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व्लादीमिर पुतिन को ग़ुस्सा क्यों आता है?

व्लादीमिर पुतिन को ग़ुस्सा क्यों आता है?

रूसी राष्ट्रपति पुतिन आरोप लगाते हैं कि अमेरिका और नाटो के देश पूर्वी यूरोप के लोगों को रूस के खिलाफ भड़का रहे हैं लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है?

रूसी राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन ने यूक्रेन पर हमला बोलते हुए युक्रेनी सैनिकों को हथियार डाल कर घर लौट जाने को कहा। उन्होंने कहा “वे यूक्रेन का विसैन्यीकरण और विनात्सीकरण करने जा रहे हैं और जो इस काम में आड़े आएगा, और हमारे देश के लिए ख़तरा बनने की कोशिश भी करेगा, उसका तत्काल जवाब दिया जाएगा और ऐसा हश्र किया जाएगा जैसा इतिहास में कभी नहीं हुआ।” 

रूस की सेनाएँ पूर्व में डॉनबास, उत्तर में बेलारूस, और दक्षिण में क्राइमिया से एक साथ यूक्रेन में दाख़िल हुई हैं। यूक्रेन की राजधानी कीव, ख़ारकीव, ओडेसा और मारियूपोल जैसे बड़े शहरों के सैनिक ठिकानों पर मिसाइलों से हमले चल रहे हैं और देश के बड़े नागरिक और सैनिक हवाई अड्डों और हथियारों को निशाना बनाया गया है। रूस ने यूक्रेन के 80 से अधिक सैनिक ठिकानों को नष्ट करने और दोनों पक्षों ने बड़ी संख्या में सैनिकों और नागरिकों के मारे जाने के दावे किए हैं।

हमले के बाद देश और दुनिया के नाम अपने संबोधन में तमतमाए और दाँत पीसते राष्ट्रपति पुतिन ने अमेरिका और नाटो को ख़ूब लताड़ा। अपने पिछले साल के लंबे लेख में उन्होंने सोवियत रूस के बिखराव पर रोष प्रकट करते हुए उसे ‘ऐतिहासिक रूस की मौत’ बताया था।

वे सोवियत संघ से अलग हुए पूर्वी यूरोप के 14 देशों के नाटो में शामिल किए जाने को रूस के अस्तित्व के लिए ख़तरा मानते हैं। उनका आरोप है कि पूर्वी यूरोप में पाँव पसार कर नाटो ने अपना वादा तोड़ा है। उनका कहना है - “नाटो ने 1990 में वादा किया था कि नाटो की सेनाएँ जर्मनी से आगे पूर्वी यूरोप के किसी देश में तैनात नहीं की जाएँगी।” 

पर नाटो संगठन का और इतिहासकारों का कहना है कि पुतिन का आरोप एकदम निराधार है। नाटो ने ऐसा कोई वादा कभी नहीं किया। नाटो महासचिव मानफ़्रेड वोर्नर ने अपने 17 मई 1990 के भाषण में यह कहा था कि जब तक सारी सोवियत सेनाएँ पूर्वी बर्लिन और पूर्वी जर्मनी से वापस नहीं चली जातीं तब तक नाटो की सेना पूर्वी जर्मनी में कदम नहीं रखेगी। केवल जर्मन सेना ही वहाँ भेजी जाएगी। पूर्व सोवियत नेता मिख़ाइल गोर्बाचोफ़ भी नाटो और इतिहासकारों की इस बात की तसदीक करते हैं।

पुतिन इस बात से भी नाराज़ हैं कि नाटो ने पूर्वी यूरोप के रूमानिया और पोलैंड जैसे कई देशों में अमेरिका के प्रक्षेपास्त्र लगा रखे हैं जो उसके आक्रामक इरादों का सबूत हैं। जबकि नाटो का कहना है कि ये प्रक्षेपास्त्र नाटो सदस्य देशों के रूसी हमलों के भय को दूर करने के लिए लगाए गए हैं।

