अपने राज्य में श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा क्यों नहीं दे रहे योगी आदित्यनाथ?
कोविड-19 को रोकने के लिए की गई देशबंदी (लॉकडाउन) के बाद भारत में मज़दूरों की समस्या भयावह रूप से सामने आ गई है। पूरी दुनिया में लॉकडाउन किए गए, लेकिन कोई भी ऐसा देश नहीं है, जहाँ इतनी बड़ी संख्या में मज़दूरों को सड़क पर भूख से बिलखना पड़ा हो और सैकड़ों किलोमीटर लंबी यात्रा करनी पड़ी हो। इस बीच औद्योगिक घराने चिंतित हैं कि श्रमिक वापस न लौटे तो काम कैसे शुरू होगा। वहीं उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने घोषणा की है कि उन्हीं राज्यों में श्रमिकों को काम करने के लिए वापस भेजा जाएगा जो मज़दूरों को सामाजिक सुरक्षा की गारंटी देंगे।
मज़दूरों की समस्या नई नहीं है। समय-समय पर यह ख़बरें आती रही हैं कि वे महानगरों में कितनी ख़राब परिस्थितियों में जीने के लिए विवश हैं। देशबंदी के दो दिन के भीतर ही महानगरों में मज़दूरों के घाव का यह मवाद सड़कों पर बहने लगा जिसे पूरी दुनिया ने देखा। उत्तर प्रदेश में सिर्फ़ गुजरात से ट्रेनों से क़रीब 7 लाख विस्थापित मज़दूर आए हैं। पैदल चलकर आने वालों या अन्य राज्यों से आने वालों की गिनती अभी बाक़ी है। इस बीच योगी आदित्यनाथ ने घोषणा की है कि यूपी लौटकर आए हर कामगार को राज्य में काम दिया जाएगा। उन्होंने यह भी घोषणा की कि कामगारों व श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा की गारंटी देने वाले पर ही अन्य राज्यों को ज़रूरत के मुताबिक़ मैनपॉवर मुहैया कराया जाएगा।
क्या यह दिल से कह रहे हैं योगी जी?
समीक्षा बैठक में आदित्यनाथ की यह घोषणा सुनने में बहुत लुभावनी लगती है। हर हाथ को अपने राज्य में काम। उन्हीं राज्यों में श्रमिकों को भेजा जाना, जहाँ सामाजिक सुरक्षा की गारंटी हो। अगर हम उत्तर प्रदेश की स्थिति देखें तो नोएडा और ग्रेटर नोएडा उसी तरह से रोज़गार के बड़े केंद्र हैं जिस तरह से दिल्ली या गुड़गाँव या मुंबई, सूरत, चेन्नई और बेंगलूरु। लॉकडाउन की घोषणा के समय नोएडा से भी भयानक भगदड़ मची और लोग पैदल ही अपने गृह जनपद की ओर भागे। अनुमान के मुताबिक़ नोएडा के विशेष आर्थिक क्षेत्र से जुड़े क़रीब 50 हज़ार मज़दूर भागे हैं।
ये ऐसे श्रमिक हैं जो छोटे शहरों से बेहतर रोज़गार की उम्मीद में या इसका आश्वासन पाकर आते हैं। नोएडा में ठेके पर काम करते हैं। ठेकेदारों का एक समूह होता है जो इनसे काम करवाता है और ये श्रमिक कंपनी के पे-रोल पर काम नहीं करते और न तो इनका कोई रिकॉर्ड होता है। अमूमन कंपनियाँ इनको कपड़े में कुछ डिजाइन बनाने, बटन लगाने जैसे काम देते हैं।
ये मज़दूर बमुश्किल जीवन-यापन के लिए पैसे कमा पाते हैं। सिर्फ़ गुजरात से ही नहीं, नोएडा से भी लाखों की संख्या में मज़दूर भागे हैं।
यूपी का फ़ैसला
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) ने देश के 10 मज़दूर संगठनों के आवेदन पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिट्ठी लिखी है। आईएलओ ने चिंता जताते हुए कहा कि भारत के राज्यों, ख़ासकर गुजरात और उत्तर प्रदेश में जिस तरह से मज़दूरों के अधिकारों को स्थगित किया गया, वह चिंता के योग्य है। भारत 1919 में आईएलओ की स्थापना के समय से ही संस्थापक सदस्य है और देश के स्वतंत्र होने के बाद भी आईएलओ के कंवेंशन को स्वीकार करते हुए श्रमिकों की सुरक्षा की गारंटी दी हुई है। आईएलओ के नियम भारत पर बाध्यकारी हैं।
इसके बावजूद उत्तर प्रदेश सरकार ने भारत में तमाम श्रम क़ानूनों को 3 साल के लिए स्थगित कर दिया। 6 मई 2020 को ही योगी आदित्यनाथ की अध्यक्षता में हुई कैबिनेट की बैठक में अध्यादेश को मंज़ूरी दे दी।
इसमें औद्योगिक विवादों को निपटाने, व्यावसायिक सुरक्षा, श्रमिकों के स्वास्थ्य एवं काम करने की स्थिति तथा ट्रेड यूनियनों, ठेके पर काम करने वाले मज़दूरों और विस्थापित मज़दूरों से संबंधित क़ानून शामिल हैं, जिन्हें 3 साल के लिए स्थगित कर दिया गया है।
योगी की कौन सी बात सही?
