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पेट्रोल की बढ़ती क़ीमत से कज़ाखस्तान में बग़ावत पर जनता!

पेट्रोल की बढ़ती क़ीमत से कज़ाखस्तान में बग़ावत पर जनता!

कज़ाख़स्तान में रसोई गैस की क़ीमत में बढ़ोतरी से हिंसा क्यों हो गई? ख़बर है कि अब तक कम से कम 44 लोग मारे जा चुके हैं। आख़िर महंगाई वहाँ इतना बड़ा मुद्दा कैसे बन गयी?

ऐसे समय जब भारत में पेट्रोल की क़ीमत 100 रुपए प्रति लीटर पार कर गई और उपभोक्ताओं ने चूँ तक नहीं की, बल्कि सरकार समर्थक लोगों ने इसे उचित ठहराने के कई तर्क गढ़ लिए, पड़ोस के ही देश कज़ाख़स्तान में पेट्रोलियम उत्पादों की क़ीमत बढ़ने पर इतना बड़ा विरोध प्रदर्शन हुआ कि सरकार सांसत में है।

कज़ाख़स्तान के मौजूदा संकट की शुरुआत रसोई गैस की क़ीमत में बढ़ोतरी से हुई। मध्य एशिया के इस देश के पास दुनिया का लगभग 30 प्रतिशत खनिज तेल भंडार है और यह दुनिया के सबसे बड़े प्राकृतिक गैस उत्पादकों में से एक है। पहले यहां पेट्रोल डीज़ल और रसोई गैस की कीमतों की एक उच्चतम सीमा तय थी, जो सरकार ने तय कर रखी थी। सरकार ने उच्चतम सीमा की व्यवस्था ख़त्म कर दी और उसे बाज़ार के भरोसे छोड़ दिया।

पेट्रोल डीज़ल की कीमतें तो बढ़ीं ही, रसोई गैस यानी एलपीजी की कीमत दुगनी हो गई। कज़ाख़स्तान में लोग रसोई गैस पर गाड़ियाँ चलाते हैं, इसकी कीमत दुगनी होने से लोगों ने विरोध प्रदर्शन किया।

दिलचस्प बात यह है कि पेट्रोलियम उत्पाद के लिए मशहूर शहर ज़नीज़न में यह विरोध शुरू हुआ और देखते ही देखते दूसरे बड़े शहरों अलमाती, नूर सुल्तान, सिमकंत, अक्तूबे में भी फैल गया। जल्द ही यह देशव्यापी आन्दोलन बन गया और उत्तेजित भीड़ ने अलमाती के सबसे बड़े सरकारी प्रतिष्ठानों पर हमले किए, तोड़फोड़ और आगजनी की। राष्ट्रपति आवास को भी नहीं बख़्शा गया।

राष्ट्रपति कासिम जोमार्त तोरायेव ने पड़ोसी देश रूस की मदद मांगी। कलेक्टिव सिक्योरिटी ट्रिटी ऑर्गनाइजेशन (सीएसटीओ) के 2,500 सैनिक कज़ाख़स्तान पहुँच गए और स्थिति नियंत्रण में ले ली। अब तक 44 लोग मारे जा चुके हैं। पहले सरकार ने 164 लोगों के मारे जाने की बात कही थी, पर बाद में कहा कि वह तकनीकी ग़लती थी और 44 लोग मारे गए। सरकार का कहना है कि इनमें 26 'हथियारबंद आतंकवादी' और सुरक्षा बलों के 18 जवान थे।

सीएसटीओ में रूस, कज़ाख़स्तान, ताजिकिस्तान, किर्गीस्तान, बेलारूस और अर्मीनिया हैं। ये वे देश हैं जो सोवियत संघ में थे और 1991 में उसके पतन और विखंडित होने के बाद अलग-अलग देश बन गए। इन देशों ने मिल कर यह सुरक्षा गठजोड़ किया, जिसका मूल मक़सद इलाक़े में रूसी प्रभुत्व बरक़रार रखने और अमेरिकी नेतृत्व वाले सैन्य संगठन नॉर्थ अटलांटिक ट्रिटी ऑर्गनाइजेशन यानी नैटो को मध्य एशिया में बढ़ने से रोकना था।

रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने सेना भेजने के बाद कहा कि वे मध्य एशिया में 'तथाकथित रंग क्रांति' नहीं होने देंगे।

