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मन में गोडसे को बसा कर मल्लिकार्जुन खड़गे के ‘क्षमा-धर्म’ को न समझ पायेंगे योगी!

मन में गोडसे को बसा कर मल्लिकार्जुन खड़गे के ‘क्षमा-धर्म’ को न समझ पायेंगे योगी!

ताज्जुब होता है कि बाबा गोरखनाथ के चेले बंटोगे तो कटोगे जैसा नारा दे रहे हैं। वही गोरखनाथ जिन्होंने हिन्दू-मुस्लिम का भेद नहीं किया था।लेकिन आरएसएस ने योगी के साथ मिलकर हिन्दुत्व की राजनीति में इतना जहर घोल दिया है कि बचे हुए धर्मनिरपेक्ष हिंदुओं को अपनी छवि बचाना मुश्किल हो रही है। वरिष्ठ पत्रकार पंकज श्रीवास्तव का ओजस्वी लेख पढ़िएः 

'बँटेंगे तो कटेंगे’ जैसे हिंसक नारे और ‘बुलडोज़र न्याय’ का सिद्धांत गढ़कर राजनीति में ‘क्रोध और प्रतिशोध’ की प्रतिमूर्ति बन चुके यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे पर एक ऐसा आरोप लगाया है जो बताता है कि उन्हें न संवैधानिक मर्यादाओं की कोई परवाह है और न धर्म के मर्म का ज्ञान। उन्होंने आरोप लगाया है कि कांग्रेस अध्यक्ष ‘तुष्टिकरण’ की वजह से अपनी माँ और बहन को ज़िंदा जलाने वालों का नाम नहीं लेते!

यह सच है कि भारतीय संघ में शामिल होने से इंकार करने वाले हैदराबाद के निज़ाम के आदेश पर रज़ाकारों ने ग्रामीण तेलंगाना में ज़ुल्म की इंतेहा कर दी थी। इसी का शिकार हैदराबाद कर्नाटक के भाल्की तालुक़ा का गाँव वारावट्टी भी हुआ था। यह मल्लिकार्जुन खड़गे का गाँव था जो तब छह साल के थे। उनके पिता खेत में काम करने गये थे और रज़ाकारों ने उनके टिन शेड वाले घर में आग ला दी थी जिसमें उनकी माँ और बहन ज़िंदा जल गयी थीं।

योगी आदित्यनाथ की मानें तो मल्लिकार्जुन खड़गे को रज़ाकारों की इस क्रूरता का (मुसलमानों से) बदला लेना चाहिए। उनका ऐसा न करना तुष्टिकरण है। वे मुस्लिम वोट की लालच में ऐसा नहीं करते। योगी आदित्यनाथ भूल जाते हैं कि मल्लिकार्जुन खड़गे हत्यारे गोडसे के नहीं महात्मा गाँधी के सिपाही हैं और यह भी जानते हैं कि ‘क्षमा' और ‘दया’ धर्म का मूल है।

ऑस्कर में रिकॉर्ड बनाने वाली रिचर्ड एटनबरो की फिल्म गाँधी के एक दृश्य में मुसलमानों की भीड़ के हाथों अपने बेटे के मारे जाने से क्रोधित एक हिंदू, प्रतिहिंसा से भरकर एक मुस्लिम बच्चे का क़त्ल कर देता है। गाँधी उसे प्रायश्चित के तौर पर एक अनाथ मुस्लिम बच्चे को गोद लेने और उसे मुस्लिम पहचान के साथ पालने की सलाह देते हैं। एटनबरो का कैमरा पुत्र खोकर किसी के पुत्र की जान लेने वाले पिता की आँखों से टपकते पछतावे के आँसुओं पर फ़ोकस करता है जिसमें मनुष्यता की राह नज़र आती है।

