उत्तर प्रदेश के ब्राह्मण मतदाताओं में ज़बरदस्त नाराज़गी है। भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के सत्ता में आने के बाद इस समाज को उम्मीद जगी थी कि कुछ बेहतर होगा। अब वे ख़ुद को ठाकुर बनाम ब्राह्मण की लड़ाई में घिरे पा रहे हैं। विकास दुबे और उस मामले में एक नाबालिग का एनकाउंटर सहित प्रदेश में ब्राह्मणों की लगातार हत्याओं से ब्राह्मण समाज आक्रोशित है। राज्य में लगातार हो रही हत्याओं के ख़िलाफ़ ब्राह्मण समाज ने राष्ट्रपति को ज्ञापन भी दिया है। विकास दुबे की पत्नी व बेटे की घुटनों पर बैठी तसवीरें, गिरफ्तारी के बाद विकास दुबे का एनकाउंटर लोगों को चिढ़ा रही हैं। गूगल सर्च में ब्राह्मण, हत्या, उत्तर प्रदेश जैसे कीवर्ड एक साथ डालने पर दर्जनों ख़बरें खुलने लगी हैं, जिनमें सरकार के प्रति ख़ासी नाराज़गी झलकती है।
उत्तर प्रदेश की राजनीति में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस सक्रिय हैं जो लगातार उत्तर प्रदेश में अपराधियों के क़ब्ज़े का आरोप लगा रही हैं। बहुजन हिताय का नारा छोड़ सर्वजन हिताय और ब्राह्मणवाद का विरोध छोड़ ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा विष्णु महेश है’ का नारा लगवाकर 2007 के विधानसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत से सत्ता में आने वाली मायावती ब्राह्मणों को लुभाने में लग गई हैं।
वहीं समाजवादी पार्टी (सपा) के प्रमुख अखिलेश यादव भी संभवतः छोटे लोहिया के नाम से विख्यात जनेश्वर मिश्र और बृजभूषण तिवारी के दौर को याद करना चाहते हैं जिन्होंने राज्य में समाजवादी विचारधारा का आधार तैयार किया था। ब्राह्मणों के उत्पीड़न पर सपा ख़ासी मुखर है। सोशल मीडिया पर समाजवादी पार्टी के समर्थक राज्य में ब्राह्मणों के उत्पीड़न के ख़िलाफ़ खुलकर बोल रहे हैं।
इस बीच कांग्रेस भी अपनी भूमिका तय करने में लगी हुई है। कांग्रेस के ब्राह्मण नेता जितिन प्रसाद ब्राह्मणों को एकजुट करने में जुटे हैं।
प्रियंका गाँधी कांग्रेस महासचिव और पूर्वी उत्तर प्रदेश की प्रभारी बनने के बाद से ही पूरी तरह से राजनीति में सक्रिय हैं। 2019 में लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की केंद्र में ज़ोरदार वापसी के बाद प्रियंका की सक्रियता और आक्रामकता दोनों ही बढ़ गई है। लोकसभा चुनाव के पहले दलित नेता चंद्रशेखर से मुलाक़ात से शुरू होकर सीएए-एनआरसी के मसले पर सरकार को लगातार घेरने, लॉकडाउन के दौरान उत्तर प्रदेश में पैदल आ रहे प्रवासी मज़दूरों के लिए बसों का इंतज़ाम करने और तमाम मसलों में सक्रियता देखी गई।
प्रियंका गाँधी सामान्यतया यूपी केंद्रित राजनीति कर रही हैं। ऐसे में यह माना जा सकता है कि उनका लक्ष्य 2022 का विधानसभा चुनाव है।