उनका इशारा यूक्रेन में 'ऑरेंज रिवोल्यूशन' की ओर था, जिसने रूस समर्थक और पूर्व कम्युनिस्ट राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच और उनके प्रशासन को उखाड़ फेंका था। विक्टर यानुकोविच किसी ज़माने में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ सोवियत यूनियन (सीपीएसयू) के सदस्य हुआ करते थे।

कज़ाख़स्तान के मौजूदा संकट को समझने में पुतिन के बयान से मदद मिलती है। दरअसल रसोई गैस की कीमतें बढ़ने के ख़िलाफ़ हुआ आन्दोलन राजनीतिक आन्दोलन था और लोगों का गुस्सा महंगाई के नाम पर फूट पड़ा था।

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व्लादिमीर पुतिन

मौजूदा राष्ट्रपति कासिम तोकायेव के ठीक पहले के राष्ट्रपति नूरसुल्तान नज़रबायेव भी किसी ज़माने में सीपीएसयू के सदस्य हुआ करते थे और सोवियत संघ के हिस्सा कज़ाख़स्तान के बड़े नेता था। वे 1984 में कज़ाख़स्तान के प्रधानमंत्री बनाए गए। साल 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद आज़ाद हुए देश के राष्ट्रपति बन गए।

नूरसुल्तान नज़रबायेव लोकतांत्रिक देश को भी कम्युनिस्ट ढाँचे पर ही चलाते रहे, वे 29 साल तक कज़ाख़स्तान के राष्ट्रपति बने रहे और 2019 में विरोध होने पर पद से हटे तो अपने विश्वस्त कासिम जोमार्त तोकायेव को उस पद पर बैठा दिया।

नज़रबायेव के समय हुए चुनावों का हाल यह रहा कि उन्हें हर बार 95 से 99 प्रतिशत वोट मिलते रहे और उनके उत्तराधिकारी तोकायेव को उससे भी ज़्यादा मिले, उन्हें सौ प्रतिशत से कुछ ही कम वोट मिले।

पहले सोवियत संघ और उसके बाद नज़रबायेव के प्रशासन की एक बड़ी खूबी यह रही कि कज़ाख़स्तान की आर्थिक प्रगति हुई। पेट्रोलियम उत्पादों और प्राकृतिक गैस के बल पर यह मध्य एशिया ही नही, दुनिया के कई संपन्न देशों में एक हो गया। भारत से कुछ ही छोटे इस देश की आबादी सिर्फ दो करोड़ है और इसलिए लोग आर्थिक प्रगति होने की वजह से लोकतांत्रिक मूल्यों को नज़रअंदाज करते रहे।

लेकिन बीते दस सालों में कज़ाख़स्तान में प्रगति के साथ-साथ आर्थिक असमानता भी बढ़ी। हाल यह हुआ कि देश की आधी संपत्ति सिर्फ दो सौ लोगों के हाथों में आ गई। इनमें नूरसुल्तान नजरबायेव की बेटियां भी हैं।

उनकी मझली बेटी दनीरा नज़रवायेवा और छोटी बेटी आलिया नज़रबायेवा देश की सबसे बड़ी बिज़नेस वुमन बन चुकी हैं। इन दोनों बहनों के पास चार अरब डॉलर से ज़्यादा की संपत्ति है। आलिया ने बीते साल लंदन में आलीशान कोठी खरीदी, निजी जेट खरीदा और उसके पहले दुबई में संपत्ति खरीदी तो लोगों का ध्यान उस ओर गया।

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आलिया नज़रबायेवा

आलिया और दनीरा उन चुनिंदा कज़ाख़ व्यवसायियों में हैं, जिन्होंने ब्रिटेन में करोड़ों पौंड के निवेश किए हैं। बीते पाँच साल अंदर कम से कम 200 कज़ाख़ व्यापारियों व उद्योगपतियों ने गोल्डन वीज़ा नियम के तहत ब्रिटेन में अरबों डॉलर के निवेश कर वहां की राष्ट्रीयता हासिल की है। गोल्डन वीज़ा नियम के तहत कोई भी व्यक्ति पाँच लाख डॉलर का निवेश कर उस देश की राष्ट्रीयता हासिल कर सकता है।

