क्या आम आदमी पार्टी 2019 के लोकसभा चुनाव के संदर्भ में आत्महत्या करने पर तुली हुई है यह सवाल पूछना लाज़िमी है। आप यह सवाल कर सकते हैं कि अचानक क्या हो गया है। और क्यों यह बात की जाए। मौजूदा वाक़या 1984 के सिख नरसंहार से जुड़ा है। ख़बर है कि दिल्ली विधानसभा में यह प्रस्ताव पास हो गया कि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी को दिया हुआ भारत रत्न वापस लेना चाहिए। कारण - जब वे प्रधानमंत्री थे तो उनकी माँ इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद जो नरसंहार हुआ, उसके लिए वह ज़िम्मेदार हैं।
इंदिरा गाँधी की हत्या जब हुई थी तब मैं इलाहाबाद में था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दर्शन शास्त्र की पढ़ाई कर रहा था। वह दौर अलग था। तब दूरदर्शन के अलावा टीवी चैनल नहीं थे। न ही था इंटरनेट। सोशल मीडिया, वॉट्सऐप जैसी चिड़िया तो पैदा भी नहीं हुई थी। मोबाइल फ़ोन भी नहीं था। लोग ट्रांज़िस्टर रखते थे। ख़बरें या तो रेडियो से मिलती थीं या फिर अगले दिन अख़बार से। ज़्यादा समझदार लोग बीबीसी सुनते थे। तब अफ़वाहें भी ख़बरें दे जाती थीं। शाम के चार बजे थे। मैं अपने कमरे में बैठा था। किसी ने बताया कि इंदिरा गाँधी को गोली मार दी गई है। गोली शायद उनके बॉडीगार्ड्स ने मारी है। मुझे झटका-सा लगा। इंदिरा गाँधी मुझे अच्छी लगती थीं। मुझसे रहा नहीं गया। मैंने साइकिल उठाई और दोस्तों से मिलने डायमंड जुबिली हॉस्टल चल पड़ा।
सिखों के ख़िलाफ़ हुई हिंसा
वहाँ देखा तो सन्नाटा पसरा पड़ा था। लोग ख़बर को कन्फ़र्म करने में लगे थे। मैंने देखा, कई लड़के रो रहे थे। उनकी आँखों में आँसू थे। सब सदमे में थे। थोड़ी देर बाद दूरदर्शन पर ख़बर आ गई कि इंदिरा गाँधी को गोली लगी है और वह अब इस दुनिया में नहीं रहीं। मैं बहुत दुखी था। हॉस्टल से निकला। स्टेडियम के बग़ल से निकलता हुआ कटरा के रास्ते अपने कमरे की तरफ़ बढ़ रहा था तो देखा सड़क पर कुछ लोग जबरन दुकानें बंद करवा रहे थे। कुछ उपद्रवी लोग पत्थरबाज़ी भी कर रहे थे। मैं समझ गया। हालात ख़राब हो रहे हैं। तेज़ी से पेडल मारते हुए बचते-बचाते अपने कमरे में पहुँचा। उसके बाद पता चला कि देश भर में काफी आगज़नी हुई। सिखों को ज़िंदा जलाया गया।
मैं इलाहाबाद में कुछ महीने कीडगंज के गुरुद्वारे में भी रहा था। वहाँ मिर्ज़ापुर का मेरा एक सिख दोस्त भी रहता था। बाद में मुझे पता चला कि भीड़ ने गुरुद्वारे पर हमला कर उसे और वहाँ के महंत को टायर में बाँध कर ज़िंदा जला दिया। मैं कई रात सो नहीं सका। अब मेरी पहली प्राथमिकता थी किसी तरह मैं अपने घर मिर्ज़ापुर पहुँच जाऊँ। तीन-चार दिन बाद बचता-बचाता रेलवे स्टेशन गया और ट्रेन पकड़ कर मिर्ज़ापुर आ गया। वहाँ भी कर्फ़्यू लगा था। शहर के इतिहास में पहली बार शहर ने कर्फ़्यू के दर्शन किए। हम विश्वविद्यालय में पढ़ते ज़रूर थे, पर राजनीति की समझ काफ़ी कम थी।
मुझे यह समझ में नहीं आता था कि इंदिरा गाँधी को गोली क्यों मारी गई उस वक़्त जिस किसी से भी मेरी बात हुई, वह ग़ुस्से में था। सिखों को भला-बुरा कह रहा था। हालाँकि मिर्ज़ापुर में सिखों के ख़िलाफ़ कोई बड़ा हादसा नहीं हुआ। लेकिन मेरे कई जानने वाले सिख परिवारों ने अपने केश कटवा लिए। दाढ़ी मुँड़वा ली। कृपाण, कंघा रखना बंद कर दिया। कई परिवार मिर्ज़ापुर छोड़ कर पंजाब में फिर से अपने पैतृक गाँव बसने चल दिए थे। सही कहूँ तो दहशत थी पूरे माहौल में। कभी भी कोई बड़ा हादसा हो सकता था। कोई भी दाढ़ी वाला दिखता तो उसे आतंकवादी बता दिया जाता था। सिखों के लिए वे बड़े बुरे दिन थे।
राजीव के स्वभाव में नहीं थी राजनीति