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नाटो अपने सदस्य देशों को सुरक्षा कवच प्रदान करता है। पड़ोसी देशों पर हमले नहीं करता। पुतिन यह आरोप भी लगाते हैं कि अमेरिका और नाटो के देश पूर्वी यूरोप के लोगों को रूसियों के ख़िलाफ़ उकसा रहे हैं। उनका कहना है कि मॉलदोवा, जॉर्जिया और यूक्रेन में उन्हें रूसियों की सुरक्षा के लिए हस्तक्षेप करना पड़ा है।

वास्तविकता क्या है? क्या नाटो एक विस्तारवादी संगठन है? क्या नाटो से रूस जैसी सैनिक महाशक्ति के अस्तित्व को ख़तरा हो सकता है? क्या वाकई अमेरिका और नाटो के देश वाकई पूर्वी यूरोप के देशों में रूस विरोधी भावनाएँ भड़का रहे हैं?

क्या राष्ट्रपति पुतिन का डर और ग़ुस्सा जायज़ हैं? या फिर ये उनकी किसी महत्वाकांक्षा को पूरी करने की चाल का हिस्सा हैं? नाटो और सोवियत संघ का अब तक का इतिहास क्या कहता है? क्या वाकई यूक्रेन को लेनिन ने बनाया था, जिसका कि पुतिन दावा कर रहे हैं?

आधुनिक इतिहास का हर विद्यार्थी जानता है कि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद 1945 के इसी फ़रवरी के महीने में क्राइमिया के सैलानी शहर याल्ता में स्टालिन, रूज़वेल्ट और चर्चिल का शिखर संमेलन हुआ था जिसमें तीनों नेता इस बात पर सहमत हुए थे कि यूरोप में लोगों को स्वतंत्र चुनावों के ज़रिए अपनी मर्ज़ी की सरकारें बनाने की छूट दी जाएगी। पर हुआ एकदम उलट। 

स्टालिन ने अपने कम्युनिस्ट पार्टी तंत्र के ज़रिए पहले 1945 में अल्बेनिया और रूमानिया में कम्युनिस्ट सरकारें बनवाईं। उसके बाद 1946 में बल्गेरिया में कम्युनिस्ट सरकार बनी, 1947 में पोलैंड में और 1948 आते-आते हंगरी और चैकोस्लोवाकिया भी कम्युनिस्ट हो गए।

इससे पहले कि अमेरिका युद्ध में तबाह हुए यूरोप के आर्थिक पुनर्निर्माण के लिए मार्शल योजना बनाता और लागू करता, सारा पूर्वी यूरोप स्टालिन के सोवियत संघ की कठपुतली बन चुका था। पश्चिमी यूरोप के देशों को सुरक्षा कवच प्रदान करने और स्टालिन के बढ़ते इरादों पर रोक लगाने के लिए 1949 में नाटो संगठन का गठन किया गया। लेकिन वह भी 1956 और 1968 में हंगरी और चैकोस्लोवाकिया में सोवियत सरकारों के ख़िलाफ़ उठी आवाज़ों की कोई मदद नहीं कर पाया। वारसा संधि की सोवियत सेना ने उन्हें बेरहमी से कुचल डाला। अपनी स्थापना से आज तक नाटो ने यूरोप में किसी देश पर क़ब्ज़ा या अकारण हमला नहीं किया है।

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बोस्निया में 1992 का सैनिक हस्तक्षेप और सर्बिया पर 1999 का हमला बोस्निया और कोसोवो के मुस्लिम अल्पसंख्यकों के नरसंहार को रोकने के लिए किया गया था। न नाटो ने बोस्निया पर क़ब्ज़ा किया और न ही सर्बिया पर। दोनों देश आज स्वतंत्र हैं। इसके विपरीत सोवियत संघ ने 1945 से 1968 के बीच पूर्वी यूरोप के देशों में बार-बार सत्ता परिवर्तन कराए हैं और न होने पर हमले किए हैं। 

