जानिए, राजपक्षे परिवार के नियंत्रण में श्रीलंका कंगाल कैसे हो गया

02:56 pm May 11, 2022 | सत्य ब्यूरो

हिंसा। आगजनी। मौत। राष्ट्रव्यापी कर्फ्यू। देखते ही गोली मारने के आदेश। श्रीलंका में पिछले कुछ समय से ऐसे ही अप्रत्याशित घटनाएँ घट रही हैं। प्रधानमंत्री महिंदा राजपक्षे को इस्तीफ़ा देना पड़ा और अब वह भागते फिर रहे हैं। राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे के इस्तीफ़े की मांग की जा रही है और विरोध-प्रदर्शनों में 'गो होम गोटा' यानी पद छोड़कर घर जाओ गोटाबाया के नारे लग रहे हैं। दरअसल, देश में अभूतपूर्व आर्थिक और राजनीतिक संकट के बाद से ऐसे हालात बने हैं। महंगाई चरम पर है। बिजली संकट है। खाने का संकट है। और इसके बाद से ही हर रोज़ अप्रत्याशित घटनाएँ घट रही हैं। तो सवाल है कि श्रीलंका में ऐसा क्या हो गया कि वह इतिहास के अपने सबसे ख़राब दौर से गुजर रहा है? आख़िर श्रीलंका की ऐसी हालत क्यों हुई? ताक़तवर राजपक्षे परिवार निशाने पर क्यों है?

आम तौर पर श्रीलंका की इस हालत के लिए 2019 के बाद के घटनाक्रमों को ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है। आर्थिक मामलों के जानकार भी और राजनीतिक मामलों के जानकार भी श्रीलंका के दिवालियेपन के पीछे यही वजह बता रहे हैं। 2019 ही वह साल है जब मौजूदा राजपक्षे सरकार सत्ता में आई थी। अब जो श्रीलंका की हालत है, उसके लिए इस परिवार के शासन के तौर-तरीक़ों पर सवाल उठाया जा रहा है। कहा तो यह जा रहा है कि इसकी पटकथा 2019 में ही तब लिख दी गई थी जब चुनाव होने वाले थे।

नवंबर 2019 के चुनाव से पहले श्रीलंका के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार गोटाबाया राजपक्षे ने लोगों को रिझाने वाली कई घोषणाएँ की थीं। उन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा, आतंकवाद के ख़िलाफ़ सख़्त रवैया, करों में कटौती जैसी घोषणाएँ कीं। वह सत्ता में आए। 

इसके बाद विधायिका के लिए जब अगस्त 2020 में आम चुनाव हुए तो उसमें अपनी पार्टी की भारी जीत के बाद शक्तिशाली राजपक्षे परिवार ने सत्ता पर अपनी पकड़ और मज़बूत कर ली। इससे उन्हें राष्ट्रपति की शक्तियों को बहाल करने और प्रमुख पदों पर परिवार के क़रीबी सदस्यों को लाने के लिए संविधान में संशोधन करने की अनुमति मिली।

एक क्रूर सैन्य अभियान में तमिल टाइगर्स को कुचलने वाले महिंदा राजपक्षे ने प्रधानमंत्री की भूमिका संभाली। अपने करियर में वह चौथी बार प्रधानमंत्री बने। इसके बाद उन्होंने अपने बड़े भाई चमल और सबसे बड़े भतीजे नमल को मंत्रिमंडल में शामिल किया था। इनके अलावा भी उनके परिवार के कई सदस्य सरकार में किसी न किसी रूप में शामिल रहे। 

महिंदा ने केवल 24 वर्ष की उम्र में संसद में प्रवेश किया था और सबसे कम उम्र के सांसद बने थे। तत्कालीन राष्ट्रपति चंद्रिका कुमारतुंगा ने अप्रैल 2004 में महिंदा को प्रधानमंत्री के रूप में नियुक्त किया था।

उसके बाद वह लगातार ताक़तवर होते गए। नवंबर 2005 में उन्हें श्रीलंका फ्रीडम पार्टी के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में चुना गया था। चुनाव में उनकी जीत के तुरंत बाद महिंदा ने लिट्टे (LTTE) को कुचलने के अपने इरादे की घोषणा की। उन्होंने लिट्टे के ख़िलाफ़ जो अभियान चलाया उसके रक्षामंत्री तब गोटाबाया राजपक्षे थे। लिट्टे के ख़िलाफ़ अभियान से महिंदा एक नायक बन गए और 2010 में एक प्रचंड जीत के साथ सत्ता में लौटने के लिए इसका इस्तेमाल किया। तब उन्हें तीसरे कार्यकाल की अनुमति देने के लिए संविधान को बदल दिया गया था। 

राष्ट्रपति के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान महिंदा राजपक्षे ने चीन के साथ कई प्रमुख बुनियादी ढांचे के सौदे किए। आलोचकों का कहना है कि महिंदा के कारण ही देश "चीनी कर्ज के जाल" में फंस गया है। रणनीतिक हंबनटोटा बंदरगाह को उनके शासन के दौरान एक चीनी ऋण द्वारा वित्त पोषित किया गया था। देश के कर्ज का भुगतान करने में विफल रहने के बाद 2017 में बीजिंग को उस बंदरगाह को 99 साल के लिए पट्टे पर देना पड़ा।

2014 के दौरान बढ़ती कीमतों और भ्रष्टाचार और सत्ता के दुरुपयोग की वजह से उन्हें 2015 के चुनावों में हार का सामना करना पड़ा। मैत्रीपाला सिरिसेना ने उन्हें हरा दिया और राष्ट्रपति के रूप में शपथ ली।