लॉकडाउन में उन्होंने बनारस के बुनकरों, मज़दूरों की विभिन्न राज्यों से वापसी और उनको नौकरी देने के मसले पर राज्य के कांग्रेस नेताओं की गिरफ्तारी, उत्तर प्रदेश के विपक्षी नेताओं द्वारा सरकार के कथित समर्थन वाले बयान से यह माना जा रहा है कि यह बीएसपी अध्यक्ष मायावती पर प्रहार था, जिन्होंने सीमा मसले पर सरकार या सेना नहीं, भारतीय जनता पार्टी के साथ खड़े रहने की बात की थी। कोरोना काल में यूपी में एमबीबीएस के विद्यार्थियों की क्लास शुरू कराए जाने, अलीगढ़ के पोस्टमार्टम हाउस की दुर्व्यवस्था, यूपी सरकार व उसके विभागों द्वारा उन्हें धमकियाँ दिए जाने के आरोप, पेट्रोल डीजल के दाम में बढ़ोतरी का यूपी में कांग्रेस द्वारा विरोध कोरोना से देश में सबसे ज़्यादा मृत्यु दर वाले 15 ज़िलों में 4 यूपी के होने, यूपी शिक्षक भर्ती घोटाले, यूपी सरकार द्वारा पत्रकारों के उत्पीड़न, एक ही नाम से कई प्राइमरी स्कूलों में अध्यापिका के नौकरी करने, बुंदेलखंड में मज़दूरों की आत्महत्या सहित अनेक मसले उठाए।
अगर उनके ट्विटर हैंडल को देखें तो हाल के महीनों में उन्होंने सिर्फ़ और सिर्फ़ यूपी के मसले उठाए हैं और बहुत कम मसले राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय स्तर के मिलते हैं। उन्होंने कासगंज में हुई सामूहिक हत्याओं व गोरखपुर में पान विक्रेता के बेटे के अपहरण, एक करोड़ रुपये फिरौती और फिर उसकी हत्या का मसला उठाया। कांग्रेस की ओर ब्राह्मणों के आकर्षित होने की कई वजहें गिनाई जा सकती हैं।
लंबे समय से ब्राह्मण मुख्यमंत्री न होना
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के आख़िरी मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी थे। उनकी व्यक्तिगत कमज़ोरियों को छोड़ दें तो तिवारी को उत्तर प्रदेश का विजनरी नेता माना जाता है जिन्होंने नोएडा औद्योगिक क्षेत्र की स्थापना की थी। उसके पहले भी राज्य में पहला मुख्यमंत्री कांग्रेस ने ही दिया था और राज्य की राजनीति में कांग्रेस के रहते ब्राह्मणों का वर्चस्व बना रहा। कुल मिलाकर देखें तो गोविंद वल्लभ पंत, संपूर्णानंद, सुचेता कृपलानी, कमलापति त्रिपाठी, हेमवती नंदन बहुगुणा, नारायणदत्त तिवारी, श्रीपति मिश्र सहित उत्तर प्रदेश को 7 ब्राह्मण मुख्यमंत्री कांग्रेस ने दिए हैं। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी में तो मुलायम सिंह, अखिलेश यादव और मायावती के अलावा किसी अन्य के लिए मुख्यमंत्री पद के लिए जगह या संभावना ही नहीं है।
वहीं 4 बार ब्राह्मणों के दम पर सत्ता में आने वाली भारतीय जनता पार्टी एक भी ब्राह्मण मुख्यमंत्री नहीं बना सकी है। ऐसे में उत्तर प्रदेश के ब्राह्मण अन्य दलों की तुलना में कांग्रेस में बेहतर संभावनाएँ देख सकते हैं।
प्रियंका का आकर्षण
प्रियंका गाँधी का जाति निर्धारण संभव नहीं है। हालाँकि नेहरू खानदान का होने के नाते ब्राह्मणों में उनका आकर्षण हो सकता है। क़रीब 27 साल तक बीएसपी और सपा की राजनीति देखकर थक चुके लोग प्रियंका गाँधी में एक ऊर्जावान नेता तलाश सकते हैं। वह राज्य की राजनीति में सक्रिय हैं और अगर 2022 में पार्टी के लिए कुछ बेहतर संभावना दिखती है तो कांग्रेस परोक्ष तौर पर उन्हें राज्य के मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में प्रस्तुत कर सकती है। चेहरे के रूप में वह अखिलेश, मायावती या आदित्यनाथ पर भारी पड़ सकती हैं।
संगठन में विविधता