पुतिन ने किए हमले

ख़ुद पुतिन अपने 22 वर्ष लंबे शासन में तीन बार हमले कर चुके हैं। पहला हमला 2008 में काला सागर के पूर्वी तट पर पड़ने वाले देश जॉर्जिया पर किया था और रूस समर्थक अलगाववादियों की मदद करके दक्षिण ओसेतिया और अबख़ाज़िया को जॉर्जिया से अलग करा लिया था। 

दूसरा हमला 2014 में यूक्रेन पर किया और दक्षिणी प्रायद्वीप क्राइमिया पर क़ब्ज़ा कर लिया और पूर्वी डॉनबास में अलगाववादी गणराज्य डोनेस्क और लुहांस्क बनवा दिए। तीसरा और वर्तमान हमला यूक्रेन के राजनीतिक और सैनिक तंत्र को ध्वस्त करके वहाँ कठपुतली सरकार स्थापित करने के लिए किया जा रहा है।

सोवियत संघ का इतिहास ऐसे हमलों और षडयंत्रों से भरा पड़ा है। फिर पुतिन साहब को नाटो से इतना डर क्यों लगता है यह समझ से परे है। पुतिन के हमलों और विस्तारवादी इरादों से डर तो उल्टा पूर्वी यूरोप के उन पूर्व सोवियत देशों को लगना चाहिए जिन्हें आश्वस्त करने के लिए नाटो को रूमानिया और पौलैंड में प्रक्षेपास्त्र तैनात करने पड़े हैं।

जहाँ तक यूक्रेन के लेनिन द्वारा बनाए जाने की बात है तो इतना तो सही है कि लेनिन के शासनकाल में ही यूक्रेनी सोवियत राज्य का गठन हुआ था। लेकिन पुतिन साहब यह भूल जाते हैं कि यूक्रेन रूस से भी पुराना देश है।

ग्यारहवीं सदी में इसे राजधानी कीव के नाम पर कीव रूस नाम से जाना जाता था और यह उत्तर में श्वेत सागर से लेकर दक्षिण में काला सागर तक फैला था। रूस का तो तब अस्तित्व भी नहीं था। ज़ारशाही के लगभग 250 वर्षों और सोवियत संघ के लगभग 70 सालों को छोड़ कर यूक्रेन या तो स्वतंत्र रहा है या फिर स्लाव, पोल, रूमानी और तुर्क साम्राज्यों का हिस्सा रहा है। पुतिन साहब की यह दलील ऐसी है जैसे अंग्रेज़ यह दावा करने लगें कि भारत को तो उन्होंने अपने राज से बनाया है।

स्वीडन के पूर्व प्रधानमंत्री कार्ल बिल्ट का मानना है कि पुतिन साहब ‘पहचान के संकट’ से ग्रस्त हैं। सोवियत संघ के सारे शासक इस संकट से ग्रस्त रहे हैं। वे बात स्वतंत्र आधुनिक राष्ट्रों की करते थे पर सोच ज़ारशाही वाला या साम्राज्यवादी थी।

एक आधुनिक राष्ट्र के लिए सुरक्षित रहने का एक ही रास्ता है। आर्थिक विकास करना और पड़ोसी देशों के साथ दोस्ताना रिश्ते रखना। आज जर्मनी इसलिए सुरक्षित है क्योंकि स्विटज़रलैंड, ऑस्ट्रिया और नेदरलैंड्स जैसे छोटे-छोटे पड़ोसी देशों के साथ भी वह नज़दीकी दोस्तों जैसा रिश्ता रखता है। 

आज के लोकतांत्रिक युग में बड़ी ताकतों के प्रभाव क्षेत्र धौंस के बल पर नहीं, आर्थिक हितों और मीठे रिश्तों के सहारे पनपते हैं। इसीलिए किसी देश को नाटो की सदस्यता उसका आकार या शक्ति देखकर नहीं, बल्कि स्वच्छ प्रशासन, लोकतंत्र और पारदर्शिता देख कर दी जाती है। इसलिए यदि सुरक्षित महसूस करना है तो पुतिन साहब को शी जिनपिंग जैसों की जगह कार्ल बिल्ट जैसों की सोहबत में जाना चाहिए।

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