पाकिस्तानी अवाम के तमाचे के बाद अब क्या करेंगे वहां के आर्मी चीफ?
बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे, बोल ज़बाँ अब तक तेरी है।बोल कि सच ज़िंदा है अब तक, बोल जो कुछ कहना है, कह ले।
फैज़ अहमद फैज़ की मशहूर नज़्म की ये पहली और अंतिम पक्तियाँ हैं। संयोग से मंगलवार 13 फरवरी को उनका जन्मदिन था, जिसे पाकिस्तान के साथ-साथ भारत में भी मनाया गया।
फ़ैज़ ने यह नज़्म अपनी क़ैद के दिनों (1951-55) में लिखी थी। लेकिन आज जब पाकिस्तान के एक बड़े वर्ग ने पाकिस्तानी आर्मी के फ़रमान को ठुकराकर इमरान ख़ान समर्थित उम्मीदवारों को भारी संख्या में जिताया है तो उन्होंने अपने वोटों के ज़रिए फ़ैज़ की उन पंक्तियों को ही जीवंत कर दिया है। नैशनल असेंबली (भारत के लोकसभा के समकक्ष) की 265 सीटों में से 101 इमरान ख़ान के समर्थक विजयी हुए हैं। कहा तो यह भी जाता है कि 8 फरवरी की रात तक इमरान के 158 समर्थक जीत रहे थे। चुनावी रुझानों को देखते हुए नवाज़ शरीफ़ अपना पार्टी कार्यालय छोड़ घर भी चले गए थे। लेकिन आधी रात के बाद पोलिंग ऑफ़िसर्स को बदला गया, इंटरनेट और टेलिफ़ोन बंद कर दिए गए और फिर जो नतीजे घोषित किए गए, वे सबके सामने हैं।
9 फरवरी की सुबह से रुझानों में अंतर आने लगा। मुस्लिम लीग (नवाज़) को 75 एवं भुट्टो वाली पीपल्स पार्टी को 54 सीटों पर विजयी घोषित कर दिया गया। लेकिन इसके बावजूद आज की तारीख़ में नैशनल असेंबली के लिए हुए चुनावों में इमरान समर्थक विजयी उम्मीदवारों की संख्या सबसे अधिक है - 101।
मतों का पूरा हिसाब लगाने में वक़्त लगेगा पर फ़ौरी तौर पर पाकिस्तान की नैशनल असेंबली के चुनाव में दो बातें दिखाई पड़ती हैं। पहली, निर्दलीय उम्मीदवारों की जीत का अंतर काफ़ी अधिक और दूसरी, वे पाकिस्तान के चारों प्रांतों से जीत कर आए हैं।
इमरान ख़ान अप्रैल 2022 से पाकिस्तानी सेना के विरोध में बोल रहे थे जिससे उनके समर्थकों में सेना के प्रति नाराज़गी पैदा हो रही थी। इसके कारण यह चुनाव एक तरह से राजनीतिक दलों के बीच नहीं, बल्कि सेना और तहरीक-ए-इंसाफ के बीच का मुक़ाबला बन गया था। इमरान जेल में थे, मुक़दमों में सज़ा हो चुकी थी। पार्टी का चुनाव चिह्न रद्द हो गया था। चुनावी मीटिंग पर रोक और उनके समर्थकों को जेल में ठूँसा जा रहा था।
आर्मी खुलकर नवाज़ शरीफ़ के साथ खड़ी थी। ऐसे में विश्लेषक मान रहे थे कि नवाज़ शरीफ़ की पार्टी आसानी से बहुमत हासिल कर लेगी। लेकिन मतदान का पैटर्न और प्रतिशत दोनों ही पाकिस्तान सेना के खिलाफ़ गए। युवाओं और महिलाओं ने इसमें अच्छी भागीदारी की और इनमें बड़ी संख्या का झुकाव इमरान ख़ान के प्रति है। हालांकि नवाज शरीफ जनता का मूड भांप गए हैं और उन्होंने अपने भाई शहबाज शरीफ को पीएम के रूप में मनोनीत किया है। यानी अगर सेना शरीफ खानदान को सत्ता में लाती है तो पीएम शहबाज शरीफ ही फिर से बनेंगे।
मतदान के प्रतिशत से तीन बातें उभरकर आती हैं। पहली, पाकिस्तानियों के एक बड़े हिस्से में अब अपनी आर्मी का ख़ौफ़ नहीं रहा। दूसरी, जनता से मिले समर्थन का प्रभाव इमरान ख़ान पर चल रहे मुक़दमों पर भी पड़ सकता है और उन्हें उच्च अदालतों से रिहाई मिल सकती है। तीसरी, पाकिस्तान आर्मी इमरान पर देश छोड़कर जाने का दबाव बना सकती है जो शायद उन्हे मंज़ूर न हो। ऐसे में नए सिरे से टकराव की स्थिति पैदा होने की संभावना है।
जनरल असीम मुनीर का भविष्य