जो सच्चा गाँधीवादी होगा, वह हिंसा-प्रतिहिंसा के खेल में कभी शामिल नहीं होगा और मल्लिकार्जुन खड़गे सच्चे गांधीवादी हैं। इसलिए उन्होंने अपने शोक को शक्ति में बदला और एक ऐसे समाज के निर्माण में अपना जीवन समर्पित कर दिया जहाँ सांप्रदायिक नफ़रत के लिए कोई स्थान न हो। इसी भावना का चरम हमें दिखता है जब सोनिया गाँधी, अपने पति और पूर्व प्रधानमंत्री शहीद राजीव गाँधी के हत्यारों को क्षमा कर देती हैं। बेटी प्रियंका गाँधी हत्यारों में शामिल रही नलनी से मिलने जेल जाती हैं और लौटकर राहुल गाँधी से कहती हैं कि उन्हें ‘नलनी के लिए बहुत बुरा लग रहा है।' राहुल गाँधी एक जनसभा में इसका ज़िक्र करते हुए क़हते हैं कि देश को ऐसी ही राजनीति की ज़रूरत है जहाँ प्रेम हो, न कि घृणा! 

लेकिन योगी आदित्यनाथ के लिए यह उच्चतर मानवीय मूल्य, कमज़ोरी या तुष्टिकरण है। उनकी मानें तो मल्लिकार्जुन खड़गे को जीवन भर रज़ाकारों के ज़ुल्म को याद करते हुए मुसलमानों से घृणा करना चाहिए। जबकि यह किसी धर्म की नहीं, निज़ामशाही को बरक़रार रखने की कोशिश कर रही एक निजी मिलीशिया का ज़ुल्म था।

 इन रज़ाकारों में उन हिंदू ज़मींदारों के लोग भी थे जिनका हित सीधे निज़ाम से जुड़ा था। यह वही दौर था जब उस इलाक़े में कम्युनिस्ट पार्टी ने सशस्त्र किसान संघर्ष छेड़कर हज़ारों गाँवों को मुक्त कराके कम्यून स्थापित कर लिये थे। इन कम्युनिस्टों में किसानों में विद्रोह की आग भरने वाले मख़्दूम मोहिउद्दीन जैसे शायर-ए-इन्क़लाब भी थे जिन पर रियासत के उन्मूलन का षड्यंत्र रचने का आरोप लगाते हुए निज़ाम मीर उस्मान अली ख़ान ने मारने का आदेश जारी किया था। सामंतवाद और उपनिवेशवाद के इस संघर्ष की जटिलता को समझने के लिए हिंदू-मुस्लिम का चश्मा उतारना पड़ेगा जिसे योगी आदित्यनाथ जैसे लोग हमेशा चढ़ाये रहते हैं।

इतिहास में जितना महत्व ‘स्मृति' का है, उतना ही महत्व ‘विस्मृति’ का भी है। मानव सभ्यता का इतिहास दमन, उत्पीड़न और अन्याय से भरा हुआ है। जो लोग इतिहास में हुए अन्याय का बदला वर्तमान में लेना चाहते हैं, उनका कोई भविष्य नहीं होता। भविष्य के लिए बहुत कुछ भूल कर आगे बढ़ना होता है।

 सम्राट अशोक ने कलिंग युद्ध में भीषण क़त्लेआम किया था तो क्या आज उड़ीसा के लोगों को पटना या बिहार के लोगों से नफ़रत करना चाहिए? दक्षिण भारत में चोल और चालुक्य शासकों में सौ साल से ज़्यादा चला जिसमें लाखों लोग मारे गये। क्या इस दुश्मनी को याद रखने की कोई वजह हो सकती है? बीजेपी हर साल ‘विभाजन विभीषिका दिवस’ मनाकर ज़ख़्मों को हरा रखना चाहती है, जबकि राष्ट्र निर्माताओं ने 15 अगस्त 1947 को एक नवीन भारत की नींव डाली थी जिसे अतीत की छाया से मुक्त भविष्य का संकल्प लेकर आगे बढ़ना था। इसके लिए ज़रूरी है कि बँटवारे के समय  हैदराबाद की हिंदू जनता पर हुए रज़ाकारों के ज़ुल्म और इसी दौर में जम्मू में हुए लाखों मुस्लिमों के क़त्ल को बुरा सपना मानकर भुलाया जाये। सामाजिक जीवन से उन कारणों को मिटाया जाये जिनकी वजह से वह हिंसा संभव हुई थी।