श्रीलंका में 2019 में एक और बड़ी घटना घटी जिसने फिर से राजपक्षे परिवार को एक बड़ा मौक़ा दिया जहाँ से श्रीलंका में बड़े बदलाव शुरू हुए। अप्रैल 2019 में घातक ईस्टर बम विस्फोट श्रीलंका की राजनीति में एक महत्वपूर्ण मोड़ था।

जब इस्लामिक स्टेट से जुड़े आत्मघाती हमलावरों ने चर्चों और लक्जरी होटलों पर हमला किया तो उसमें 250 से अधिक लोग मारे गए।  

तब राजपक्षे के नेतृत्व वाली एसएलपीपी ने सुरक्षा के मोर्चे पर विफलता के लिए तत्कालीन राष्ट्रपति सिरिसेना और प्रधानमंत्री विक्रमसिंघे की सरकार की आलोचना की। एसएलपीपी ने महिंदा राजपक्षे के छोटे भाई गोटाबाया की राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी की भी घोषणा की। आतंकवाद की घटना के बाद हुए चुनाव में राजपक्षे परिवार ने इस घटना और लिट्टे के ख़िलाफ़ कार्रवाई को ख़ूब भुनाया। राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा जोर शोर से उठाया गया। टैक्स कम करने का वादा किया गया। चुनाव के नतीजे राजपक्षे परिवार के पक्ष में आए। फिर से सरकार के अहम पदों पर राजपक्षे परिवार के सदस्य बिठाए गए। 

लेकिन चुनाव से पहले एक भविष्यवाणी भी की गई थी। चुनाव से पहले तत्कालीन सरकार में वित्त मंत्री मंगला समरवीरा ने मूल्य वर्धित कर यानी वैट को 15% से घटाकर 8% करने और अन्य लेवी को ख़त्म करने की राजपक्षे परिवार के वादों पर चेतावनी दी थी। उन्होंने कहा था, 'अगर इन प्रस्तावों को इस तरह लागू किया जाता है तो न केवल पूरा देश दिवालिया हो जाएगा, बल्कि पूरा देश एक और वेनेजुएला या दूसरा ग्रीस बन जाएगा।' उनकी भविष्यवाणी को सच होने में लगभग 30 महीने लग गए। 

राजपक्षे ने चुनाव जीतने के बाद करों को कम किया। नतीजा सामने था। अन्य देशों की तुलना में अपेक्षाकृत कम राजस्व मिला और उस पर कर्ज बढ़ता गया।

एक अर्थशास्त्री और सरकार के अंतरराष्ट्रीय व्यापार और विकास मंत्रालय की पूर्व सलाहकार अनुष्का विजेसिंह ने ब्लूमबर्ग से कहा, 'यह धारणा थी कि ईस्टर के बाद की मंदी से कर में कटौती और कम ब्याज दरों का रास्ता था। लेकिन वो एक ग़लती थी।'

व्यापक मंदी की आशंका सबसे पहले महामारी के साथ सामने आई। इसने अचानक पर्यटन और रेमिटेंस से राजस्व को छीन लिया। क्रेडिट रेटिंग कंपनियों ने श्रीलंका को डाउनग्रेड किया। इससे बचने के लिए सरकार ने मुद्राएँ छापीं। इससे देश में बेतहाशा मुद्रास्फीति बढ़ी।

पिछले अप्रैल में श्रीलंका को एक और झटका लगा। विजेसिंह और अन्य अर्थशास्त्रियों के अनुसार सरकार ने अचानक रासायनिक उर्वरक आयात पर प्रतिबंध लगा दिया। सार्वजनिक रूप से अधिकारियों ने इस कदम को जैविक खेती को अपनाने और 'उर्वरक माफिया' से लड़ने के अभियान के वादे को पूरा करने के रूप में तैयार किया था। लेकिन वास्तव में कई लोगों ने इस निर्णय को विदेशी मुद्रा भंडार में डॉलर बचाने के प्रयास के रूप में देखा। 

उर्वरक आयात पर प्रतिबंध उल्टा पड़ गया। श्रीलंका की पूरी कृषि श्रृंखला तबाह हो गई। देश की श्रम शक्ति का लगभग एक तिहाई कृषि पर निर्भर है। और सकल घरेलू उत्पाद का 8% कृषि से आता है। इन दोनों को मुश्किलों का सामना करना पड़ा। धान की फ़सल विफल हो गई। इससे सरकार को चावल आयात करने पड़े और तबाह हुए किसानों का समर्थन करने के लिए एक महंगा खाद्य सहायता कार्यक्रम शुरू करने के लिए मजबूर होना पड़ा। राजस्व के एक प्रमुख स्रोत चाय के निर्यात से आय भी सूख गई। 

इसका असर यह हुआ कि देश का विदेशी मुद्रा भंडार खाली होता गया। आर्थिक मोर्चे पर अब श्रीलंका के कमान में कोई तीर नहीं बचे थे जिससे देश में खाने के संकट, तेल संकट और बिजली संकट को रोका जा सकता। इन संकटों का अब नतीजा सामने है। हिंसा हो रही है। मौतें हो रही हैं। कर्फ्यू लगाया गया है। सरकार खुद को बचाने के लिए 'हिंसा करने वालों को' देखते ही गोली मारने के आदेश दे रही है! और फिर भी 'गो होम गोटा' का नारा मज़बूत होता जा रहा है!