नेहरू और कांग्रेस को कोसकर कैसे छिपेगा गेम अडानी ?
लोकसभा में अडानी ग्रुप पर लगे हेराफेरी के आरोपों और अपने साथ रिश्तों को लेकर उठे सवालों का संज्ञान भी न लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हर उस संवेदनशील व्यक्ति को हैरान किया था जो उस संसदीय परंपरा के महत्व से वाक़िफ़ है जिसके तहत राष्ट्रपति के अभिभाषण में हुई बहस का प्रधानमंत्री बिंदुवार जवाब देते हैं। लेकिन राज्यसभा में हुई बहस के जवाब से तो उन्होंने उन सबको भौंचक्का ही कर दिया। क्या राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले से भी जुड़ रहे ‘अडानीगेट’ का जवाब नेहरू सरनेम लगाने या न लगाने के सवाल से हो सकता है? पीएम मोदी ने प्रथम प्रधानमंत्री और आज़ादी की लड़ाई के हीरो पं.नेहरू के प्रति असम्मान पहले भी प्रकट किया है, पर वे उनके सरनेम का भी ऐसा इस्तेमाल करेंगे, यह कोई सोच भी नहीं सकता था।
वैसे, संघ के जिस संगीत विद्यालय में मोदी जी की राजनीति के सुर सधे हैं वहाँ मालकौंस नहीं ‘राग कांग्रेस-कोस’ ही मुख्य पाठ्यक्रम है। मोदी जी, लगभग नौ साल के अपने शासन में उठे आलोचना के हर स्वर के जवाब में यही राग ‘कांग्रेस-कोस’ बजाते रहे हैं लेकिन इसे बजाते-बजाते नेहरू सरनेम न लगाने का सवाल भी उठा देना उनकी हताशा ही बताता है। कौन नहीं जानता कि कोई भी व्यक्ति अपने पिता का सरनेम ही लगाता है न कि दादी के पिता का। जो राहुल गाँधी उनके निशाने पर थे, उनके पिता राजीव ‘गाँधी’ थे जो फ़ीरोज़ ‘गाँधी’ के पुत्र थे।
1942 में फ़ीरोज़ ‘गाँधी’ से शादी के बाद ही इंदिरा ‘नेहरू’ का नया नाम इंदिरा ‘गाँधी’ हुआ था और इसे नेहरू जी और गाँधी जी का आशीर्वाद हासिल था। वैसे यह सामान्य जानकारी तो उन्हें अपनी पार्टी के सांसद वरुण गाँधी या उनके पिछले कार्यकाल में कैबिनेट की मंत्री और पार्टी सांसद मेनका गाँधी भी दे सकते थे लेकिन शायद आज़ादी के पहले घटी घटनाओं का इतिहास पलटते हुए मोदी जी शरमाते हैं क्योंकि वहाँ उनके वैचारिक पुरखे और संगठन अंग्रेज़ों के साथ खड़े नज़र आते हैं।
दरअसल, पीएम मोदी का मक़सद अनर्गल मुद्दा उठाकर उस मूल मुद्दे से ध्यान भटकाना था जो राहुल गाँधी ने लोकसभा या मल्लिकार्जुन खड़गे ने राज्यसभा में उठाये थे। अडानी ग्रुप का संज्ञान लेते हुए हर दिन दुनिया की किसी न किसी संस्था की ओर से नकारात्मक फ़ैसला लेने के ख़बर आ रही है। जिस दिन प्रधानमंत्री मोदी लोकसभा में अडानी से जुड़े सवाल को दरकिनार करते हुए जवाब दे रहे थे, उसी दिन फ्रांस की टोटल एनर्जीज़ ने अडानी ग्रुप के हाइड्रोजन प्रोजेक्ट में 50 अरब डॉलर के निवेश के फ़ैसले को रोक दिया था। उधर दुनिया के बड़े शेयर मार्केट निवेशकों में शुमार नार्वेइन वेल्थ फ़ंड ने अडानी ग्रुप के अपने सारे शेयर बेच दिये हैं और अब दुनिया में शेयर के लिहाज़ से बेहद प्रतिष्ठित रेटिंग एजेंसी मार्गेन स्टेनली कैपिटल इंटरनेशनल ने अदानी के शेयर्स के ‘फ्री फ्लोट’ को लेकर संदेह जताया है। शेयर बाज़ार में कारोबार के लिए ज़रूरी है कि कंपनी के 25 फ़ीसदी शेयर ‘फ्री फ्लोट’ हों यानी जिन्हें आम जनता ख़रीद बेच सके।