पाकिस्तान सेना प्रमुख असीम मुनीर अपनी पदोन्नति के लिए नवाज़ शरीफ़ के आभारी हैं। उनका चयन सर्वसम्मत और सहज नहीं रहा है। सेवारत जनरलों, उनके परिवार के सदस्यों और पूर्व सैनिकों का एक बड़ा वर्ग शरीफ़ परिवार से उनकी निकटता से नाराज़ है। शुरुआती दिनों में जनरल मुनीर अपने ही सहयोगियों को नियंत्रित नहीं कर सके जो इमरान ख़ान से समर्थन वापस लेने पर बँटे हुए थे। हालात तब और बदतर हो गए जब 9 मई 2023 को इमरान ख़ान की पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ़ पार्टी के समर्थकों ने लाहौर कोर कमांडर हाउस, मियाँवाली एयरबेस और फैसलाबाद में आईएसआई भवन सहित 20 से अधिक सैन्य प्रतिष्ठानों और सरकारी इमारतों में तोड़फोड़ की। रावलपिंडी में सेना मुख्यालय पर भी पहली बार भीड़ ने हमला किया। सेना मूक दर्शक बनी रही और नागरिकों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया। इसके परिणामस्वरूप लाहौर कोर कमांडर का सार्वजानिक अपमान हुआ जो कि अभूतपूर्व था।
ताज़ा चुनाव में इमरान ख़ान को मिला इतना बड़ा जन समर्थन, जो सेना की नाफ़रमानी का खुला ऐलान है, वरिष्ठ सेना कमांडरों में छुपे असंतोष को हवा दे सकता है। हालात और बिगड़े तो जनरल असीम मुनीर को पद भी छोड़ना पड़ सकता है। इस तरह के परिदृश्य पहले भी सामने आए हैं लेकिन पूरी तरह से अलग परिस्थितियों में। जनरल जहाँगीर करामत (जनवरी 96-अक्टूबर 98) ने नवाज़ शरीफ़ के साथ मतभेदों के कारण इस्तीफ़ा दे दिया था। एक अन्य जनरल आसिफ़ नवाज़ जंजुआ (अगस्त 91-जनवरी 93) की सैन्य प्रमुख रहते हुए रहस्यमय परिस्थितियों में मृत्यु हो गई थी।
पाकिस्तानी सेना में लेफ़्टिनेंट जनरलों की बर्ख़ास्तगी या प्रमुख जनरलों का रहस्यमय ढंग से ग़ायब होना भी एक नियमित मामला है, हालाँकि सार्वजनिक रूप से इसे रिपोर्ट नहीं किया जाता। मसलन 2008 में मेजर जनरल अमीर फैसल अल्वी की हत्या कर दी गई। इस हत्या के लिए तब जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ और जनरल कियानी पर उँगलियाँ उठाई गईं थीं।
जनरल मुनीर के लिए आने वाले दिन क्यों मुश्किल भरे हो सकते हैं, इसके समझने के लिए हमें दो प्रांतों के चुनावी नतीजों पर भी एक नज़र डालनी होगी जहाँ इमरान के समर्थकों ने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया है।
ख़ैबर पख़्तूनख्वा की 115 सीटों में से इमरान ख़ान समर्थित निर्दलियों ने 70 सीटें जीतीं हैं। बाक़ी पार्टियाँ दहाई का आँकड़ा भी नहीं छू सकीं। यहाँ यदि पाकिस्तान चुनाव आयोग के प्रावधानों को लागू किया जाता है और निर्दलीयों को सरकार बनाने की अनुमति नहीं दी जाती है तो इस प्रांत में बड़े पैमाने पर हिंसा भड़क सकती है। यहाँ के पठान पहले से ही तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) को लेकर पाकिस्तानी सेना के साथ झड़प में हैं।
पंजाब, जो पाकिस्तान का सबसे बड़ा प्रांत है, उसकी असेंबली में कुल 297 सीटें हैं। इनमें से नवाज़ की पार्टी को मिली 137 सीटों की तुलना में 116 सीटें जीतकर इमरान ने उनके गढ़ में सेंध लगाई है। पाकिस्तानी सेना में पंजाबियों का वर्चस्व है, इसलिए इसे जनरल असीम मुनीर के प्रति पंजाबियों के असंतोष का संकेत भी माना जा सकता है।
पाकिस्तान में उभरती राजनीतिक और आंतरिक स्थितियों को देखते हुए जनरल असीम मुनीर के सामने चार संभावित विकल्प हैं।
- अपना प्रभुत्व क़ायम रखने के लिए इमरान ख़ान और उनके सहयोगियों का और अधिक दमन
- अपनी कुर्सी बचाने के लिए इमरान के साथ मेल-मिलाप करने का प्रयास
- सैन्य प्रमुख के पद से इस्तीफ़ा देकर जनरलों के एक और समूह को उभरने देना ताकि सेना का दबदबा बना रहे।
- यदि आंतरिक स्थिति नियंत्रण से बाहर हो जाती है तो 'आवश्यकता के सिद्धांत' (Doctrine of Necessity) का हवाला देते हुए मार्शल लॉ लागू करना।
आने वाले तीन सप्ताह इस मामले में महत्वपूर्ण हैं। केंद्र और राज्यों में सरकारों का गठन किस आधार पर किया जाता है और इमरान समर्थक उम्मीदवारों को कितनी तरजीह दी जाती है, इसपर निर्भर करेगा पाकिस्तान का निकटवर्ती भविष्य।