सत्तारुढ़ दलों ने मुसलमानों का इस्तेमाल वोट बैंक के रूप में बखूबी किया हो लेकिन आलोचकों के अनुसार मुसलमानों की तालीम और उनकी तरक्की पर कोई ख़ास तवज्जो नहीं दी गयी। बिहार की राजधानी पटना से लगभग 300 किलोमीटर दूर स्थित अलीगढ़ मुसलिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) का किशनगंज कैंपस इसका जीता-जागता उदाहरण है।
वर्ष 2013 में शुरू हुआ यह कैंपस आज तक पूरी तरह नहीं बन सका है। कैंपस के निदेशक डॉ. हसन इमाम बताते हैं कि फिलहाल कैंपस में सिर्फ़ 46 छात्र- छात्राएं हैं और यहां बीएड का कोर्स समाप्त हो चुका है।
मंत्रालय की बेरूख़ी
पूर्व निदेशक प्रो. राशिद नेहाल के अनुसार, “एएमयू का वास्तविक कैंपस चकला में निर्माणाधीन है। चारदीवारी करा दी गयी है। बिहार सरकार ने इसके लिए 224 एकड़ जमीन मुहैया करायी है। लेकिन इसमें से 68 एकड़ महानंदा नदी में समा गयी है। कैंपस चलाने के लिए 137 करोड़ रुपये आवंटित किए जाने थे लेकिन 2019 तक महज 10 करोड़ रुपये ही मिल पाए हैं। हालाँकि केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय को इस संबंध में कई बार प्रस्ताव भेजा जा चुका है।”
देश भर के 135 छात्र-छात्राओं के साथ शुरू किये गए इस कैंपस में अब विद्यार्थियों की संख्या घट कर महज 46 रह गयी है। दो विषयों (एमबीए और बीएड) के साथ शुरू हुए इस संस्थान में अब सिर्फ एक विषय की ही पढ़ाई हो रही है।
बीएड की मान्यता साल 2018 में ही समाप्त हो चुकी है जिसे फिर से स्वीकृत नहीं कराया जा सका है। शिलान्यास के छह साल बाद भी यह कैंपस किराये के दो सरकारी भवनों में ही चल रहा है।
कैंपस के पूरी तरह स्थापित होने से पहले ही अंतिम सांसें गिन रहे इस संस्थान की नींव पड़ने में भी कई अड़चनें आयी थीं। 2006 में सच्चर समिति की अनुशंसा पर तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने बिहार में एएमयू का कैंपस स्थापित करने की सलाह दी थी।
नीतीश सरकार की काहिली
नवंबर, 2008 में एएमयू के तत्कालीन कुलपति डॉ. पीके अब्दुल अजीज ने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को कैंपस के लिए जमीन उपलब्ध कराने के लिए पहली चिट्ठी लिखी थी। इस चिट्ठी को केंद्र सरकार को भेजने में नीतीश सरकार को दो साल लग गए। इसके बाद एएमयू कैंपस के लिए किशनगंज में 224 एकड़ जमीन खोजने और उसका एग्रीमेंट कराने में तीन साल लग गए।
लैंड एग्रीमेंट के दो साल बाद भी न केंद्र सरकार पैसे दे पायी और न ही कोई निर्माण कार्य शुरू हो सका। आख़िरकार, 2013 में बिहार सरकार के अल्पसंख्यक छात्रावास के दो भवनों में अस्थायी कैंपस की शुरुआत हुई और जनवरी, 2014 में यूपीए की तत्कालीन अध्यक्ष सोनिया गाँधी, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार आदि द्वारा कैंपस का शिलान्यास किया गया।
2014 में सत्ता परिवर्तन हो गया और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार भी कैंपस के लिए कुछ नहीं कर पायी। एएमयू की ओर से कई प्रस्ताव केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय को भेजे गए, लेकिन नतीजा सिफर ही निकला।
एनडीए- 1 की सरकार में मानव संसाधन विकास राज्य मंत्री रहे उपेंद्र कुशवाहा इस बारे में कहते हैं, “बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार से आप क्या उम्मीद करते हैं। अल्पसंख्यक समाज का विकास हो, ऐसी मंशा वर्तमान केंद्र सरकार की कभी नहीं रही है। उनकी मंशा और मानसिकता ही गलत है। मैंने अपने कार्यकाल में कैंपस के लिए यथाशक्ति फंड की व्यवस्था कराई थी, लेकिन बतौर केंद्रीय राज्य मंत्री मेरी अपनी भी सीमाएं थीं। मुझसे जितना कुछ हो सका मैंने कैंपस के लिए किया है।”
हालाँकि, बीजेपी के प्रवक्ता अजफ़र शम्सी कहते हैं, ‘प्रधानमंत्री देश की 136 करोड़ जनता के हितों की बात करते हैं और जाहिर तौर पर इसमें अल्पसंख्यक समाज भी शामिल है। वो मदरसों के आधुनिकीकरण की बात करते हैं। अल्पसंख्यक समाज के बच्चों के एक हाथ में कुरान और दूसरे हाथ में कंप्यूटर हो, वे ऐसा काम कर रहे हैं। एएमयू की बेहतरी के लिए भी केंद्रीय नेतृत्व प्रतिबद्ध है और काम कर रहा है।”
जाहिर है चुनावी साल में सभी दल मुसलिम मतों को अपने पक्ष में करना चाहते हैं। लेकिन लगता है कि एएमयू का बदहाल किशनगंज कैंपस सीमांचल में बड़ा चुनावी मुद्दा बन सकता है।