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कोरोना: हालात बेहद ख़राब, अर्थव्यवस्था को बचाएं या लोगों को?

कोरोना: हालात बेहद ख़राब, अर्थव्यवस्था को बचाएं या लोगों को?

कोरोना संकट ने दुनिया को बेहद मुश्किल दौर में लाकर खड़ा कर दिया है। बहस इस बात को लेकर हो रही है कि हम अपनी अर्थव्यवस्था को बचाएं या लोगों को?

कोई भी बंदा भविष्यवाणी करने का जोख़िम उठाने के लिये तैयार नहीं है कि जो भयानक दौर अभी चल रहा है उसका कब और कैसे अंत होगा? और यह भी कि अंत होने के बाद पैदा होने वाले उस संकट से दुनिया कैसे निपटेगी जो और भी ज़्यादा मानवीय कष्टों से भरा हो सकता है? स्वीकार करना होगा कि पश्चिमी देशों में जिन मुद्दों को लेकर बहस तेज़ी से चल रही है उन्हें हम छूने से भी क़तरा रहे हैं। पता नहीं, हम कब तक ऐसा कर पाएँगे क्योंकि उनके मुक़ाबले हमारे यहाँ तो हालात और ज़्यादा मुश्किलों से भरे हैं। 

पश्चिम में बहस इस बात को लेकर चल रही है कि प्राथमिकता किसे दी जाये। तेज़ी से बर्बाद होती अर्थव्यवस्था को बचाने को या फिर संसाधनों के अभाव के साथ लोगों को बचाने को? अमेरिका में जो लोग उद्योग-व्यापार के शिखरों पर हैं, वे आरोप लगा रहे हैं कि सरकार अर्थव्यवस्था को जो नुक़सान पहुँचा रही है, उसकी भरपाई नहीं हो सकेगी। 

ऐसे लोगों का कहना है कि अगर समूचा तंत्र लोगों को बचाने में ही झोंक दें तो भी पर्याप्त चिकित्सा संसाधन और दवाएँ उपलब्ध नहीं हैं और यह भी कि सभी लोगों को बचाए जाने तक तो आर्थिक स्थिति पूरी तरह से चौपट हो जाएगी। लाखों-करोड़ों लोग बेरोज़गार हो जाएँगे। आज भी स्थिति यही है कि जो लोग चिकित्सीय जिम्मेदारियां निभाने, आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन और आपूर्ति आदि के कामों में लगे हैं, केवल उन्हीं के पास रोज़गार बचा है। अतः आर्थिक गतिविधियाँ तुरंत चालू हों। 

बूढ़ों को बचाएं या जवानों को?

महामारी से प्रभावित लोगों को बचाने के मामले में भी बहस इसी बात को लेकर है कि प्राथमिकता किसे दी जाए? उन बूढ़े बीमारों को, जो अब किसी भी तरह का उत्पादक काम करने की उम्र पूरी कर चुके हैं और बचा लिए गए तो भी अर्थव्यवस्था पर भार बनकर ही रहेंगे, या फिर उन लोगों को जिनके पास अभी उम्र है और उनका जीवित रहना देश को फिर से आर्थिक पैरों पर खड़ा करने के लिए आवश्यक है? यह बहस सबसे पहले इटली में डॉक्टरों की ओर से शुरू हुई थी जहाँ पर मरने वालों की संख्या अब दुनिया में सबसे ज़्यादा यानी कि बारह हज़ार से ज़्यादा हो गई है। इनमें भी अधिकांश लोग बूढ़े बताए जाते हैं। 

भारतीय आस्थाओं, मान्यताओं और चलन में पश्चिम की तरह की सोच के लिए चाहे अभी स्थान नहीं हो पर जो लोग फ़ैसलों की जिम्मदारियों से बंधे हैं उन्हें भी कुछ तो तय करना ही पड़ेगा। वह यह कि क्या जनता के साथ-साथ आर्थिक गतिविधियाँ भी ‘लॉकडाउन’ में रहें? और कि अगर 1826 लोगों के बीच अस्पताल का केवल एक पलंग उपलब्ध हो, तो यह किसी बूढ़े व्यक्ति को पहले मिले कि जवान को? 

हमने नए अस्पताल बनाने का काम तेज़ी से शुरू कर दिया है और वेंटिलेटर ख़रीदने के ऑर्डर भी जारी कर दिए हैं। पर क्या तब तक सब कुछ रुका रह सकता है? हाँ, वे रेलगाड़ियाँ अवश्य थमी रह सकती हैं जिनकी बोगियों को ‘आइसोलेशन वॉर्ड्स’ में बदला जा रहा है। हालात कहीं और गंभीर तो नहीं हो रहे हैं?

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