नूरसुल्तान की सबसे बड़ी बेटी दरीगा नज़रबायेवा के पास इतने पैसे नहीं हैं, वे बिज़नेस वुमन नहीं हैं। लेकिन वे कुछ दिन पहले तक कज़ाख़ संसद मजलिस की स्पीकर थीं। वे मजलिस की सदस्य 2002 से 2007 तक और उसके बाद 2012 से 2016 तक थीं, जब उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया था। लेकिन 2017 में फिर चुनी गईं और 2020 में स्पीकर बना दी गईं, लेकिन 2021 में उन्हें स्पीकर पद से हटा दिया गया।

दरअसल, नूरसुल्तान की बड़ी मुसीबत उनकी बड़ी बेटी से ही शुरू हुई। वे मजलिस की साधारण सदस्य भले थीं, लेकिन सत्तारूढ़ दल नूर ओतान पर उनकी पकड़ बहुत ही मजबूत थी। कहा जाता है कि अंतिम पाँच साल में नूरसुल्तान के नाम पर उनकी बड़ी बेटी दरीगा ने ही देश पर शासन किया।

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दरीगा नज़रबायेवा

खुद नूरसुल्तान बेटी दरीगा नज़रबायेवा को अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे। विरोध होने पर उन्होंने अपने मनपसंद कासिम तोकायेव को राष्ट्रपति बना दिया। समझा जाता है कि दरीगा नज़रबायेवा की नज़र राष्ट्रपति पद पर ही है और वे देर सवेर अपना दावा पेश करेंगी। उन्हें स्पीकर पद से हटाए जाने को इस रूप में देखा गया था कि राष्ट्रपति तोकायेव ने उनके पर कतरने के लिए ऐसा किया था।

बहरहाल, भारत सरकार ने इस मुद्दे पर चुप्पी साध रखी है। विदेश मंत्रालय ने सिर्फ़ इतना कहा है कि इस मध्य एशियाई देश में रहने वाले भारतीयों से कहा गया है कि वे स्थानीय प्रशासन के दिशा निर्देश मानें और ज़रूरत पड़ने पर भारतीय दूतावास से संपर्क करें।

भारत की चुप्पी समझी जा सकती है। पिछले महीने रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की दिल्ली यात्रा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से उनकी मुलाक़ात दोनों देशों के बीच मज़बूत हो रहे संबंध बताती हैं।

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जिस तरह दोनों देशों के रक्षा मंत्रियों व विदेश मंत्रियों और इन दोनों मंत्रालयों के वरिष्ठ अधिकारियों के बीच बातचीत हुई, इसका अपना महत्व है। इस तरह की बातचीत को 'टू प्लस टू' कहा जाता है और यह रणनीतिक साझेदारों के बीच ही होती है।

रूस के साथ रक्षा सौदों और दूसरे कई क़रारों से यह साफ़ है कि भारत अमेरिकी खेमे में भले ही जा रहा हो, वह रूस को भी नाराज़ नहीं करना चाहता है। ऐसे में भारत मास्को को नाराज़ कर कज़ाख़स्तान के मुद्दे पर क्यों कुछ बोले, यह साफ है।

कज़ाख़स्तान के मुद्दे पर अमेरिका और रूस बिल्कुल एक दूसरे के ख़िलाफ़ खुल कर आमने-सामने हैं। अमेरिकी विदेश मंत्री एंथनी ब्लिंकन ने मास्को पर चोट करते हुए कहा, "रूसी सेना किसी के घर में घुस जाती है तो उसे बाहर निकालना मुश्किल होता है।"

रूसी विदेश मंत्रालय ने इस पर पलटवार करते हुए कहा, "अमेरिकी सेना किसी के घर में घुस जाए तो लूटपाट और बलात्कार से बचना मुश्किल हो जाता है।"

रूस की भूमिका को देखते हुए भारत की चुप्पी साफ है। लेकिन कज़ाख़स्तान भारत के लिए अहम देश है। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि वह उस शंघाई सहयोग संगठन (सीएसओ) का सदस्य है, जिसमें भारत है। दूसरे, वह अफ़ग़ानिस्तान से सटा हुआ है, जहां तालिबान का शासन है। तीसरी बात यह है कि उसके पास दुनिया का 30 प्रतिशत तेल और बहुत बड़ा प्राकृतिक गैस भंडार है।

और सबसे बड़ी चुनौती यह है कि कज़ाख़स्तान में चीन की कई परियोजनाएं चल रही हैं और उसने अरबों डॉलर का निवेश कर रखा है। भारत चीन से वहां होड़ तो नहीं ही कर सकता है, वह कजाख़ प्रशासन को नाराज़ भी नहीं कर सकता है।

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