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यशवंत सिन्हा का गठबंधन किसका नुक़सान करेगा - नीतीश या तेजस्वी का?

यशवंत सिन्हा का गठबंधन किसका नुक़सान करेगा - नीतीश या तेजस्वी का?

बिहार विधानसभा का चुनाव दो गठबंधनों के बीच ही तय मालूम पड़ता है लेकिन इसमें यशवंत सिन्हा के नेतृत्व में तीसरा कोण भी उभरने की कोशिश कर रहा है। वह किनको ज़्यादा नुक़सान पहुँचाएँगे?

बिहार विधानसभा का चुनाव दो गठबंधनों के बीच ही तय मालूम पड़ता है लेकिन इसमें तीसरा कोण भी उभरने की कोशिश कर रहा है। यह प्रयास पूर्व केंद्रीय वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा के नेतृत्व में किया जा रहा है। उनके साथ पूर्व केंद्रीय राज्य मंत्री देवेंद्र प्रसाद यादव, नागमणि, पूर्व सांसद अरुण कुमार और पूर्व मंत्री नरेंद्र सिंह और सत्यानंद शर्मा भी हैं। इसी कड़ी में वह दस दिवसीय ‘बदलो बिहार- बनाओ बेहतर बिहार जनसंवाद यात्रा’ शुरू कर अपनी ज़मीन तलाशने में लग गये हैं। यशवंत सिन्हा के नेतृत्व वाला तीसरा संभावित मोर्चा जनसंवाद के माध्यम से सत्तारूढ़ एनडीए और विपक्षी महागठबंधन दोनों की विफलता बताने का प्रयास करेगा। यशवंत सिन्हा के अनुसार, ‘हम ज़िलों में जाकर छोटे-छोटे समूहों में सोशल डिस्टेंसिंग का अनुपालन करते हुए जनता के साथ सीधा संवाद बनायेंगे’।

एनडीए के वर्चुअल चुनाव प्रचार को वह बेहद ख़र्चीला, एकतरफ़ा और बेमानी संवाद मानते हैं। वह कहते हैं, “चुनाव के दौरान नेता और जनता के बीच दोतरफ़ा संवाद स्थापित होता है। जनता भी अपना पक्ष रखती है, जबकि वर्चुअल प्रचार या संवाद में ऐसा कुछ नहीं हो पाता। हमारा उद्देश्य ‘बदलो बिहार- बनाओ बेहतर बिहार है’ जिसे हम मिलकर ज़मीन पर उतारेंगे”।

महागठबंधन की असफलता के सवाल पर यशवंत सिन्हा का जवाब था कि ‘इसका जवाब उनके नेता ही देंगे मैं उसपर कोई टिपण्णी नहीं करूँगा’।

वहीं एनडीए से उनकी शिकायत पर वह राज्य में सत्तारूढ़ एनडीए नेतृत्व के ख़िलाफ़ मुखर हो जाते हैं और कहते हैं,

नीतीश कुमार पिछले 15 सालों से बिहार के मुख्यमंत्री हैं। इन 15 सालों में बिहार की क्या हालत हुई है, यह सबके सामने है। इसकी ज़्यादा व्याख्या करने की ज़रूरत नहीं है।


यशवंत सिन्हा

वह बिहार से हर साल लाखों की संख्या में हो रहे पलायन की चर्चा करते हैं और बताते हैं कि ‘हर बिहारी जो जीवन में आगे बढ़ना चाहता है उसे राज्य से बाहर जाना पड़ता है। यहाँ के लोगों को पढ़ाई, चिकित्सा, रोज़गार के लिए बाहर निकलना पड़ता है। मतलब बिहार में कुछ नहीं है’।

जहाँ एक ओर राजनीति में युवा चेहरे को लाने की बात चल रही है। राहुल गाँधी-तेजस्वी प्रसाद यादव युवाओं की बात कर रहे हैं और बीजेपी ने तो अपने नेताओं की रिटायरमेंट उम्र भी लगभग तय कर दी है, सत्तर साल से अधिक आयु के लोगों को बेटिकट कर दिया जा रहा है, ऐसे राजनीतिक परिदृश्य के बीच क़रीब 80 साल के यशवंत सिन्हा बिहार की राजनीति में अपनी नयी पारी की शुरुआत करने की कोशिश कर रहे हैं। हालाँकि उनका मानना है, ‘इस उम्र में भी मैं किसी राजनीतिक प्रासंगिकता की तलाश में नहीं हूँ। मैं कुछ लोगों के साथ मिलकर बिहार के लिए कुछ अच्छा करने का प्रयास कर रहा हूँ। मैं राजनीतिक प्रासंगिकता का भूखा नहीं हूँ। वह थी, है और रहेगी।’

भारतीय प्रशासनिक सेवा के 1960 बैच के अधिकारी रहे यशवंत सिन्हा बीजेपी के अटल- आडवाणी युग में अपनी ऊँचाई तक पहुँचे लेकिन नरेंद्र मोदी-अमित शाह के दौर की बीजेपी में वो शत्रुघ्न सिन्हा और अरुण शौरी के साथ पार्टी विरोधी सुर मिलाने की वजह से हाशिये पर चले गए।

बिहार विधानसभा की 243 सीटों के लिए वर्ष 2015 में 157 अलग-अलग दलों ने अपने-अपने प्रत्याशी मैदान में उतारे थे। इन दलों में राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय मान्यता प्राप्त दल, दूसरे राज्यों से मान्यता प्राप्त दल और ग़ैर-मान्यता प्राप्त निबंधित राजनीतिक दल शुमार थे। तब 3450 (3177 पुरुष और 273 महिला) प्रत्याशियों ने चुनावी मैदान में ज़ोर आजमाया था जिनमें 2935 (2714 पुरुष और 221 महिला) प्रत्याशियों की जमानत भी नहीं बच पायी थी। 

उस चुनाव में महागठबंधन की ओर से आरजेडी और जेडीयू ने 101-101 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे और शेष 41 सीटों पर कांग्रेस के प्रत्याशी मैदान में थे। इनमें से आरजेडी ने 81, जेडीयू ने 71 और कांग्रेस ने 40 सीटों पर जीत दर्ज की थी।

उधर एनडीए को कुल सीटों में से महज 58 पर ही जीत हासिल हुई थी। तब बीजेपी के 157 प्रत्याशियों में से 53, एलजेपी और आरएलएसपी ने 42 और 23 प्रत्याशी दिए थे जिनमें सफल दो-दो ही रहे। वहीं जीतन राम मांझी की पार्टी हम को 21 उम्मीदवारों में से सिर्फ़ एक को ही सफलता मिली थी। अब देखना यह है कि दो मज़बूत गठबंधनों के बीच यशवंत सिन्हा की अगुवाई वाला तीसरा संभावित मोर्चा आगामी बिहार विधानसभा चुनाव में तीसरा कोण बनने में कितना सफल हो पाता है और कितनी सीट अपनी झोली में रख पाने में सफल रहता है।

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