तीर्थ स्थलों में सिमट कर नहीं रह सकते बाबा साहेब अंबेडकर
डॉ भीम राव अंबेडकर ने कभी किसी तीर्थ की यात्रा की थी? यह सवाल आपको चौंका सकता है। लेकिन, यह प्रश्न पूछना इसलिए जरूरी है क्योंकि अगर उत्तर ‘हां’ में है तो मोदी सरकार का डॉ अंबेडकर के नाम से ‘पंचतीर्थ’की सोच भी पवित्र मानी जाएगी। अगर उत्तर ‘ना’ में है तो एक और सवाल खड़ा होगा कि जिन्होंने धार्मिक तीर्थ यात्राओं को कभी स्वीकार नहीं किया, उनके नाम से तीर्थ या पंचतीर्थ स्थापित करना उनका सम्मान है या उनके विचारों की अवमानना?
एक संदर्भ की याद दिलाना जरूरी है। श्रीमती रमाबाई अंबेडकर महाराष्ट्र में पंढरपुर की तीर्थ यात्रा पर जाना चाहती थीं लेकिन पति डॉ भीमराव अंबेडकर इसके लिए तैयार नहीं हुए। जाहिर है कि हिन्दू धर्म में प्रचलित तीर्थ यात्रा को वे स्वीकार नहीं करते थे। लेकिन, जब अंबेडकर ने पंढरपुर तीर्थ यात्रा से मना करने के बाद अपनी पत्नी रमा अंबेडकर को बताया कि वे उनके लिए नया पंढरपुर बना देना चाहते हैं जहां छुआछूत ना हो, तो संकेत मिलता है कि डॉ अंबेडकर के लिए तीर्थ यात्रा से ज्यादा महत्व आत्मसम्मान का था।
दलितों के लिए आत्मसम्मान का सवाल आज भी महत्वपूर्ण है। इसी नजरिए से अंबेडकर सर्किट की भी समीक्षा होनी चाहिए। जब सरकार खुद कह रही है कि पर्यटकीय नजरिए से डॉ अंबेडकर से जुड़ी स्मृतियों वाली पांच प्रमुख जगहों को जोड़ते हुए वह पंचतीर्थ का विकास कर रही है तो प्राथमिकता में पर्यटन है ना कि डॉ भीम राव अंबेडकर?
अंबेडकर सर्किट में शामिल बाबा साहेब से जुड़े पांच प्रमुख स्थान
- महू में जन्म भूमि
- लंदन में शिक्षा भूमि
- नागपुर में दीक्षा भूमि
- दिल्ली में महापरिनिर्वाण भूमि
- मुंबई में चैत्य भूमि
जन्म, शिक्षा-दीक्षा, मृत्यु और अंतिम संस्कार तो हर उस व्यक्ति का होता है जो इस धरती पर आया है। डॉ अंबेडकर के व्यक्तित्व में जो ऊंचाई है, उसमें उनके संघर्ष का सबसे बड़ा योगदान है। अपनी लेखनी और भाषणों से वे सबको सम्मोहित कर लिया करते थे। बिना डरे किसी से भी टकरा जाना उनका स्वभाव था। छुआछूत के विरुद्ध संघर्ष, दलितों के लिए अलग निर्वाचन की मांग, देश और दुनिया में दलितों के अधिकार और सम्मान की लड़ाई डॉ अंबेडकर के चरित्र के ऐसे पहलू हैं जिनके बिना ‘अंबेडकर सर्किट’ कभी पूरा नहीं हो सकता। और, न ही डॉ अंबेडकर के नाम पर तीर्थ की श्रृंखला ही पूरी हो सकती है।
पाकिस्तान-बांग्लादेश अंबेडकर सर्किट में क्यों नहीं?
