बिहार: ओवैसी से परेशान क्यों हैं बीजेपी विरोधी दल?
बिहार विधानसभा चुनाव में हैदराबाद के सांसद असदउद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम को 5 सीटें मिलने की ख़बर ने देश की राजनीति में जोरदार बहस छेड़ दी है। बहस इस बात की कि क्या ओवैसी बीजेपी के एजेंट हैं। कांग्रेस चिल्ला-चिल्लाकर कह रही है कि ओवैसी की वजह से सीमांचल के इलाक़े में उसके और आरजेडी के वोटों में सेंध लगी और महागठबंधन को खासा नुक़सान हुआ और इस वजह से एनडीए को सत्ता मिली।
एआईएमआईएम सीमांचल के इलाक़े में 14 सीटों पर चुनाव लड़ी और उसे 5 सीटों पर जीत मिली है। ओवैसी ने भी चुनाव के दौरान पूरा जोर लगाया और सीमांचल में उन्होंने 65 रैलियां की। हालांकि इस जीत में उन्हें बिहार में कुशवाहा, मायावती और अन्य नेताओं के साथ बने गठबंधन का भी सहयोग मिला है। यह बात भी सही है कि सीमांचल में महागठबंधन बुरी तरह पिछड़ गया।
बिहार के नतीजों के बाद ओवैसी ने यह कहकर बीजेपी विरोधी दलों को परेशान कर दिया है कि वे पश्चिम बंगाल का चुनाव लड़ेंगे और उत्तर प्रदेश का भी। उनका कहना है कि मुल्क़ में जम्हूरियत है और यह उनका आइनी हक़ है कि उनकी पार्टी कहीं से भी चुनाव लड़ सकती है।
राजनीति के जानकारों का कहना है कि ओवैसी की बातों का बीजेपी और दक्षिणपंथी संगठन हिंदू मतदाताओं को एकजुट करने के लिए इस्तेमाल करते हैं और इसमें उन्हें सफलता भी मिलती है। उनका कहना है कि इससे सेक्युलर वोटों का बंटवारा हो जाता है और बीजेपी को फायदा मिलता है।
उनका सवाल होता है कि ओवैसी अपने गृह प्रदेश तेलंगाना में इतना खुलकर मुसलमानों की लड़ाई क्यों नहीं लड़ते, अगर वे मुसलमानों का भला ही करना चाहते हैं तो वहां उन्हें अपने दम पर सरकार बनाने की कोशिश करनी चाहिए, लेकिन वहां वह टीआरएस के साथ गठबंधन में हैं।
राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि ओवैसी ऐसे इलाक़ों में जाकर चुनाव लड़ते हैं, जहां मुसलिम आबादी बड़ी संख्या में है। वहां ओवैसी की बातों से जब मुसलिम गोलबंद होते हैं, तो इसके जवाब में बीजेपी हिंदुओं को गोलबंद करने में जुट जाती है।
कांग्रेस का कहना है कि आरएसएस और ओवैसी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और दोनों ही सांप्रदायिक राजनीति करते हैं।
ओवैसी का जवाब
अब ओवैसी का पक्ष सुनिए। बिहार में कांग्रेस और आरजेडी द्वारा उन्हें हार का जिम्मेदार बताए जाने पर वह सवाल पूछते हैं कि कांग्रेस उपचुनाव में मध्य प्रदेश में हारी, गुजरात में हारी, कर्नाटक में हारी तो क्या उनकी पार्टी वहां चुनाव लड़ने गई थी। ओवैसी का कहना है कि अगर कांग्रेस नहीं जीत पा रही है तो इसका इलजाम वह उन पर लगा देती है लेकिन इससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता।
ममता दीदी की मुश्किल
पश्चिम बंगाल में 27 फ़ीसदी मुसलिम आबादी है। ओवैसी के बंगाल आने की ख़बर से ममता बनर्जी डरी हुई हैं। ममता को मुसलमानों का अच्छा समर्थन हासिल है और सीएए-एनआरसी के ख़िलाफ़ हुए आंदोलनों की अगुवाई के कारण उन्होंने इस समर्थन को और बढ़ाया है लेकिन ओवैसी के वहां पहुंचने से उन्हें मुसलमानों के छिटकने का ख़तरा है। यह बीजेपी के लिए मुफ़ीद स्थिति है क्योंकि मुसलमानों में खासे लोकप्रिय हो रहे ओवैसी ममता के मतों में सेंध लगाएंगे।
बंगाल जैसे ही सियासी हालात उत्तर प्रदेश में हैं। यहां मुसलमानों की आबादी 17 फ़ीसदी है और कई सीटों पर वे निर्णायक स्थिति में हैं। ऐसे में इस ओर ओवैसी और दूसरी ओर योगी आदित्यनाथ, मतलब हिंदू और मुसलिम मतों का ध्रुवीकरण होना तय है और इसमें कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी जैसे सेक्युलर राजनीति करने की बात कहने वाले दलों का भट्ठा बैठ सकता है।
ओवैसी इस बात से साफ इनकार करते हैं कि वह मुसलमानों के नेता हैं। उनका कहना है कि वह समाज के दबे-कुचले वर्ग की आवाज़ को उठाते हैं और अगर मुसलमान उनके साथ जुड़ते हैं तो कांग्रेस और दूसरे विपक्षी दल इस पर उन्हें बीजेपी की बी टीम बता देते हैं।
इसमें कोई शक नहीं है कि ओवैसी ताज़ा सूरत-ए-हाल में हिंदुस्तान में मुसलमानों की सबसे बुलंद आवाज़ हैं। वह लंदन से वकालत की पढ़ाई कर चुके हैं। हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी जुबान पर उनकी अच्छी पकड़ है। राम मंदिर, तीन तलाक़, सीएए, एनआरसी के मुद्दे बीजेपी के हिंदुत्व के एजेंडे में हैं और ओवैसी इनका बाकी सेक्युलर दलों से ज़्यादा ताक़त के साथ विरोध करते रहे हैं।
जिन्ना की हिंदुस्तान के बंटवारे की थ्योरी को खुलकर नकारने वाले ओवैसी की उत्तर भारत में बढ़ती सक्रियता से यहां के बीजेपी विरोधी दलों के पसीने छूट रहे हैं। यह तय है कि अगर मुसलमान बिहार की तरह बंगाल, उत्तर प्रदेश में भी ओवैसी को समर्थन देते हैं तो निश्चित रूप से उन पर कांग्रेस और दूसरे दलों के हमले और तेज़ होंगे।