हिंदू इस बात को लेकर ज़्यादा नाराज़ थे कि जिन पर इंदिरा गाँधी की जान बचाने की ज़िम्मेदारी थी, उन्होंने ही उनकी जान ले ली। यह कैसा विश्वासघात था अब कोई कैसे अपने अंगरक्षकों पर यक़ीन करेगा राजीव गाँधी सुदर्शनी व्यक्तित्व के धनी थे। उनके चेहरे पर मासूमियत थी। वे निर्दोष लगते थे। एक ऐसा शख़्स जिस पर विश्वास किया जा सकता था। वे माँ की तरह राजनीतिज्ञ नहीं थे। राजनीति उन्हें नहीं आती थी।
यह मैं इसलिए भी कह सकता हूँ क्योंकि मैं उनसे मिला था। उनसे बातचीत की थी। मैं यह कह सकता हूँ कि वे कुछ भी थे, राजनीति उनका स्वभाव नहीं था। राजनीति उनको आती नहीं थी। शायद यही कारण है कि शाह बानो और राम मंदिर का ताला खुलवाने जैसे फ़ैसले उनसे करवाए गए। चूँकि ये सारे काम उनके नाम से हुए इसलिए उन्हें इतिहास माफ़ तो नहीं करेगा और न ही उनके मूल्यांकन में नरमी बरतेगा। पर इतिहास और राजनीतिज्ञ में फ़र्क़ होता है। इतिहास अतीत की पड़ताल करता है। राजनीतिज्ञ वर्तमान में रणनीति बना कर भविष्य की इमारत बनाता है। वह अपने क़िले को मज़बूत करता चलता है।
आम आदमी पार्टी की दिक़्क़त यह है कि कहने को तो यह राजनीतिक दल है। इसने दिल्ली में बड़ी-बड़ी पार्टियों को धूल चटाते हुए ऐतिहासिक जीत हासिल की है, पर इसे राजनीति आती नहीं है। इसमें नि:स्वार्थ भाव से काम करने वाले लोग हैं जो भावना में बह कर बिना आगा-पीछा सोचे कुछ भी क़दम उठा सकते हैं और बाद में माथा पीटते पाए जा सकते हैं।
ऐसे लोगों की एक और ख़ासियत होती है कि वे अपने पैरों पर निरंतर कुल्हाड़ी मारते चलते हैं। दिल्ली विधानसभा में राजीव गाँधी से भारत रत्न वापसी का प्रस्ताव लाने का फ़ैसला ऐसा ही एक आत्मघाती क़दम है। ऐसे समय में जबकि देश भर में मोदी के ख़िलाफ़ महागठबंधन बनाने की बात हो रही है, नेताओं के बीच बातें चल रही हैं, कांग्रेस एक नई धुरी बन कर उभर रही है, दिल्ली में आप, कांग्रेस से चुनावी गठबंधन के लिए आतुर है, तब यह क़दम क्यों
आप की तरफ़ से कांग्रेस पर डोरे डालने का काम काफ़ी दिनों से चल रहा है। कांग्रेस तैयार नहीं हो रही थी। यहाँ तक कि राहुल गाँधी, अरविंद केजरीवाल के साथ एक मंच पर नहीं आना चाहते थे। पिछले दिनों यह दीवार टूटी है। किसानों के एक मंच पर दोनों साथ भी दिखे हैं। कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों के शपथग्रहण में शामिल होने का न्योता भी मिला। ऐसे में जब बात बन रही हो तो फिर प्रस्ताव लाने का क्या औचित्य
तब क्यों लिया कांग्रेस से समर्थन
राजीव गाँधी, राहुल गाँधी के पिता हैं और सोनिया गाँधी के पति। विधानसभा में प्रस्ताव का अर्थ है राजीव को सिख नरसंहार के लिए ज़िम्मेदार ठहराना। कोई बेटा यह कैसे मान लेगा और कैसे वह ऐसी पार्टी से हाथ मिलाएगा जो उसके पिता को ही क़ातिल मानती है भारत रत्न वापसी की बात का इससे अलग कोई मतलब नहीं है। इतनी छोटी-सी बात इस पार्टी को क्यों समझ में नहीं आती अब अगर पार्टी सिख नरसंहार के लिए राजीव गाँधी और कांग्रेस को ज़िम्मेदार मानती है तो फिर वह कैसे उससे चुनावी गठबंधन कर सकती है पार्टी यह भूल गई है कि इसी कांग्रेस ने 2013 में सरकार बनाने के लिए आप का समर्थन किया था। तब यह क्यों नहीं कहा कि वह ऐसी पार्टी से समर्थन नहीं लेगी जो सिखों के नरसंहार के लिए ज़िम्मेदार है!
यहाँ इस सवाल का कोई अर्थ नहीं है कि विधायक अलका लांबा का इस्तीफ़ा ले लिया गया है या नहीं प्रस्ताव कौन लेकर आया, क्यों लेकर आया और किस मक़सद से लाया गया सवाल यह है कि पार्टी संदेश क्या देना चाहती है और कौनसी राजनीति करना चाहती है - भविष्य की या फिर अतीत की जो अतीत की राजनीति करते हैं, वे फिर इतिहास ही हो जाते हैं।
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