दिवालिया होने के कगार पर खड़ा पाकिस्तान अंतरराष्ट्रीय समुदाय खासकर अपने मित्र देशों और इस्लामी भ्राता देशों से वित्तीय मदद की गुहार कर रहा है। चीन का लौह मित्र, अमेरिका और पश्चिमी देशों का दुलारा रह चुके और इस्लामी देशों के संगठन ( ओ आई सी) की नेतागीरी करने वाले पाकिस्तान को आखिर कोई क्यों नहीं इतना सहयोग करने को तैयार है कि पाकिस्तान मौजूदा संकट से जल्द उबर जाए । पाकिस्तान में समझदार लोग इसके पीछे का राज समझते हैं लेकिन इस के लिये गहन आत्ममंथन करने को तैयार नहीं दिखते।
पाकिस्तान के मित्र और भ्राता देशों को पता है कि अगले कई सालों तक पाकिस्तान कर्ज लौटाने की स्थिति में नहीं होगा और तब तक नही हो सकता जब तक वह घरेलू आर्थिक हालात को बेहतर करने के लिये अपने देश की राजनीति और शासन प्रणाली में आमूल सुधार नहीं करेगा। ऐसे अंधकार भविष्य वाले देश पर कोई क्यों अपना धन लुटाना चाहेगा। लेकिन पाकिस्तान में न तो घरेलू स्तर पर शासन व्यवस्था को जल्द से जल्द बदलने को लेकर कोई बहस चल रही है और न ही कर्ज दाता देश पाकिस्तान को यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि वह अपनी डूबती नाव को बचाने के लिये क्या जरुरी घऱेलू कदम उठाए। ।
वास्तव में पाकिस्तान में जबतक सही मायनों में एक जनतांत्रिक सरकार की स्थापना नहीं हो जाती है तब तक पाकिस्तान मौजूदा संकट से बाहर नहीं निकल सकता। पाकिस्तान को जनरलों और मुल्लाओं ने अपहृत कर लिया है जिस वजह से पाकिस्तान की जनतांत्रिक सरकार को अपना अस्तित्व बचाने के लिये भारी दबाव में काम करने को मजबूर होना पड़ता है।
जनतांत्रिक सरकार पर हमेशा सेना की तलवार लटकी रहती है। जब कि सेना के आला अधिकारी अपने पद का दुरुपयोग करते हुए देश का खजाना लूटने की तिकड़म में व्यस्त रहते हैं। जनरल कमर जावेद बाजवा ने अपने छह साल के कार्यकाल में अपने परिवार को किस तरह हजारो करोड़ रुपये की सम्पति से मालामाल कर दिया इस पर पाकिस्तान में कोई चर्चा नहीं कर सकता लेकिन इमरान खान द्वारा विदेशों से मिली भेंट को सरकारी तोशाखाने में जमा नहीं करने पर पुलिस कारर्वाई करने को बेताब रहती है। पाकिस्तान के जनतांत्रिक नेता भी कम नहीं हें। बेनजीर भुट्टो के शासन काल में उनके पति आसिफ अली जरदारी को मिस्टर टेन परसेंट के नाम से जाना जाता था और विडम्बना देखिये कि जरदारी को ही एक दिन पाकिस्तान का राष्ट्रपति बना दिया गया।
नागरिक सरकारों के अलावा सेना ने भी कई बार खुद सत्ता सम्भाली लेकिन देश का कुछ भला नहीं हुआ। सेना ने भारत का भय दिखाकर अपना हित साधा। जनरल अयूब से लेकर याह्या खान, जनरल जिया उर रहमान और फिर जनरल परवेज मुशर्रफ ने खुले तौर पर पाकिस्तान की सत्ता सम्भाली जब कि इनके बाद जनरल परवेज कयानी और जनरल बाजवा ने नेपथ्य से सत्ता का संचालन किया। इस तरह वे सरकार की नाकामी की सीधी जिम्मेदारी लेने से बचे लेकिन नागरिक सरकार को स्वतंत्र होकर काम नहीं करने दिया। नागरिक सरकार को न केवल सेना को खुश रखने की मजबूरी होती है बल्कि जेहादी तंजीमों के मुल्लाओं के तलवे भी सहलाने होते हैं।
धर्म और भारत विरोध के नशे में धुत्त पाकिस्तान ने वैश्विक आर्थिक प्रतिस्पर्द्धा के अनुरूप अपने को नहीं ढाला है जिसका नतीजा है कि चीन, तुर्की और खाड़ी के कुछ देशों को छोड़ कर पाकिस्तान में विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने पाकिस्तान से किनारा किया हुआ है।
घरेलू संकट के इस मौके पर खाड़ी के कुछ देशों खासकर संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शरीफ द्वारा काफी मिन्नत करने के बाद कुछ अरब डालर की मदद का वादा तो किया है, जिससे पाकिस्तान का खर्च कुछ और दिनों के लिये ही चल सकता है। पाकिस्तान के सभी मौसम के दोस्त और लौह मित्र चीन ने तो पाकिस्तान को गत नवम्बर के शुरु में विभिन्न मदों में नौ अरब डालर की मदद का वादा किया था लेकिन पाकिस्तान को अभी तक नहीं मिली ।