हद तो ये है कि संत के बाने में रहने वाले योगी आदित्यनाथ की वाणी धर्म के मर्म पर भी प्रहार करती है। वे ‘माला’ पर ‘भाला’ को तरजीह देते हुए मध्ययुगीन लड़ाइयों में वर्तमान को झोंकना चाहते हैं। जबकि शास्त्रों में धर्म के जो लक्षण बताये हैं उनमें क्षमा बेहद अहम है:

धृति: क्षमा दमोऽस्‍तेयं शौचमिन्‍द्रियनिग्रह:।

धीर्विद्या सत्‍यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्‌।।

( धैर्य, क्षमा, संयम, चोरी न करना, स्वच्छता, इंद्रियों को वश में रखना, सत्कर्मों से बुद्धि को बढ़ाना, विद्या, सत्य, क्रोध न करना धर्म के दस लक्षण हैं।)

मल्लिकार्जुन खड़गे का धैर्य और क्षमा भाव उन्हें सच्चे अर्थों में धार्मिक बताता है जबकि योगी आदित्यनाथ तो अपने गोरखनाथ पंथ की मूल प्रतिज्ञाओं को भी भूलते नज़र आ रहे हैं। गोरखनाथ ने हिंदुओं के साथ मुसलमानों को भी योग का मार्ग दिखाया था। उन्हीं का प्रभाव था कि तमाम मुस्लिम फ़क़ीर भगवा पहनकर गाँव-गाँव  गोरखवाणी गाते घूमते थे। गोरखनाथ कहते थे-

हिंदू पूजे देहुरा, मुसलमान मसीज।

जोगी पूजे परम पद, न देहुरा न मसीज।।

(अर्थात्, हिंदू मंदिर में पूजा करता है, मुसलमान मस्जिद जाता है। जबकि जोगी को न मंदिर से मतलब है और न मस्जिद है। वह तो परमपद यानी सिर्फ़ परमात्मा से लौ लगाता है।)

यह विडंबना ही है कि उन्हीं गोरखनाथ की पीठ के मौजूदा महंत योगी आदित्यनाथ हिदू-मुस्लिम विभाजन के सबसे मुखर चेहरे बने हुए है। वे विधानसभा में ईद न मनाने और मस्जिद न जाने का ऐलान करते हैं। वे ‘मुस्लिमों से नफ़रत को उन्होंने हिंदू धर्म का मूल तत्व’ प्रचारित कर रहे हैं।

आरएसएस ने योगी आदित्यनाथ को आगे करके जो दाँव चला है उसका निदान नेता जी सुभाषचंद्र बोस ने आज़ादी की लड़ाई के दौरान ही कर लिया था। उन्होंने  12 मई 1940 को बंगाल के झाड़ग्राम में एक भाषण दिया था जो 14 मई को आनंद बाज़ार पत्रिका में छपा। उन्होंने कहा था-

“हिंदू महासभा ने त्रिशूलधारी संन्यासी और संन्यासिनों को वोट माँगने के लिए जुटा दिया है। त्रिशूल और भगवा लबादा देखते ही हिंदू सम्मान में सिर झुका देते हैं। धर्म का फ़ायदा उठाकर इसे अपवित्र करते हुए हिंदू महासभा ने राजनीति में प्रवेश किया है। सभी हिंदुओं का कर्तव्य है कि इसकी निंदा करें। ऐसे गद्दारों को राष्ट्रीय जीवन से निकाल फेंकें। उनकी बातों पर कान न दें।”

अफ़सोस कि 84 साल बाद भी देश के सामने एक बार फिर वैसी ही परिस्थिति है। धर्म को अपवित्र करने वाले ग़द्दारों को राष्ट्रीय जीवन से निकाल फेंकने का नेता जी का आह्वान, पूर्णाहुति का इंतज़ार कर रहा है। क्या भगवा लबादा देखकर सर झुका देने वाले उनकी बात पर कान देंगे?

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