यूक्रेन की गुरिल्ला लड़ाई कितनी कारगर होगी?
यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलिदिमीर ज़ेलेंस्की ने जब अपने नागरिकों से कहा कि वे देश की रक्षा के लिए हथियार उठा लें तो लोगों का ध्यान इस ओर स्वाभाविक रूप से गया कि इसका क्या मतलब है और इसका क्या असर होगा। इतना ही नहीं, यूक्रेन की सरकार ने लोगों के बीच हथियार बांटे, उनके लिए बंकर बनाए और खाने- पीने का इंतजाम भी किया।
आत्मविश्वास से लबरेज ज़ेलेंस्की ने ऐलान कर दिया कि हर खिड़की से बम गिरेगा। इतना ही नहीं, उन्होंने रूसी सैनिकों से कहा कि वे अपने वरिष्ठ अफ़सरों के आदेश न मानें, अपनी जान की फ़िक्र करें और घर लौट जाएं।
अज़ोव सागर से सटे शहर मारुईपोल में जब रूसी टैंक दाखिल हुए तो निहत्थे नागरिक टैंक के सामने खड़े हो गए और सैनिकों से कहा, 'घर लौट जाएं'।
यह निश्चित तौर पर राष्ट्र प्रेम और बहादुरी का प्रतीक है। लेकिन ऐसा कब तक चल पाएगा और इसके बल पर रूसी टैंकों को कब तक रोका जाएगा, यह अहम सवाल है।
बीयर बनाने वाली कंपनी प्राव्दा ने मोलोटोव कॉकटेल बनाना शुरू कर दिया है। मोलोटोव कॉकटेल मतलब पेट्रोल बम, इसमें शीशे की बोतल में किरासन तेल भर कर उस पर लगे ढक्कन से रस्सी निकाली जाती है। इसमें आग लगा कर निशाने पर फेंका जाता है, बोतल गिर कर चकनाचूर होता है, किरासन तेल फैलता है और आग लग जाती है।
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान तत्कालीन सोवियत संघ के विदेश मंत्री व्याचेस्लाव मोलोटोव ने 1939 में जर्मनी की नात्सी सेना को रोकने के लिए पहली बार इसका इस्तेमाल किया था। यह बात दीगर है कि इसके कुछ महीने बाद ही मोलोटोव ने अगस्त 1939 में हिटलर के जर्मनी के साथ समझौते पर दस्तख़त कर दिया, जिसे मोलोटोव-रिबेनट्रॉप पैक्ट कहा गया था।
यूक्रेन के शहर ल्युवीइव में प्राव्दा का बीयर कारखना है और बड़े पैमाने पर मोलोटोव कॉकटेल बनाया जा रहा है। प्राव्दा ब्रुअरीज़ के मालिक यूरी ज़ास्ताव्नी ने आधिकारिक रूप से इसका ऐलान किया है, जो यूक्रेनी अख़बारों में प्रमुखता से छपा है।
रक्षा विशेषज्ञों का कहना है कि ज़ेलेंस्की की रणनीति रूस पर अंतरराष्ट्रीय दबाव बना कर उसे रोकना है। यदि रूसी सैनिक कीव या खारकीव में घुसते हैं और आम जनता सड़कों पर उतर आती है तो रूसी सेना के लिए बेहद मुश्किल होगा। जैसा कि यूक्रेनी राष्ट्रपति ने चेतावनी दी है, यदि वाकई हर खिड़की से मोलोटोव कॉकटेल गिरने लगा तो रूस क्या किसी देश की सेना के लिए उससे लड़ना मुश्किल होगा।
लेकिन सवाल यह है कि ज़ेलेंस्की ने ऐसा किया क्यों ? बग़ैर किसी प्रशिक्षण के कोई आम आदमी हथियार लेकर कितनी कुशलता से और कब तक लड़ेगा ? इसका नतीजा यह होगा कि जब रूसी सेना राजधानी कीव समेत किसी शहर में दाखिल होगी और स्थानीय अप्रशिक्षित लोग उसका सामना करेंगे तो बड़ी तादाद में मारे जाएंगे। विश्व जनमत रूस के ख़िलाफ़ होगा और राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन पर यह दबाव होगा कि वे अपने सैनिकों को मिशन पूरा किए बग़ैर ही वापस बुला लें।
कमज़ोर देश के लिए यह अच्छी रणनीति हो सकती है, पर क्या अपने नागरिकों को इस तरह जान बूझ कर और सोची समझी रणनीति के तहत बारूद में झोंक देना उचित है ? सवाल तो यह भी उठता है कि बड़े पैमाने पर पेट्रोल बम बनवाना और उसे आम जनता में बंटवाना क्या आतंकवाद सरीखा नहीं है?
