानसभा चुनाव में यह आंकड़ा 6.2 फ़ीसदी तक ही रह गया। ऐसे में पश्चिम उत्तर प्रदेश में जहाँ रालोद से गठबंधन करके कांग्रेस को फ़ायदा हो सकता है, वहीं पूर्वी उत्तर प्रदेश की छोटी पार्टियों के साथ गठबंधन, वोट प्रतिशत के साथ उसकी सीटें भी बढ़ा सकता है।

कांग्रेस का वोट नहीं होता ट्रांसफ़र

मायावती और अखिलेश दोनों ने ही अपनी प्रेस कॉन्फ़्रेंस में इस बात का जिक़्र किया कि कांग्रेस से गठबंधन करने में उन्हें नुक़सान रहता है। इसकी वजह है कि उनका वोट तो कांग्रेस को ट्रांसफ़र हो जाता है लेकिन कांग्रेस का वोट उन्हें ट्रांसफ़र नहीं होता। वह उन्हें मिलने की जगह बीजेपी को चला जाता है। सवर्णों को 10 फ़ीसदी आरक्षण दिए जाने के मोदी सरकार के फ़ैसले के बावजूद कांग्रेस का मानना है कि उसका सवर्ण वोट तो उसके साथ रहेगा। क्योंकि समाज के हर तबक़े में मोदी सरकार को लेकर ज़बरदस्त गुस्सा है। 

ऐसी स्थिति में जहाँ कांग्रेस मजबूती से चुनाव लड़ेगी और हार जाएगी वहाँ सपा-बसपा गठबंधन को फ़ायदा होगा। कांग्रेस यहाँ अपने वोट को बीजेपी की तरफ़ जाने से रोकेगी। ठीक इसी तरह उत्तर प्रदेश में सवर्ण हिंदुओं का एक ऐसा तबक़ा है जो किसी भी सूरत में समाजवादी पार्टी को वोट नहीं देना चाहता। कांग्रेस की मजबूत सीटों पर यह वोट कांग्रेस को मिल सकता है। इस तरह देखें तो कांग्रेस उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन से अलग लड़कर खुद को ज़्यादा फ़ायदे में मानती है।