लाहौर में ‘जात-पात तोड़क मंडल’ सौ साल पहले 1922 में बना था जिसने 1936 में डॉ अंबेडकर को निमंत्रण देकर भी भाषण पढ़ने का अवसर नहीं दिया। जाति उन्मूलन पर डॉ भीम राव अंबेडकर का यह भाषण पुस्तक बनकर ही लोगों के सामने आ सका और इस पुस्तक ने अलग-अलग भाषाओं में धूम मचा दी। लाहौर को क्यों नहीं अंबेडकर सर्किट का हिस्सा बनाया जाना चाहिए? क्या इसलिए कि वह पाकिस्तान में है?
पूर्वी बंगाल के जेस्सोर और खुलना निर्वाचन क्षेत्र को क्यों नहीं अंबेडकर सर्किट का हिस्सा बनाया जाना चाहिए जहां से डॉ भीम राव अंबेडकर ने सबसे पहले संविधान सभा में प्रतिनिधित्व किया? पाकिस्तान बनते समय ये निर्वाचन क्षेत्र भारत मे नहीं रह गये, इसलिए उन्हें बाम्बे निर्वाचन क्षेत्र से चुना गया क्योंकि संविधानसभा में डॉ अंबेडकर का होना जरूरी था।
डॉ अंबेडकर ने 1956 में हिन्दू से बौद्ध धर्म में धर्मांतरण किया। वे बर्मा, नेपाल और श्रीलंका में विश्व बौद्ध सम्मेलन के आयोजनों में शरीक हुए। ये धार्मिक ही नहीं वैश्विक महत्व की घटनाएं रहीं। लेकिन, इन देशों को भी अंबेडकर सर्किट से दूर रखा गया।
‘अंबेडकर सर्किट’ में पंजाब, यूपी तक की उपेक्षा!
पंजाब से डॉ अंबेडकर का गहरा नाता रहा। उन्होंने बौद्ध धर्म में शामिल होने से पहले सिख धर्म को परखा। जब पंजाब की प्रोविंसियल फ्रेंचाइज कमेटी ने अछूतों के अस्तित्व को मानने तक से इनकार कर दिया था तब डॉ अंबेडकर ने लोथियान कमेटी के सदस्य के तौर पर 31 मार्च 1932 में सबसे पहले लाहौर का दौरा किया था। तब लाहौर पंजाब में था।
1936 में डॉ अंबेडकर ने अमृतसर का दौरा किया और 13 एवं 14 अप्रैल को सिख मिशन कान्फ्रेन्स में हिस्सा लिया। 27 अक्टूबर 1951 को अंबेडकर का जालंधर दौरा भी ऐतिहासिक है जब दो लाख लोगों की भीड़ उन्हें सुनने पहुंची थी। यह बहुत बड़ा सवाल है कि पंजाब का कोई इलाका अंबेडकर सर्किट में क्यों नहीं है?
आश्चर्य है कि उत्तर प्रदेश भी अंबेडकर सर्किट में जगह नहीं पा सका! लखनऊ में डॉ भीम राव अंबेडकर का वह भाषण कोई भुला सकता है जिसमें उन्होंने कहा था कि “आप और हम एक हो जाएं तो ये (सवर्ण) हमारे जूते के फीते बांधेंगे...” इसी तरह मेरठ, आंगरा जैसे शहरों में डॉ अंबेडकर की एक से बढ़कर एक ऐतिहासिक जनसभाएं हुईं। सार्वजनिक जीवन में ये सफल सभाएं डॉ अंबेडकर की राजनीतिक और सामाजिक स्वीकार्यता के उदाहरण हैं।
अंबेडकर-पेरियार का मुलाकात स्थल भी तीर्थस्थल है!
