आज राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की शहादत का दिन है। यूँ तो देश हर साल गांधी जी को उनकी पुण्यतिथि पर याद करता है लेकिन ये दिन खास है। खास इस मायने में कि गांधी की शहादत के 75 वर्ष की शुरुआत हो रही है और देश की आज़ादी का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है।
देश की आज़ादी और गांधी जी की शहादत एक इतिहास का हिस्सा है। इसमें खुशी और गम दोनों मिले हुए हैं क्योंकि एक कट्टर साम्प्रदायिक हिन्दू ने 30 जनवरी को तीन गोलियाँ दागकर अपने वहशीपन का परिचय दिया। यह एक ऐसा दाग है, ऐसा दुखद अध्याय है जिसे हरगिज भूलाया नहीं जा सकता, जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता लेकिन चिंता की बात है कि कल इस देश में गांधी के हत्यारे पर एक फ़िल्म रिलीज हो रही है।
‘मैंने गाँधी को क्यों मारा’ नामक यह फ़िल्म पूरे देश को फिर एक टीस देगी क्योंकि इसमें हत्यारे का तर्क दिया जाएगा। सभी जानते हैं कि उस हत्यारे ने अदालत में अपना लम्बा चौड़ा बयान दिया था और उसने अपनी करतूत को न्यायोचित ठहराया था। दुख इस बात का है कि इस फ़िल्म के ज़रिये उस बयान को फिर न्यायोचित ठहराया जाएगा।
गांधी इस मुल्क में ही नहीं पूरी दुनिया में प्रतिरोध की सबसे बुलंद आवाज़ रहे हैं। आज ज़रूरत है कि गांधी की तरह प्रतिरोध की आवाज़ को बुलंद किया जाए क्योंकि केंद्र में एक ऐसी सरकार है जो गांधी के हत्यारे को ‘देशभक्त’ मानती है। वह एक तरफ़ नेताजी सुभाष की मूर्ति लगाती है और दूसरी तरफ़ गांधी के हत्यारे पर फ़िल्म भी कल रिलीज करवाती है।
इस छद्म गांधी प्रेम और देशप्रेम को आज समझने की ज़रूरत है। इसलिए आज देश भर के लेखक अखिल भारतीय सांस्कृतिक अभियान का शुभारम्भ कर रहे हैं। देश के 5 सौ से अधिक लेखकों और बुद्धिजीवियों ने इस अभियान का संकल्प लिया है जिसमें सभी धारा के लेखक शामिल हैं, वाम पंथी हों या समाजवादी या गांधीवादी या स्वतंत्र विचारों के रचनाकार।
यह पहला मौक़ा है जब लेखकों का एक संयुक्त मोर्चा बना है और उसने गांधी की शहादत पर यह ऑनलाइन कार्यक्रम करने का फ़ैसला किया है।
यह अकारण नहीं कि आज वामपंथी लेखकों को भी गांधी का स्मरण हो रहा है जबकि एक जमाने में यशपाल और हंसराज रहबर जैसे लोगों ने गांधी पर तीखे हमले किये अन्यथा आज़ादी की लड़ाई में मैथिली शरण गुप्त से लेकर प्रेमचन्द, गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी, बनारसी दासचतुर्वेदी, शिवपूजन सहाय, जैनेंद्र या दिनकर जैसे सभी लेखक गांधी के अनुचर थे। निराला जैसे क्रांतिकारी और राहुल सांकृत्यायन जैसे वामपंथी भी गांधी के प्रशंसक थे।
आज़ादी के बाद ही वामपंथी लेखकों के लिए गांधी प्रेरणा के प्रतीक भले न हों पर कोई गांधी को अनसुना नहीं कर सका। शायद यह कारण है कि दस से अधिक लेखक संगठनों और जनसंगठनों द्वारा शुरू किया गया यह अभियान देश में विकराल होती साम्प्रदायिकता फासीवाद और सरकारी दमन तथा अत्याचार के विरुद्ध एक व्यापक मंच बनेगा जिसके ज़रिये साल भर प्रतिरोध दिवस मनाया जाएगा। इस अभियान में प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, जन संस्कृति मंच, अखिल भारतीय दलित लेखक संघ और दलित महिला लेखक संघ भी शामिल हैं।
कल ऑनलाइन कार्यक्रम में प्रसिद्ध लेखक संस्कृति कर्मी अशोक वाजपेयी इस अभियान के बारे में उद्घाटन भाषण देंगे और गांधी जी की शहादत पर एक संगोष्ठी होगी जिसमें प्रसिद्ध गांधीवादी एवं गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष कुमार प्रशांत तथा कई मराठी और दलित लेखक भाग लेंगे।
कार्यक्रम में भीमा कोरेगांव घटना के आरोप में तथा दिल्ली दंगे के आरोप में फँसाये गए लोगों को रिहा करने की मांग से सम्बंधित एक प्रस्ताव भी पारित किया जाएगा। कल लखनऊ, रांची, इलाहाबाद में भी ऑनलाइन कार्यक्रम होंगे। आज भी प्रसिद्ध कवि एवम जनसंस्कृति मंच के संस्थापक गोरख पांडेय की स्मृति में कार्यक्रम हो रहा है।
कोरोना का संकट ख़त्म होते ही भारतीय भाषाओं के लेखकों का एक बड़ा राष्ट्रीय सम्मेलन होगा जिसमें सभी देश भर के लेखकों को आमंत्रित किया जाएगा।
इस अभियान में इप्टा, जन नाट्य मंच, प्रतिरोध का सिनेमा संगवारी लिखावट समेत कई संगठन शामिल हैं और भविष्य में और संगठनों को जोड़ा जाएगा। हिंदी उर्दू के नामी गिरामी लेखकों, शायरों की स्मृति में यह अभियान कार्यक्रम कर जनता की आवाज़ भी उठाएगा।
इस अभियान से ज्ञानरंजन, नरेश सक्सेना, अशोक वाजपेयी, इब्बार रब्बी, राजेन्द्र कुमार, असग़र वज़ाहत, राजेश जोशी, पंकज बिष्ट, विष्णु नागर, रविभूषण, वीरेंद्र यादव, रामजी राय, रेखा अवस्थी, विजय कुमार, मुकेश कुमार समेत 500 से अधिक लेखक जुड़े हैं।
ये लेखक फासीवाद से कितना कारगर लड़ पाएंगे यह तो समय बताएगा लेकिन आज इस अभियान में पत्रकारों और नागरिक समाज को जोड़ने की ज़रूरत है। साथ ही अब जनता को भी जागने का समय आ गया है अन्यथा आज गांधी के रास्ते पर चलनेवालों की हत्या होगी क्योंकि इस मुल्क में कई गोडसे पैदा हो गये हैं।