ज़ाहिर है, ये सभी एजेंसीज़ हिंडनबर्ग रिसर्च की उस रिपोर्ट पर भरोसा कर रही हैं जिसके मुताबिक अडानी ग्रुप ने शेल कंपनियों के ज़रिये अपने ही शेयर ख़रीदे। यह एक तरह से शेयर का बाज़ार भाव बढ़ाने के लिए की गई हेराफेरी है। मोदी सरकार बार-बार दावा करती रही है कि उसने शेल कंपनियों के ज़रिये होने वाले खेल को बंद कर दिया है, ऐसे में हिंडनबर्ग रिसर्च के बाद उसे ख़ुद ही कार्रवाई करनी चाहिए थी। इससे उसकी साख भी बचती और ‘मोदी-अडानी भाई-भाई’ जैसे नारों के शोर के बीच पीएम मोदी को राज्यसभा में भाषण देने की असहज स्थिति से न गुज़रना पड़ता।
लेकिन कार्रवाई की जगह सरकार ने लोकसभा की कार्यवाही से राहुल गाँधी के भाषण के हर उस भाग को हटा दिया जिसमें अडानी और मोदी के रिश्तों को लेकर सवाल पूछा गया था। हद तो ये है कि राज्यसभा से मल्लिकार्जु खड़गे के भाषण से उस शब्द को भी असंसदीय बताकर हटा दिया गया जिसे कभी बीजेपी के ही कद्दावर नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव के मौन को लेकर कहा था। सरकार के इस रवैये ने संसदीय लोकतंत्र की मर्यादाओं को तार-तार कर दिया है।
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विपक्ष को संसद में अपनी बात रखने की अगर आज़ादी नहीं होगी तो फिर संसद की ज़रूरत ही नहीं रह जाएगी। सांसदों को यह संवैधानिक संरक्षण हासिल है कि वे अपनी बात खुलकर कहें। इसीलिए सदन में कही गयी बातों पर मानहानि का मुक़दमा भी नहीं चल सकता। लेकिन मोदी सरकार इस महत्वपूर्ण संरक्षण को ख़तरा मान रही है जबकि विपक्ष में रहते हुए उसने इसका भरपूर इस्तेमाल किया था।
घोटालों के हर आरोप पर संसद न चलने देना, आरोपी मंत्रियों को जेल भिजवाने से लेकर उन्हें इस्तीफ़े तक के लिए मजबूर कर देना, उस दौर में आम बात थी जब बीजेपी विपक्ष में होती थी। और इसे संसदीय लोकतंत्र के लिहाज़ से स्वाभाविक माना जाता था। लेकिन बीजेपी के सत्ताधारी होने के बाद इस अधिकार का इस्तेमाल अपराध बताया जा रहा है।
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राज्यसभा के अपने भाषण के अंत में मोदी जी ने जिस तरह छाती पीट-पीटकर ‘एक अकेला सब पर भारी’ जैसा चुनावी जुमला बोला, वह भारतीय अर्थव्यवस्था के भविष्य के लिहाज से बेहद गंभीर चुनौती के प्रति उनका अगंभीर रवैया ही सामने लाता है। ख़ुद को एक अकेला बताते हुए वे मंत्रिमंडल के सहयोगियों के साथ काम करने वाले संसदीय गणतंत्र के प्रधानमंत्री नहीं, एक मध्ययुगीन सुल्तान की धज दे रहे थे जिसकी इच्छा ही क़ानून होती थी। जो पृथ्वी पर ईश्वर की छाया यानी ‘जिल्लेइलाही’ होता था।
ऐसी भंगिमा अपनाते हुए मोदी जी भूल गये कि समाज ‘राजा को ही नहीं, रानी को भी संदेह से परे होना चाहिए’ की सदियों पुरानी नैतिकता से बँधा है। प्रधानमंत्री चाहते तो पूरे मसले पर जाँच का आदेश देकर इस नैतिकता के शिखर हो सकते थे। लेकिन इसकी हिम्मत वो दिखा नहीं कर सके और संदेह बरक़रार रखने का आधार दे गये।
संसदीय इतिहास में विपक्षी नेताओं के गंहीर आरोपों को कार्यवाही से निकालने की ऐसी कोई मिसाल दूसरी नहीं है। यह संसदीय इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना के दस्तावेज़ी सबूत मिटाने की कोशिश है, लेकिन इससे न लोकस्मृति से यह घटना मिटेगी और न इतिहास से।
इतिहास की दुनिया संसदीय अभिलेखागार तक सीमित नहीं है। उसके विशाल परिसर में दर्ज रहेगा कि राहुल गाँधी ने 2023 के बजट सत्र में अडानी और मोदी के रिश्तों को लेकर कैसे गंभीर सवाल उठाये थे और उन्हें कार्यवाही से हटाने के लिए मोदी सरकार ने कैसा अगंभीर रवैया अपनाया था। इतिहास बदलने की इस कोशिश को भी इतिहास ही दर्ज करेगा।