बहरहाल, रूसी सैनिकों के आगे बढ़ने की रफ़्तार बेहद धीमी है। युद्ध के दूसरे दिन कीव में घुस चुके रूसी सैनिक सातवें दिन भी बहुत आगे नहीं बढ़ पाए है, वे कीव के किसी सैनिक या सरकारी प्रतिष्ठान पर क़ब्ज़ा करने में भी नाकाम रहे हैं। यही हाल खारकीव और मारुईपोल में भी है।
लेकिन रूसी टैंकों का बड़ा क़ाफ़िला कीव की ओर बढ़ चुका है। लगभग 60 किलोमीटर लंबे क़फ़िले में लॉजिस्टिक्स यानी सैनिकों के वहां रुकने और रसद वगैरह ज़्यादा हैं।
यूक्रेन बड़ी लड़ाई की ओर बढ़ रहा है। यह इससे भी समझा जा सकता है कि भारत और कुछ दूसरे देशों ने अपना दूतावास बंद कर दिया है और दूतावास के कर्मचारियों को पड़ोसी देश पोलैंड, हंगरी या रोमानिया के सीमाावर्ती शहरों से काम करने को कहा है।
यह ख़बर लिखने जाने तक रूसी पैराट्रूपर्स को खारकीव में उतारा जा चुका है। मारुईपोल में रूसी टैंक शहर के अंदर घुस चुके हैं, लेकिन वे आगे नहीं बढ़ रहे हैं।
यूक्रेन कब तक और कैसे रूस को रोक पाएगा, यह सवाल अहम है। जिस नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑगर्नाइजेशन (नाटो) की सदस्यता को लेकर इतना बड़ा बवाल मचा हुआ है, उसने साफ शब्दों में कह दिया है कि वह अपने सैनिकों को इस युद्ध में नहीं उतारेगा, लेकिन वह यूक्रेन को हथियार मुहैया कराएगा। जर्मनी, फ्रांस और अमेरिका ने ये हथियार दिए हैं। जर्मनी ने एंटी टैंक मिसाइल, हवा में मार करने वाले छोटी दूरी के मिसाइल, अमेरिका ने एअर डिफेंस सिस्टम और स्ट्रिंगर मिसाइल तो फ्रांस ने गोलाबारूद वगैरह देने का ऐलान किया है। स्ट्रिंगर मिसाइल कंधे पर रख कर छोड़ा जा सकता है और अफ़ग़ानिस्तान में विद्रोहियों ने इसी के बल पर सोवियत संघ के सैनिकों के छक्के छुड़ा दिए थे।
नाटो प्रमुख जेन्स स्टोल्टेनबर्ग ने रोमानिया और हंगरी में सैनिकों को कुमुक भेजने का ऐलान किया है, नाटो के सैनिक वहां पहले से ही जमे हुए हैं। पोलैंड में भी नाटो के सैनिक हैं, जिसकी सीमा यूक्रेन से मिलती है। लातविया, एस्टोनिया और लिथुआनिया जैसे बाल्टिक राज्य यूक्रेन के पास ही हैं, जो नाटो में हैं। इन देशों में पहले से ही नाटो के हवाई जहाज चक्कर लगाते रहते हैं, ये तीन देशों बारी-बारी से बाल्टिक के साझा एअर स्पेस की हिफ़ाजत करते हैं।
नाटो का चार्टर तब तक किसी देश पर हमले की अनुमति नहीं देता जब तक उसके किसी सदस्य देश पर कोई देश हमला न करे। यानी जब तक यूक्रेन के पड़ोसी पोलैंड, हंगरी या रोमानिया पर रूसी हमला नहीं होता, नाटो इस लड़ाई में नहीं पड़ेगा।
मंगलवार को एस्टोनिया में रूसी प्रधानमंत्री बोरिस जॉन्सन, फ्रांस की रक्षा मंत्री फ़्लोरेंस पार्ली और नाटो प्रमुख स्टोल्टेनबर्ग मौजूद थे, बातचीत की और यूक्रेन के साथ खड़े होने का वादा किया। इन लोगों ने एक बार फिर यूक्रेन को हथियार मुहैया कराने का ऐलान किया, लेकिन यह किसी ने नहीं कहा कि वे अपने सैनिकों को यूक्रेन भेंजेगे।
यह अहम और दिलचस्प है कि पत्रकार सम्मेलन में जॉन्सन ने साफ कह दिया कि वे ब्रिटिश सेना को यूक्रेन नहीं भेंजेगे। इतना ही नहीं, जब एक महिला पत्रकार ने तमतमा कर कहा कि हमार बच्चे मारे जा रहे हैं और आप फ़ुटबाल क्लब चेल्सी के मालिक रोमां अब्रामोविच के ख़िलाफ़ कार्रवाई तक नहीं कर रहे हैं तो ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने कहा, 'मैं आपकी भावनाओं को समझता हूं।' पर जॉन्सन न तो सेना भेजने को राजी हुए, न ही चेल्सी के रूसी मालिक की संपत्ति जब्त करने को तैयार हुए।
