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किसी भी हिस्से के साथ नाइंसाफी, सबके साथ अन्याय है

किसी भी हिस्से के साथ नाइंसाफी, सबके साथ अन्याय है

जंतर मंतर पर बैठी महिला पहलवानों का संघर्ष मामूली संघर्ष नहीं है। ये वो तबका है जो कभी सड़क पर निकलकर आंदोलन नहीं करता। इसलिए यह जरूरी है कि भारतीय समाज का हर तबका इस आंदोलन से जुड़े, इन्हें समर्थन दे। वो ऐसा क्यों करें, इसी बात को बता रहे हैं पत्रकार, लेखक और चिन्तक अपूर्वानंद अपने साप्ताहिक कालम में सिर्फ सत्य हिन्दी परः

जंतर मंतर पर एक और विरोध जारी है। यह न मज़दूरों का है, न किसानों का। न दलितों का, न मुसलमानों का। छात्रों का भी नहीं। ये सब समाज के वे तबके हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि उन्हें आंदोलनों का व्यसन है या बीमारी है।अपना काम धाम छोड़कर सड़क पर बार बार आने के उनके कारण हैं। उनपर बात न करके उन्हें आदतन आंदोलनकारी कहकर उनके विरोध को बदनाम करने की कोशिश की जाती रही है।

इस बार जंतर मंतर, सड़क पर वे हैं जिन्हें राष्ट्रीय गौरव कहा जाता है। हर कोई जिनके साथ तस्वीर खिंचाना चाहता है। ये ओलंपिक पदक विजेता पहलवान हैं। महिला पहलवान जिनके साथ उनके पेशे के कुछ पुरुष साथी भी हैं। उनका संघर्ष अपने और कई महिला पहलवानों के लिए न्याय का है। उनका आरोप है कि उनके साथ और अनेक महिला पहलवानों का उनके संघ के अध्यक्ष ब्रजभूषण शरण सिंह ने यौन उत्पीड़न किया है। 

यह आंदोलन का दूसरा चरण है। वे कई महीने से माँग कर रही हैं कि इन आरोपों की जाँच करवाई जाए, संघ के अध्यक्ष के ख़िलाफ़ एफ़आईआर की जाए और उन्हें अध्यक्ष पद से हटाया जाए क्योंकि उनके वहाँ रहते निष्पक्ष जाँच संभव नहीं। लेकिन उनमें से कोई भी माँग पूरी न होने पर उन्हें दोबारा सड़क पर आना पड़ा। पहली बार जब उन्होंने धरना दिया था, अपने आस पास किसी राजनीतिक व्यक्ति को नहीं फटकने दिया था। वृंदा करात को एक प्रकार से अपमानित करके अपने मंच पर नहीं चढ़ने दिया था। उन्हें भय था कि अगर वे साथ दीखे तो उनके आंदोलन को राजनीतिक, सरकार विरोधी ठहरकर बदनाम कर दिया जाएगा और उनकी माँग की पवित्रता नष्ट हो जाएगी।

यह कैसी विडंबना है कि आंदोलनों के इस देश में अब सरकार विरोधी होना बदनामी है जिससे लोग बचना चाहते हैं। कभी वक्त था कि सरकार का हिमायती होना कुछ लज्जा की बात थी और लोग शान से ख़ुद को सरकार का विरोधी बतलाते थे।अब स्थिति उलट गईं है। बहरहाल! पहलवानों के बार बार इसरार के बावजूद कि उनकी माँग सीमित है, वे सरकार पर इल्ज़ाम नहीं लगा रहे हैं, उनकी अर्ज़ी पर क़ायदे से विचार नहीं किया गया।

बहुत खींचतान के बाद एक समिति बनी लेकिन उसने भी अपना काम नहीं किया। तब जाकर पहलवानों को दुबारा सड़क पर उतरना पड़ा। पहले दौर में उनके समर्थन में खेल जगत से कोई आवाज़ नहीं उठी। उनके पक्ष में नारीवादियों ने बात की। इस बार इस संकल्प के साथ कि जब तक उनकी माँग पूरी नहीं होती, वे जंतर मंतर पर डटी रहेंगी। इस बार वे किसी का समर्थन ठुकराएँगी नहीं। राजनीतिक पार्टियों का भी नहीं।

जिसके ख़िलाफ़ वे संघर्ष कर रही हैं, वह मामूली आदमी नहीं। 6 बार सांसद रह चुके ब्रजभूषण सिंह पर पहले से कई आपराधिक मामले चल रहे हैं। कैमरे पर ख़ुद सिंह ने एक आदमी को मारने की बात कही है। मंच पर नौजवान पहलवान को मारते हुए सिंह का वीडियो लाखों लोग देख चुके हैं।

इस देश में हत्या से अधिक बलात्कार को अनैतिक माना जाता है। लेकिन महिला पहलवानों के सिंह पर यौन उत्पीड़न के आरोप पर पत्ता भी नहीं हिला। खिलाड़ी पहले सबके सब चुप रहे। उनका समर्थन उन्होंने किया जो पहले भी किसी भी तरह के अन्याय का विरोध करते रहे हैं। जब लोग सवाल करने लगे तो कुछ खिलाड़ियों ने इनके पक्ष में बयान दिया। सानिया मिर्ज़ा, नीरज चोपड़ा, बिंद्रा, रवि कुमार दहिया,निकहत ज़रीन, कपिल देव, परगट सिंह जैसे कुछ ही खिलाड़ियों ने इनकी माँग का समर्थन किया।