राज्य में क़रीब 80 प्रतिशत आबादी दलित, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की है। प्रियंका गाँधी यूपी में इसे ध्यान में रखकर रणनीति बना रही हैं। यूपी के उनके पदाधिकारियों में अब ज़्यादातर पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक हैं। यूपी के प्रदेश अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू पिछड़ी जाति के कानू बनिया हैं। वहीं उपाध्यक्ष वीरेंद्र चौधरी ताक़तवर कुर्मी जाति के हैं। उनके अलावा प्रदेश उपाध्यक्ष पंकज मलिक पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट औऱ दीपक कुमार जाटव जाति से आते हैं। कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे कमलापति त्रिपाठी के परिवार ललितेश पति त्रिपाठी ब्राह्मणों के नेता के रूप में प्रियंका की टीम में हैं। इसके अलावा कांग्रेस में हर जाति के लोगों को हमेशा यह उम्मीद बनी रहेगी कि प्रियंका गाँधी केंद्र की राजनीति में जा सकती हैं और मुख्यमंत्री बनने में उनकी जाति के नेता का नंबर आ सकता है। राज्य की राजनीति में कम से कम सपा बीएसपी में अखिलेश व मायावती के अलावा किसी के मुख्यमंत्री बनने की संभावना नहीं है, वहीं ख़ासकर ब्राह्मण समाज के लोग बीजेपी को भी कई बार आजमा चुके हैं।
ऐसे में ब्राह्मणों के पास कांग्रेस एकमात्र विकल्प बचता है कि वह नेहरू परिवार के प्रतिनिधि के रूप में प्रियंका को ब्राह्मण नेता स्वीकार करें और भविष्य में कांग्रेस में किसी और भी ब्राह्मण मुख्यमंत्री की संभावनाएँ तलाशें।
कांग्रेस के ख़िलाफ़ यह तर्क दिया जा सकता है कि पार्टी का राज्य में कोई आधार नहीं बचा है। हालाँकि पार्टी की राज्य में वापसी न होने का अनुमान लगाने का लचर आधार है। हरियाणा में लंबे समय तक तीसरे मोर्चे का बोलबाला रहा और उसके बाद कांग्रेस सत्ता में आई। जब कांग्रेस से भी लोग ऊब गए तो बीजेपी को चुन लिया और तीसरे मोर्चे की राजनीति हाशिये पर चली गई। यूपी में भी यही हाल है। सपा-बीएसपी की कुनबापरस्ती वाली और एक जाति के दबदबे की राजनीति से लोग लंबे समय से ऊबे हुए हैं। राज्य की जनता ने बीजेपी को विकल्प के रूप में चुना लेकिन उससे भी निराशा ही हाथ लग रही है। ऐसे में राज्य के हताश लोगों के सामने कांग्रेस एक बेहतर विकल्प के रूप में आ सकती है।
प्रियंका गाँधी की कवायद है कि अधिक से अधिक दलित पिछड़े लोग पार्टी से जुड़ें। ऐसा नहीं है कि कांग्रेस ने सवर्ण तबक़े को छोड़ दिया है जिसे ओपिनियन मेकर के रूप में जाना जाता है। पार्टी में कनिष्क सिंह और प्रतापगढ़ के संदीप सिंह, राहुल और प्रियंका के ख़ास हैं। उसके अलावा संदीप सिंह के माध्यम से कांग्रेस ने आइसा/वामपंथ से जुड़े तमाम युवा सवर्ण नेताओं को पार्टी से जोड़ने की कवायद की है।
प्रियंका की सक्रियता ने कम से कम मीडिया में कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में मुख्य विपक्षी दल बना दिया है। पार्टी ने प्रदेश में उन लोगों को पदाधिकारी बनाया है जो सड़क पर उतरकर सरकार का विरोध कर सकें। पार्टी का ज़ोर है कि अधिक से अधिक कार्यकर्ता जुड़ सकें और गाँव स्तर पर संगठनात्मक ढाँचा खड़ा किया जा सके। ऐसे में अगर प्रियंका नई दिल्ली से बेघर होकर उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ पहुँचती हैं तो ब्राह्मण मतदाता उन्हें हाथोंहाथ ले सकते हैं।