इसके साथ ही यह भी जानना ज़रूरी है कि रूस की फौरी योजना क्या है। यह साफ है कि राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन यूक्रेन की सत्ता पर अपने किसी पिट्ठू को बिठाना चाहते हैं जो उनके इशारों पर काम करे। उनकी योजना अपने किसी ऐसे आदमी को बैठाना है जो नाटो की सदस्यता न ले और यूरोपीय संघ में भी शामिल न हो।
रूस की योजना लंबे समय तक यूक्रेन पर न तो कब्जा बनाए रखने की है, न ही क्रीमिया की तरह उसे अपने में समाहित करने की है।
ऐसे में रूस की रणनीति यह होगी कि वह तुरत-फुरत यूक्रेन पर नियंत्रण कर, वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की को हटा कर अपने किसी आदमी को बैठा कर वहां से सैनिकों को वापस बुला ले। यह वहां टिकने में नहीं, बल्कि ज़ोरदार हमला कर निकल लेने से ही हो सकता है।
इससे यह भी साफ़ है कि पुतिन यूक्रेनी राष्ट्रपति की शहरी गुरिल्ला युद्ध की चाल में नहीं फंसेगे, वे आम नागरिकों से नहीं उलझेंगे, वे हर खिड़की से पेट्रोल बम फेंकने की नौबत नहीं आने देंगे। वे यूक्रेन को एक और अफ़ग़ानिस्तान नहीं बनने देंगे।
एक और अफ़ग़ानिस्तान यूक्रेन वैसे भी नहीं बन सकता। इसका कारण यूक्रेन का सामाजिक ढांचा व रूसियों से ऐतिहासिक रिश्ता रहा है।
सोवियत संघ में लगभग 70 साल रहने के कारण यूक्रेन का पूरी तरह रूसीकरण हो चुका है। इसके लगभग हर नागरिक को रूसी आती है, आधे से अधिक लोगों की मातृभाषा रूसी है। ज़्यादातर नगारिकों के माता-पिता में से कोई एक रूसी मूल का है।
इसकी नींव सोवियत संघ के बनने के पहले ही पड़ चुकी थी, जो सोवियत शासन में और मजबूत हुई। सोवियत यूनियन कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएसयू) ने यूक्रेनियों की भाषा-संस्कृति को तरजीह है, ऐसा उनका दावा रहा है। कम्युनिस्टों की भाषा में यूक्रेन कोई 'उत्पीड़ित राष्ट्रवाद' (ऑप्रेस्ड नेशनलिटी) नहीं है। क्या एंतन चेखव, निकोलाई गोगोल या नोबेल पुरस्कार से सम्मानित साहित्यकर अलेकसांद्र सोल्ज़ेनित्सिन को रूसी नहीं माना जाएगा? वे सब यूक्रेनी मूल के थे। क्या मिखाइल गोर्बाचोव को रूसी नहीं मानेंगे, उनकी मां यूक्रेनी थीं। रूसी राष्ट्रपति लियोनिद ब्रेझनेव का जन्म और शुरुआती पालन-पोषण यूक्रेन में हुआ था।
कहने का मतलब यह है कि ज़्यादातर यूक्रेनी खुद को रूस से अलग कर नहीं देखते हैं, उनमें रूस-बनाम यूक्रेनी राष्ट्रवाद नहीं है। वे विक्टर यानुकोविच जैसे खराब प्रशासक, तानाशाह और पुतिन परस्त के ख़िलाफ़ ऑरेन्ज रिवोल्यूशन कर उसे सत्ता से हटा सकते हैं, पर ज़ेलेंस्की के कहने पर रूस के ख़िलाफ़ जान देने के लिए नहीं आएंगे। यही कारण है कि बड़े पैमाने पर लोगों के सड़कों पर उतर कर रूसी सैनिकों के ख़िलाफ़ मोर्चा संभालने की संभावना बेहद कम है, हालांकि यूक्रेनी राष्ट्रपति की रणनीति यही है।
रूसी क़ाफ़िला के कीव पहुंचने के बाद साफ हो जाएगा कि रूस को शहरी गुरिल्ला युद्ध में उलझाने की ज़ेलेंस्की की रणनीति कितनी कारगर होगी।