आखिर क्या वजह है कि पाकिस्तान के समक्ष असामान्य हालात को जानते हुए भी पाकिस्तान के मित्र देश पाकिस्तान को संकट से उबारने के लिये आगे नहीं आ रहे हैं। चीन ने तो यहां तक कह दिया कि वह जितना कर सकता था, उसने कर दिया है। ऐसे में पाकिस्तान के उद्योगपतियों और अर्थशास्त्रियों को महसूस हो रहा है कि भारत के साथ व्यापारिक रिश्ता नहीं रखना पाकिस्तान के लिये कितना भारी पड़ रहा है जिसे भारतीय उत्पादों को खाडी के देशों से होकर आयात करना पड़ता है।
कंगाल हो चुके पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भी कई तरह की शर्मनाक शर्तों पर 1.3 अरब डालर की मदद मंजूर की है जिसे पाकिस्तान की मौजूदा शरीफ सरकार स्वीकार करेगी तो उसे भारी घरेलू विरोध का सामना करना होगा।
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पाकिस्तान के संदर्भ में एक बड़ा अहम सवाल यह उठता है कि यदि पाकिस्तान को कुछ अरब डालर की विदेशी मदद मिल भी गई तो इनकी बदौलत पाकिस्तान कब तक अपना खर्च चला पाएगा।
पाकिस्तानी मीडिया के नवीनतम आंकड़ों के मुताबिक पाकिस्तान के पास विदेशी मुद्रा का भंडार घटकर करीब चार अरब डालर के सबसे निचले स्तर पर आ गया है। पाकिस्तान पर करीब 268 अऱब डालर का कर्ज है जिसमें से 31 अरब डालर का कर्ज पाकिस्तान ने चीन से ही लिया है।
पर्यवेक्षकों का मानना है कि पाकिस्तान को यदि तत्काल 20-25 अरब डालर की मदद नहीं मिलेगी तो जल्द ही श्रीलंका जैसे हालात वहां बन सकते हैं। गेंहूं के आटे और दैनिक जीवन के लिये अन्य घरेलू सामान आम आदमी को नहीं मिल रहे। मुद्रास्फीति की दर 40 प्रतिशत से ऊपर चल रही है । आखिर जब महंगाई की मार असहनीय हो जाएगी तो श्रीलंका की तरह पाकिस्तान का मध्यम वर्ग भी सड़कों पर उतरने को बाघ्य होगा। आयात के लिये पाकिस्तान को हर महीने आठ से दस अऱब डालर की जरुरत होती है। पाकिस्तान के विदेशी मुद्रा का भंडार यदि खाली ही रहा तो पाकिस्तान पेट्रोल- डीजल आयात नहीं कर सकेगा। इससे पाकिस्तान में घोर कोहराम मच सकता है।इस वजह से पाकिस्तान की पूरी अर्थव्यस्था ही बैठ सकती है। तब पाकिस्तान की मौजूदा सरकार के लिये घरेलू हालात को सम्भालना और कितना मुश्किल होगा इसका अनुमान लगाया जा सकता है।
इस दयनीय हालात का लाभ पाकिस्तान का जेहादी तबका उठा सकता है। पाकिस्तान के घोर उग्रवादी संगठन तहरीक ए तालिबान पाकिस्तान ( टीटीपी) ने पहले ही पाकिस्तान की नागरिक सरकार और सेना की नाक में दम कर दिया है। टीटीपी का साम्राज्य फैलता जा रहा है और एक बार फिर वह इस्लामाबाद के नजदीक मनोरम स्वात घाटी पर कब्जा करने की ओर अग्रसर है और पाकिस्तान की सेना और सरकार के लिये बडी चुनौती बनने जा रहा है। पाकिस्तान की पिछली इमरान सरकार ने तो टीटीपी के सामने आत्मसमर्पण करते हुए शांति समझौता भी किया था जिसे पिछले महीने टीटीपी ने तोड़ दिया।
पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई ने भारी खर्च कर जिन जेहादियों को भारत के भीतर आतंकवादी हरकतें करने के लिये जैश ए मुहम्मद व लश्कर ए तोएबा में भर्ती करने के लिये तैयार किया वे अब टीटीपी में भर्ती होने लगे हैं
साफ है कि पाकिस्तान की सेना और सरकार भीतर और बाहर दोनों मोर्चों पर अपना अस्तित्व बचाने में ही जुटी रहती है जिस पर होने वाला हजारों करोड़ रुपये का सालाना खर्च यदि पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था सुधारने पर लगाया जाता तो पाकिस्तान के आज जैसे हालात नहीं होते । पड़ोसी देशों अफगानिस्तान औऱ भारत से तनाव और घरेलू जेहादी ताकतों से टकराव के माहौल में स्वाभाविक है कि पाकिस्तान की सरकार को अर्थव्यवस्था पेशेवर तरीके से चलाने की फुर्सत नहीं।
घरेलू राजनीतिक व आर्थिक अस्थिरता व अराजकता के माहौल में विदेशी निवेश तो नहीं ही हो रहा घरेलू उद्योगपति भी नये निवेश नहीं कर रहे। पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था तो पहले से ही जर्जर हो चुकी थी उस पर से दो साल तक चली कोविड महामारी औऱ फिर पिछले साल अगस्त में आई भीषण बाढ़ ने पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को और रसातल में भेज दिया है।