ऐसे में योगी आदित्यनाथ की कौन सी बात सही मानी जाए। 6 मई को अध्यादेश को मंज़ूरी देकर उन्होंने प्रवासी मज़दूरों सहित श्रमिकों के तमाम अधिकार तीन साल के लिए छीन लिए। वहीं 25 मई को लॉकडाउन की समीक्षा करने के लिए की गई उच्च स्तरीय बैठक के बाद उन्होंने प्रेस रिलीज जारी करवाई कि सामाजिक सुरक्षा की गारंटी पर कामगारों को बाहर भेजेंगे।
मज़दूरों का शोषण
भारत में सिर्फ़ एमएसएमई ही नहीं, बड़े उद्योग भी सस्ते श्रम और मज़दूरों की ग़रीबी का फ़ायदा उठाकर उनसे मामूली पैसे में हाड़तोड़ मेहनत कराने को विवश करते हैं। बड़े उद्योगों का तरीक़ा थोड़ा अलग होता है। इसे समझने के लिए बड़ी कार कंपनियों का उदाहरण लिया जा सकता है। बड़ी कंपनियाँ अपने वेंडरों से ज़्यादातर सामान बनवाती हैं। मसलन, कार में लगने वाले प्लास्टिक के सामान, इंटीरियर डिजाइन, म्यूजिक सिस्टम, गियर बॉक्स वगैरह छोटे वेंडर बनाकर देते हैं। ये वेंडर 50 करोड़ या 400 करोड़ रुपये की कंपनी चला रहे होते हैं जिनके यहाँ ठेके पर श्रमिक काम करते हैं। यह वेतन बहुत मामूली होता है। यह व्यवस्था देश में चलने वाले हर उद्योग में लागू हो गई है। अब तो कंपनियों ने भी स्थायी कर्मचारियों की भर्ती बंद कर दी है और वे मामूली तनख्वाह पर 6 महीने से लेकर 3 साल के ठेके पर मज़दूर रखने को प्राथमिकता देती हैं।
बेहद मामूली वेतन पाने वाले कर्मचारी अपनी दैनिक ज़रूरतें बमुश्किल पूरी कर पाते हैं। अगर थोड़ी सी सैलरी ज़्यादा हो तो कर्मचारी स्कूटर लोन, आवास ऋण या क्रेडिट कार्ड के दुश्चक्र में फँस जाते हैं।
वापसी को तैयार नहीं श्रमिक
देश के विभिन्न राज्यों से लौटे श्रमिक फिर काम पर लौटने को तैयार नहीं हैं। अमर उजाला समाचार पत्र की एक ख़बर के मुताबिक़ चित्रकूट के दीन दयाल रिसर्च इंस्टीट्यूट ने उत्तर प्रदेश के चित्रकूट और मध्य प्रदेश के सतना ज़िले के 150 गाँवों में वापस लौटे मज़दूरों से बात की जिनमें से 70 प्रतिशत प्रवासी मज़दूर फिर लौटकर काम पर नहीं जाना चाहते हैं। उन्होंने अपने पैतृक स्थल पर पहुँचने में जो दारुण दुख झेले हैं, वह उन्हें काम पर वापस लौटने से फ़िलहाल रोक रहे हैं। हालाँकि सरकार के लिए शहरों की ओर फिर से विस्थापन कराना बहुत मुश्किल नहीं है। अभी मनरेगा में पैसे झोंके गए हैं जिससे शहरों से वापस लौटे श्रमिक गाँवों में ज़िंदा रह सकें। लेकिन जैसे ही कोरोना का संकट ख़त्म होगा और शहरों को मज़दूरों की ज़रूरत पड़ेगी, गाँवों में पैसे भेजना कम करते ही ये मज़दूर एक बार फिर भूख से बिलबिलाकर शहर की झुग्गियों में लौटने को विवश हो जाएँगे।
इस समय काम के ऐसे हालात पैदा कर दिए गए हैं कि श्रम क़ानून तो छोड़िए, न्यूनतम मानवीय गरिमा के मुताबिक़ भी काम मुश्किल होता जा रहा है। ऐसे में यह सुनकर भले ही राहत महसूस होती है कि देश के किसी बड़े राज्य के मुख्यमंत्री ने मज़दूरों के सामाजिक सुरक्षा की बात की है लेकिन हक़ीक़त यह है कि वह मुख्यमंत्री ख़ुद अपने ही राज्य में मज़दूरों को सुरक्षा देने को लेकर गंभीर नहीं हैं। इतना ही नहीं, पहले से मिली क़ानूनी सुरक्षा को भी अध्यादेश के माध्यम से छीनने की तैयारी चल रही है जिसे राष्ट्रपति की मंज़ूरी मिलते ही लागू कर दिया जाएगा।