तमिलनाडु के चेन्नई (मद्रास) में डॉ भीम राव अंबेडकर और पेरियार के बीच 1940 में ऐतिहासिक मुलाकात हुई थी। दोनों नेताओं में दलितों और गैर ब्राह्मण जातियों के राजनीतिक भविष्य पर चर्चा की थी। यह मुलाकात भी ऐतिहासिक है और इसलिए यह मुलाकात स्थल चेन्नई भी तीर्थ के समान है। 1944 में अपनी मद्रास यात्रा के दौरान डॉ अंबेडकर ने पांच अलग-अलग सभाएं की थीं।
डॉ अंबेडकर का प्रभाव और कार्यक्षेत्र आंध्र प्रदेश का तेलंगाना और कर्नाटक भी रहे। मगर, इन दोनों प्रदेशों को भी महत्व नहीं दिया गया। बिहार में बाबू जगजीवन राम से डॉ अंबेडकर की बहुत घनिष्ठता रही। डॉ अंबेडकर ने 30 के दशक में बाबू जगजीवन राम को चुनाव भी लड़वाया। इसी तरह आंध्रप्रदेश का तेलंगाना और कर्नाटक की सीमा के इलाके में भी डॉ अंबेडकर का प्रभाव था। मगर, इन क्षेत्रों को अंबेडकर सर्किट में अहमियत देने की आवश्यकता नहीं समझी गयी।
औरंगाबाद क्यों नहीं पंचतीर्थ में?
डॉ अंबेडकर की शिक्षा दीक्षा कहां हुई- यह महत्वपूर्ण है। मगर, उन्होंने शिक्षा का अलख जगाया और महाराष्ट्र के औरंगाबाद में मिलिंद महाविद्यालय की स्थापना की- यह बात कम महत्वपूर्ण नहीं। औरंगाबाद में पहले से ही एअरपोर्ट और रेलवे स्टेशन हैं। फिर औरंगाबाद को पंच तीर्थ में शामिल नहीं किया गया है। यह समझ से परे है।
औरंगाबाद की ही तरह कोल्हापुर भी महत्वपूर्ण स्थान है जहां साहूजी महाराज ने डॉ अंबेडकर का पहला भाषण 1920 में तैयार कराया था। इसकी भी उपेक्षा हुई है। ये उपेक्षाएं नजरअंदाज करने वाली नहीं हैं। वास्तव में यह डॉ अंबेडकर के योगदान को आंकने में उदारता का अभाव दिखलाता है। भारत सरकार में नजरिए की इतनी तंगी क्यों दिख रही है?
वैश्विक लीडर को चंद इलाकों में समेटना क्या सही है?
डॉ भीम राव अंबेडकर का प्रभाव देशव्यापी और विश्वव्यापी था। इसके बावजूद उन्हें महज पाँच क्षेत्रों से जोड़कर उनका कद क्या छोटा नहीं किया जा रहा है? अंबेडकर का सम्मान उनके विचारों का सम्मान है। अगर अंबेडकर के विचार, कार्य और प्रभाव क्षेत्र से अंबेडकर सर्किट नहीं जुड़ता है तो सही मायने में पर्यटन का मकसद भी पूरा नहीं होगा।
डॉ अंबेडकर से जुड़े या जुड़ने की चाहत रखने वाले लोग उऩ्हें अधिक से अधिक जानना और समझना चाहते हैं। प्राथमिकता में पर्यटन बाद में आता है। अंबेडकर के प्रशंसकों का आगमन और उनकी निरंतरता को सुनिश्चित करने के लिए यह आवश्यक है कि पूरे अंबेडकर सर्किट को बाबा साहेब के विचार, दर्शन और संघर्ष के प्रतीक चिन्हों और शहरों से जोड़ा जाए।
ऐसा लगता है कि बाबा साहेब के विचारों से ही छुआछूत किया जा रहा है। उनकी लोकप्रियता का इस्तेमाल सिर्फ पर्यटकीय नजरिए से करने के पीछे राजनीतिक लाभ की जरूरत ही सिद्ध हो रही है। डॉ अंबेडकर अखण्ड भारत के वैश्विक नेता थे। उनका दर्शन दुनिया भर में शोषित-पीड़ित-वंचित वर्ग को प्रेरित करता है। यह धर्म से परे है। दुर्भाग्य से सरकारी सोच बहुत संकीर्ण दिखती है जिसमें डॉ भीम राव अंबेडकर समा नहीं सकते।