महिला पहलवानों ने पूछा कि हमारे सितारे खिलाड़ी चुप क्यों हैं। अपनी सरकारपरस्ती के लिए मशहूर सचिन तेंदुलकर और उन जैसे दूसरे खिलाड़ियों से आशा भी व्यर्थ थी। लेकिन कभी भेदभाव पर आँसू बहा चुकी पी टी ऊषा से यह उम्मीद न थी कि वे महिला पहलवानों की निंदा करेंगी। उन्होंने कहा कि सड़क पर उतर कर वे देश को बदनाम कर रही हैं। उन्होंने वही कहा जो हर उस औरत को कहा जाता है जो घरेलू हिंसा की शिकायत बाहर करती है: घर की बात बाहर नहीं जानी चाहिए, घर का नाम ख़राब होता है। शायद कुछ दिन पहले मिली राज्य सभा की क़ीमत वे चुका रही हैं या ओलंपिक संघ की अध्यक्षता का दाम दे रही हैं। फ़िल्मी सितारे ख़ामोश हैं। उद्योगपतियों से यों भी आशा नहीं की जाती है। 

जैसी आशंका थी, टेलीविज़न चैनलों ने महिला पहलवानों ने आंदोलन को बदनाम करना शुरू कर दिया है। वे उनके साथ वही कर रहे हैं जो उन्होंने नागरिकता के क़ानून के विरोध में उठे आंदोलन, किसान आंदोलन या छात्र आंदोलन के साथ किया था। सबको राष्ट्र विरोधी बताकर उनके ख़िलाफ़ जनमत बनाना। बदनाम करने के लिए कहा जा रहा है कि सिर्फ़ हरियाणा के समुदाय की पहलवान ही क्यों सड़क पर हैं। क्या यह जाट साज़िश है? याद कीजिए, किसान आंदोलन के बारे में भी यही पूछा गया था कि क्यों सिर्फ़ पंजाब और हरियाणा के किसान सड़क पर हैं। कहा जा रहा है कि निशाना असल में सरकार है, सिंह और यौन उत्पीड़न तो सिर्फ़ बहाना है।

जो अपने किसी दुख, अपने ख़िलाफ़ किसी नाइंसाफ़ी की शिकायत करता है, उसके विरुद्ध हिंसा का वातावरण बनाया जाने लगता है। पिछले 8 सालों की यही कहानी है। किसानों ने इस हिंसा को झेला, मुसलमानों ने इसका सामना किया, छात्रों ने इसका मुक़ाबला किया और  महिला पहलवानों को इससे जूझना पड़ रहा है।

आम तौर पर यौन उत्पीड़न के मामले में पुलिस को रिपोर्ट दर्ज करने में हीला हवाला नहीं करना चाहिए। 2012 के आंदोलन के बाद इस मामले में क़ानून और स्पष्ट है। लेकिन यह मामूली कदम उठाने के लिए भी सर्वोच्च न्यायालय को दिल्ली पुलिस को निर्देश देना पड़ा। यह वही पुलिस है जिसके अधिकारी सदल बल राहुल गाँधी से पूछताछ करने पहुँच गए थे क्योंकि उन्होंने एक सभा में बतलाया था कि उनसे कुछ औरतों ने अपने साथ हुए यौन उत्पीड़न की बात कही। दिल्ली पुलिस का तर्क था कि यह मामला उनके लिए गंभीर है, वे राहुल गाँधी से उन औरतों का नाम जानना चाहते हैं  जिससे वे उनके साथ इंसाफ़ कर सकें। यहाँ महिला पहलवान ख़ुद चीख चीख कर कह रही हैं, जिसने उनके साथ दुराचार किया उसका नाम ले रही हैं लेकिन दिल्ली पुलिस को उनके आरोप पर शक है इसलिए वह  कोई रिपोर्ट दर्ज नहीं करती।

अब इतनी लानत मलामत, सर्वोच्च न्यायालय के तंज के बाद पुलिस ने आख़िरकार रिपोर्ट दर्ज की है। लेकिन अब खिलाड़ियों का कहना है कि वे इससे संतुष्ट नहीं, जब तक सिंह की गिरफ़्तारी नहीं होती, वे नहीं हटेंगी। उनको पुलिस पर भरोसा नहीं। क्या वे ग़लत हैं?  वे जहाँ बैठी हैं, वहाँ बिजली काट दी गई है, उन्हें ख़ाना पानी देनेवालों को मार कर भगाया गया है और उन्हें धमकी दी जा रही है। उनके मुताबिक़ यह पुलिस कर रही है।

यह वक्त है कि छात्र, नौजवान, मज़दूर, किसान, सारे लोग जंतर मंतर पहुँचें। जनता के किसी भी हिस्से के साथ अन्याय सबके साथ अन्याय है। इसलिए इस संघर्ष को मात्र खिलाड़ियों पर नहीं छोड़ देना चाहिए। यह बात भी कि ख़ुद इनमें से कुछ ने पिछले कुछ संघर्षों का साथ नहीं दिया या उसके ख़िलाफ़ रुख़ लिया, इनका साथ देने के रास्ते में आड़े नहीं आनी चाहिए। भले ही अभिजात, मुखर वर्ग भूल चुका हो कि आदमीयत दूसरों के दुख में साथ खड़े होने से ही हासिल की जाती है, बाक़ी सबको इसे याद रखना चाहिए।

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